शनिवार, 26 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 438

  ग़ज़ल 438 [ 12-]

1222---1222---1222---122


हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है

हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।


गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो

मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।


सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से

अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।


मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में

तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।


जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो

यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।


सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी 

मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।


जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’

तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।


-आनन्द पाठक-

कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है


ग़ज़ल 437

  ग़ज़ल 437 [11-G]

212---212---212---212


यार मेरा कहीं  बेवफ़ा तो नहीं

 ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं


कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,

हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं


बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा

ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं


तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई

मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं


रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी 

राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं


लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही

सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।


वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ

जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें

यहाँ सुनें

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ग़ज़ल 436

  ग़ज़ल् 436 [10-]

212---212---212---212--


उसकी नज़रों में वैसे नहीं कुछ कमी

क्यों उज़ालों में उसको दिखे तीरगी ।


तुम् सही को सही क्यों नहीं मानते

राजनैतिक कहीं तो नहीं बेबसी ?


दाल में कुछ तो काला नज़र आ रहा

कह रही अधजली बोरियाँ ’नोट’ की


लाख अपनी सफ़ाई में जो भॊ कहॊ

क्या बिना आग का यह धुआँ है सही


क़ौम आपस में जबतक लड़े ना मरे

रोटियाँ ना सिकीं, व्यर्थ है ’लीडरी’


जिसको होता किसी पर भरोसा नहीं

खुद के साए से डरता रहा है वही ।


हम सफर जब नहीं ,हम सुखन भी नहीं

फिर ये 'आनन' है किस काम की जिंदगी

-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 435

  ग़ज़ल 435 [09-G]

2122---1212---22


लोग क्या क्या नहीं कहा करते ,

हम भी सुन कर केअनसुना करते ।


उनके दिल को सुकून मिलता है

जख़्म वो जब मेरे हरा करते ।


ताज झुकता है, तख़्त झुकता है

इश्क़ वाले कहाँ झुका करते ।


 कर्ज है ज़िंदगी का जो  हम पर

उम्र भर हम उसे अदा करते।


सानिहा दफ्न हो चुका कब का

कब्र क्यों खोद कर नया करते ?


जिनकी गैरत , जमीर मर जाता

चंद टुकड़ो पे वो  पला करते ।


ग़ैर से क्या करें गिला ’आनन’

अब तो अपने भी हैं दग़ा करते


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 434

  ग़ज़ल 434 [ 08-G]

1222---1222---1222---1222


कहाँ आसान होता है  किसी को यूँ भुला पाना

वो गुज़रे पल, हसीं मंज़र, वो कस्मे याद आ जाना


पहुँच जाता तुम्हारे दर, झुका देता मैं अपना सर

अगर मिलता न मुझको रास्ते में कोई मयख़ाना


नहीं मालूम क्या तुमको मेरे इस्याँ गुनह क्या हैं

अमलनामा में सब कुछ है मुझे क्या और फ़रमाना


शजर बूढ़ा खड़ा हरदम यही बस सोचता रहता

परिंदे तो गए उड़ कर मगर मुझको कहाँ जाना ।


अजनबी सा लगे परदेश, गर मन भी न लगता हो

वही डाली, वही है घर, वही आँगन, चले आना ।


कमी कुछ तो रही होगी हमारी बुतपरस्ती में

तुम्हारी बेनियाजी को कहाँ मैने बुरा माना ।


मुहब्बत पाक होती है तिजारत तो नहीं होती

हमारी बात पर ’आनन’ कभी तुम ग़ौर फ़रमाना 


-आनन्द.पाठक-