रविवार, 3 सितंबर 2023

ग़ज़ल 300

 ग़ज़ल 300 [65इ]

2122--2122--2122


आँधियों से तुम अगर यूँ ही डरोगे

किस तरह लेकर दिया आगे बढ़ोगे


मंज़िले तो ख़ुद नहीं आतीं है चल कर

नीद से तुम कब उठोगे कब चलोगे ?


वक़्त का होता अलग ही फ़ैसला है

कर्म जैसा तुम करोगे, तुम भरोगे


 कब तलक उड़ते रहोगे आसमाँ में

तुम ज़मीं की बात आकर कब करोगे?


झूठ ही जब बोलना दिन रात तुमको

सच की बातें सुन के भी तुम क्या करोगे


कब तलक पानी पे खींचोगे लकीरे

और खुद विरदावली गाते रहोगे


हक़ बयानी पर यहाँ पहरे लगे हैं

अब नहीं ’आनन’ तो फिर तुम कब उठोगे ?


-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 299

  ग़ज़ल 299 [64इ]


1222--1222--1222--1222

एक ग़ज़ल : होली पर

ये दिल अपना है दीवाना, हुआ दिलदार होली मे

चढ़ी है भाँग की मस्ती, लुटाए प्यार होली में


अभी तक आप से होती रही हैं 'फोन' पर बातें

यही चाहत हमारी है कि हो दीदार होली में


तुम्हे भी तो पता होगा, जवाँ दिल की है हसरत क्या.

खुला रखना सनम इस बार घर का द्वार होली में ।


उधर हैं राधिका रूठी, न खेलेंगी वो कान्हा से

इधर कान्हा मनाते हैं,  करें मनुहार होली में


जब आता मौसिम-ए-गुल तो कली लेती है अँगड़ाई.

बिना छेड़े ही बज उठते हॄदय के तार होली में ।


न रंगों का कोई मजहब, तो रंगों पर सियासत क्यों ,

सदा रंग-ए-मुहब्बत ही लगाना यार होली में।


न रखने हाथ देती हो झटक देती हो क्यो हँसकर ,

जवानों से जवाँ लगते हैं बूढ़े यार होली में ।


 नहीं छोटा-बड़ा कोई हुआ करता कभी ’आनन’

यही पैगाम देना है समन्दर पार,  होली में ।


-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 298

 

ग़ज़ल 298/63


2122--1212--22

आग पहले तुम्हीं लगाते हो
और तुम ही जले-बताते हो

इन अँधेरों को कोसने वालों
इक दिया क्यूँ नहीं जलाते हो

झूठ की नींव पर खड़े होकर
रोज़ तोहमत नया लगाते हो

काँच का घर ही जब नहीं मेरा
खौफ़ पत्थर का क्या दिखाते हो

बाँध जब टूटने का ख़तरा है
सब्र क्यों और आजमाते हो

बात बननी ही जब नहीं कोई
बात फिर क्यों वही उठाते हो

आख़िरी सफ़ में है खड़ा ’आनन’
ाद कर के भी भूल जाते हो ?


-आनन्द.पाठक-
सफ़= पंक्ति कतार 

ग़ज़ल 297

  ग़ज़ल 297/62


212--212--212--212

फेर ली तुमने क्यों मुझसे अपनी नज़र

छोड़ कर दर तुम्हारा मैं जाऊँ किधर ?


ये अलग बात है तुम न हासिल हुए

प्यार की राह लेकिन चला उम्र भर


उठ के दैर-ओ-हरम से इधर आ गया

जिंदगी मयकदे में ही आई नजर


ख़ुदनुमाई से तुमको थी फ़ुरसत कहाँँ

देखते ख़ुद को भी देखते किस नज़र


बोल कर थे गए लौट आओगे तुम

रात भी ढल गई पर न आई ख़बर


सरकशी मैं कहूँ या कि दीवानगी 

वह बनाने चला बादलों पर है घर


उसको ’आनन’ सियासी हवा लग गई

झूठ को सर झुकाता सही मान कर 


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 296

 ग़ज़ल 296 [61इ]


221--1222 // 221-1222


मिलता हूँ गले लग कर, अपनी तो है बीमारी

दिल खोल के रखता हूँ, यारों से है दिलदारी


जो दाग़ लगे दिल पर नफ़रत से कहाँ मिटते

हर बार मुहब्बत ही नफ़रत पे पड़ी भारी


सत्ता के नशे में तुम रौंदोगे अगर यूँ ही

मज़लूम के हर आँसू बन जाएगी चिंगारी


कीचड़ से सने कपड़े कीचड़ से कहाँ धुलते

हर शख्स में होती जो, इतनी तो समझदारी


तुम दूध पिलाते हो साँपों को बसा घर में

वो आज नहीं तो कल कर जाएंगे गद्दारी


आसान नहीं होता ईमान बचा रखना

फिर काम नही आती जुमलॊं की अदाकारी


”आनन’ की जमा पूँजी बाक़ी है बची अबतक

इक चीज़ शराफ़त है इक चीज़ है ख़ुद्दारी


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 295

  ग़ज़ल 295[60इ]

1222---1222---1222---1222


यही देखा किया मैने यही होता रहा अक्सर

कभी नदियाँ रहीं प्यासी कभी प्यासा रहा सागर


जो डूबोगे तो जानोगे किसी दर्या की गहराई

भला समझोगे तुम कैसे किनारों पर खड़े होकर


जो अफ़साना अधूरा था विसाल-ए-यार का मेरा

चलो बाक़ी सुना दो अब कि नींद आ जाएगी बेहतर


हमें ऎ ज़िंदगी ! हर मोड़ पर क्यों आजमाती है

हमारे आशियाँ पर क्यों तुम्हारे ख़ौफ़ का मंज़र ?


नदी को इक समन्दर तक लबों कि तिश्नगी उसकी

पहाड़ों में कि सहरा में दिखाती राह बन ,रहबर 


उधर अब शाम ढलने को ,इधर लम्बा सफ़र बाक़ी

तराना छेड़ कुछ ऐसा सफ़र कट जाए, ऎ दिलबर !


तमाशा खूब है यह भी, किसे तू ढूँढता 'आनन'

जिसे तू ढूँढता रहता वो रहता है तेरे अन्दर


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 294

  ग़ज़ल 294

1222---1222---1222--1222


जमाल-ओ-हुस्न  जब उनका बहारों पर उतर आया

चमन गाने लगा सरगम दिल अपना भी निखर आया


हज़ारों रंग से हमने सँवारी ज़िंदगी अपनी

मगर हर रंग में इक रंग उनका भी उभर आया


मुहब्बत में कमी होगी, वो नादाँ भी रहा होगा

तुम्हारे दर तलक जा कर भी वापस लौट कर आया


निगाह-ए-शौक़ से क्या क्या मनाज़िर है नहीं गुज़रे

न उनकी रहगुज़र आई, न नक़्श-ए-पा नज़र आया


ढलेगी शाम अब साथी परिंदे घर को लौटेंगे

चलो अब ख़त्म होने को हमारा भी सफ़र आया


समझना ही नहीं चाहा कभी इस दिल की चाहत को

तुम्हें सिक्के का बस क्यों  एक ही पहलू नज़र आया


ये दीवानों की बस्ती है, फ़ना है आख़िरी मंज़िल

तमाशाघर नहीं 'आनन' समझ कर क्या इधर आया ?

-आनन्द.पाठक-






ग़ज़ल 293

 ग़ज़ल 293[58इ]

2122---1212--22


ये हक़ीक़त है या फ़साना है

हर जगह आप का ठिकाना है


आप से हम क़रार क्या करते

आप को कौन सा निभाना है


वक़्त की बारहा कमी रोना

जानता हूँ फ़क़त बहाना है


आप आएँ ग़रीबख़ाने पर

ख़ैर मक़दम में सर झुकाना है


आसमाँ से ज़मीं पे आ जाते

हाल-ए-दुनिया तुम्हे दिखाना है


रूठ कर जाते भी कहाँ जाते

लौट कर फिर यहीं पे आना है


इल्तिज़ा और क्या करूँ ’आनन’

वक़्त रहते न उनको आना है


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 292

 ग़ज़ल 292 [57 इ]

2122---2122---2122--212


कल तुम्हारा शहर सारा जश्न में डूबा रहा

पर हमारी बस्तियों में एक सन्नाटा रहा


वह मुजस्सम सामने है फ़ाइलों में मर चुका

पर अदालत में महीनों मामला अटका रहा


प्यार के ’पैंतीस’टुकड़े काट कर फेंके गए

’आदमीयत’ मर गई पर आदमी ज़िंदा रहा


बन्द कर लेता हैं आँखें रोशनी चुभती उसे

इसलिए ही तीरगी से वास्ता उसका रहा


जब कहीं आया नज़र कोई चमन हँसता हुआ

ले के ’माचिस’ हाथ में साज़िश का वो चेहरा रहा


चाहतें बढ़ती गईं और प्यास थी कुछ इस तरह

पी गया पूरी नदी वह बा'द हु प्यासा रहा


दौर-ए-हाज़िर की अब ’आनन’ क्या रवायत हो गई

सच इधर सूली चढ़ा बातिल उधर गाता रहा ।


-आनन्द,पाठक-

ग़ज़ल 291

 ग़ज़ल 291[56इ]

2122---2122---2122


वह अँधेरों की हिफ़ाज़त में लगा है

रोशनी की ही शिकायत में लगा है


धूप कितनी चढ़ गई उसको पता क्या

वह पुरानी ही हिकायत में लगा है


हो बलाएँ, मौत हो सैलाब आए

हादिसों पर वह सियासत में लगा है


इक तरफ़ मक़्तूल पर आँसू बहा कर

अब वह क़ातिल की जमानत में लगा है


ज़ाहिरन मजलूम की है बात करता

दल बदल वाली तिजारत में लगा है


बन्द कमरे में हमेशा सरनिगूँ जो

वह दिखावे की बग़ावत में लगा है


राग दरबारी सुनाने में लगे सब

और तू ’आनन’ दियानत में लगा है ?


-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 290

 ग़ज़ल 290[55E]


2122---1212---22


उनसे मिलना नहीं हुआ फिर भी

शौक़ मेरा बना रहा फिर भी


आग नफ़रत की बुझ चुकी कब की

लोग देते रहे हवा फिर भी


अह्ल-ए-दुनिया कहे बुरा मुझको

मैने माना नहीं बुरा फिर भी


छोड़ कर जो चला गया मुझको

याद आता है बारहा फिर भी


वह मिला भी तो फ़ासिले से मिला

वह गले से नहीं मिला फिर भी


सच अगर सच है ख़ुद ही बोलेगा

लाख हो झूठ से दबा फिर भी


जागना था उसे जहाँ ’आनन’

जाग कर हैफ़! सो गया फिर भी


-आनन्द.पाठक--


ग़ज़ल 289

 ग़ज़ल 289[54E]

212---1222 // 212---1222


आप को गुमाँ ये है ’आप से ज़माना है’

बात है शरीफ़ों सी , सोच जाहिलाना है


ख़ुद ही वो मुलव्विस हैं सैकड़ॊ गुनाहों में

बात का मगर उनकी तर्ज़ आरिफ़ाना है


बात अब उसूलों की है कहाँ सियासत में

सत्य बस रही कुर्सी, शेष सब बहाना है


धूल उस के चेहरे पर, मानता नहीं लेकिन

वक़्त का तकाज़ा है आइना दिखाना है


रोशनी पे पहरा है ,बस्तियाँ जला देंगी

झूठ सब दलाइल हैं सोच अहमकाना है


बोलना ज़रूरी है? फ़ैसला तुम्ही कर लो

या तो सर कटाना है या तो सर झुकाना है


जुर्म हो किसी का भी, शक हो सिर्फ़ मुझ पर ही

यह तो हद हुई साहब ! मुझ पे क्यों निशाना है?


साज़िशें हवाओं की बन्द कब हुई ’आनन’

प्यार के चिराग़ों को ख़ौफ़ से बचाना है ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 288

 ग़ज़ल 288 [53E]

2122---2122---2122--212


रात आए ख्वाब में वो, दिन सुहाना हो गया

ज़िंदगी को फिर से जीने का बहाना हो गया

 

 लौट आओ छोड़ दो जिद, मै ग़लत तुम ही सही

अब तुम्हे रूठे हुए भी इक ज़माना हो गया


व्यर्थ की बातों को तुम दिल पर ही ले लेती हो क्यों

काम लोगों का यहाँ उँगली उठाना हो गया


तुम से क्या नज़रें मिलीं और कुछ इशारे क्या हुए

फिर हवा में तैरने को इक फ़साना हो गया


हुस्न की ताक़त कहूँ या दिल ही मेरा नातवाँ

इक झलक देखा नहीं ,दिल आशिकाना हो गया


इस मकां से क्या गए तुम, एक तनहाई बची

बाद उसके दिल मेरा ग़म का ठिकाना हो गया


ज़िंदगी भर साथ देना, इश्क़ में होना फना

सच कहूँ "आनन" कि ये जुमला पुराना हो गया

-आनन्द.पाठक-





ग़ज़ल 287

 ग़ज़ल 287/52

2122---2122--212

काम जो भी जब करो अच्छा करो
लोग रख्खें याद कुछ ऐसा करो

कौन देता है किसी को रास्ता
ख़ुद नया इक रास्ता पैदा करो

भीड़ सड़कों पर उतर कर आ गई
इन हवाओं को जरा समझा करो

आस्माँ तक हैं तुम्हारी सीढ़ियाँ
बात लम्बी यूँ न तुम फेंका करो

रोशनी के नाम पर तुम शहर में
यूँ अँधेरें से न समझौता करो

लोग अन्दर तक बहुत टूटे हुए-
उनके चेहरों की खुशी जिंदा करो

लोग प्यासे हैं खड़े 'आनन' यहाँ
इक नदी लेकर इधर आया करो

-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 286

 एक ग़ज़ल 286/51

122---122---122---122

बनाया है जैसा, मैं वैसा बना हूँ

भला हूँ, बुरा हूँ , मगर आप का हूँ


मेरे आब-ओ-गिल में कमी तो नही थी

गुनाहों का फिर क्यों मैं पुतला बना हूँ


इलाही मेरा शौक़ क्या आजमाना

अज़िय्यत में भी आप से बावफ़ा हूँ


बलायें, मसाइब सब अपनी जगह हैं

मैं अपने मुक़ाबिल हूँ ख़ुद से लड़ा हूँ


मैं टूटा हुआ शाख से एक पत्ता

इधर से उधर मै भटकता रहा हूँ


चराग़-ए-मुहब्बत जलाया किसी ने

नवाज़िश है जिसकी, उसे ढूँढता हूँ


मैं ’आनन’ कि माना नमाज़ी नहीं हूँ

मगर आप का मैं रहा आशना हूँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

आब -ओ--गिल = मिट्टी पानी[ ऐसा माना गया कि ख़ुदा ने आदमी कोआब-ओ-गिल से बनाया]

बज़ाहिर = जो ज़ाहिर है ,जो दिख रहा है ,

अज़िय्यत में =शारीरिक कष्ट,मानसिक कष्ट ,यातना में

आशना = चाहने वाला


ग़ज़ल 285

 ग़ज़ल 285[50E]  [ श्रद्धा हत्याकाण्ड पर -------

---ख़ला से आती एक आवाज़ ]

 1222--1222--1222--1222


छुपे थे जो दरिंदे दिल में ,उसके जब जगे होंगे

कटा जब जिस्म होगा तो नहीं आँसू बहे होंगे


न माथे पर शिकन उसके, नदामत भी न आँखों में

कहानी झूठ की होगी, बहाने सौ नए होंगे


हवस थी या मुहब्बत थी छलावा था अदावत थी

भरोसे का किया है खून, दामन पर लगे होंगे


कटारी थी? कुल्हाड़ी थी? कि आरी थी? तुम्हीं जानॊ

तड़प कर प्यार के रंग-ए-वफा पहले मरे होंगे


हमारा सर, हमारे हाथ तुमने काट कर सारे

सजा कर "डीप फ़ीजर" मे करीने से रखे होंगे


लहू जब पूछता होगा. सिला कैसा दिया तुमने

कटी कुछ ’बोटियाँ’ तुमने वहीं लाकर धरे होंगे


तुम्हारे दौर की यह तर्बियत कैसी? कहो ’आनन’ !

उसे ’पैतीस टुकड़े’ भी बदन के कम लगे होंगे


-आनन्द.पाठक- 

[ नोट ; लीविंग रिलेशन में रह रही 27 साल की एक लड़की  श्रद्धा -वालकर-- की हत्या उसके लीविंग पार्टनर ने  कर दी और जिस्म के ’पैतीस [35]  टुकड़े" कर  सबूत मिटाने की नीयत से गुरुग्राम के जंगलों में फ़ेंक दिया ।

शब्दार्थ

ख़ला से = शून्य से

तर्बियत = परवरिश ,संस्कार


ग़ज़ल 284

 ग़ज़ल 284[49इ]


2122--2122--212


बन के साया चल रहा था हमक़दम 

’अलविदा’ कह कर गया मेरा सनम


वक़्त देता ज़ख़्म हर इनसान को

वक़्त ही भरता रहेगा दम ब दम


बोझ यह हल्का लगेगा दिन ब दिन

हौसले से जब रखोगे हर क़दम


बोझ अपना ख़ुद उठाना उम्र भर

सिर्फ़ लफ़्ज़ों से नहीं होते हैं कम


ज़िन्दगी आसान तो होती नहीं

रहगुज़र में सैकड़ॊं हैं पेंच-ओ-ख़म


फ़लसफ़े की बात है अपनी जगह

बाँटता है कौन किसका दर्द-ओ- ग़म


जानता है तू भी ’आनन’ सत्य क्या

बेसबब क्यों कर रहा है चश्म-ए-नम?


-आनन्द.पाठक