ग़ज़ल 292 [57 इ]
2122---2122---2122--212
कल तुम्हारा शहर सारा जश्न में डूबा रहा
पर हमारी बस्तियों में एक सन्नाटा रहा
वह मुजस्सम सामने है फ़ाइलों में मर चुका
पर अदालत में महीनों मामला अटका रहा
प्यार के ’पैंतीस’टुकड़े काट कर फेंके गए
’आदमीयत’ मर गई पर आदमी ज़िंदा रहा
बन्द कर लेता हैं आँखें रोशनी चुभती उसे
इसलिए ही तीरगी से वास्ता उसका रहा
जब कहीं आया नज़र कोई चमन हँसता हुआ
ले के ’माचिस’ हाथ में साज़िश का वो चेहरा रहा
चाहतें बढ़ती गईं और प्यास थी कुछ इस तरह
पी गया पूरी नदी वह बा'द हु प्यासा रहा
दौर-ए-हाज़िर की अब ’आनन’ क्या रवायत हो गई
सच इधर सूली चढ़ा बातिल उधर गाता रहा ।
-आनन्द,पाठक-
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