सोमवार, 21 जून 2021

ग़ज़ल 180

 221-------2121-------1221---212

मफ़ऊलु—फ़ाअ’लातु-मफ़ाईलु—फ़ाइलुन

बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

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एक ग़ज़ल


वह शख़्स देखने में तो लगता ज़हीन है,
अन्दर से हो ज़हीन, न होता यक़ीन है ।       1


कहने को तो हसीन वह ,चेहरा रँगा-पुता,
दिल से भी हो हसीन तो, सच में हसीन है।     2     


सच बोल कर मैं सच की दुहाई भी दे रहा
वह शख़्स झूठ बोल के भी मुतमईन है ।      3         


वह ज़हर घोलता है  फ़िज़ाओं में रात-दिन,
उसका वही ईमान है,  उसका वो दीन है ।      4


ज़ाहिद ये तेरा फ़ल्सफ़ा अपनी जगह सही,
गर हूर है उधर तो इधर महजबीन है                    5          


क्यों  ख़ुल्द से निकाल दिए इस ग़रीब  को,
यह भी जमीं तो आप की अपनी जमीन है।     6         


आनन’ तू  बदगुमान में, ये तेरा घर नहीं,
यह तो मकान और का, बस  तू मकीन है।      7         


-
आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

ज़हीन = सभ्य ,भला आदमी
मुतमईन है = निश्चिन्त है  ,बेफ़िक्र है
फ़लसफ़ा = दर्शन ,ज्ञान

महजबीन = चाँद सा चेहरे वाली
खुल्द  से= जन्नत  से [ आदम का खुल्द से निकाले जाने की जानिब इशारा है ]

मकीन = निवासी






ग़ज़ल 179

 

1212---1122---1212---112/22
ग़ज़ल 179

ग़ज़ल हुई  तो यक़ीनन, न कामयाब हुई
तुम्हारे लब पे जो उतरी तो लाजवाब हुई

हमारे हाथ मे जब तक रही तो पानी थी
तुम्हारे हाथ में जा कर ग़ज़ल शराब हुई

हुई, हुई न हुई , कोई अख़्तियार नहीं
मगर हुई जो मुहब्बत तो बेहिसाब हुई

तमाम लोग थे जो जुल्म के शिकार हुए
कि सब के दिल की उठी आग, इन्क़लाब हुई

बचा के ला दिए तूफ़ान हादिसों से, मगर
अजीब प्यास थी साहिल पे गर्क-ए-आब हुई

हर एक बार जो गुज़रे तुम्हारे कूचे से
हमारी सोच ही नाक़िस थी बेनक़ाब हुई

अजीब चीज़ है उल्फ़त की भी सिफ़त’आनन’
किसी को मिल गई मंज़िल ,किसी का ख़्वाब हुई

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
गर्क-ए-आब हुई = डूब गई
नाक़िस सोच = ्ख़राब सोच ,नुक़्स वाली सोच
सिफ़त = गुण ,लक्षण


अनुभूतियाँ 68


269
मौसम आते मौसम जाते
और हवाओं की सरगोशी
कह देती हैं सारी बाते
एक तेरी लम्बी ख़ामोशी
 
270
इतना भी आसान नहीं है
बरसों का है साथ -भुलाना
भूल भले ही तुम जाओ,पर
मुझको है ताउम्र  निभाना
 
271
किसकी चिन्ता ,कैसी चिन्ता ?
दिल को रोना ,रो के रहेगा
टाल सका है कौन यहाँ कब
होना है जो हो के रहेगा
 
272
गया वक़्त फिर कब आता है
यादें रह जाती हैं मन में
कागज की थी नाव कभी, पर
बहुत भरोसा था बचपन में

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 67

 

क़िस्त 67

 
265
सफ़र ख़तम होने वाला है
राह आख़िरी की तैयारी
बहुत शुक्रिया साथी मेरे !
बहुत निभाई तुम ने यारी
 
266
नया सफ़र हो तुम्हे मुबारक
साथी तुमको मिला नया है
जितना साथ रही तुम,काफी
मेरी छोड़ो मेरा क्या  है !
 
267
होली का मौसम आया है,
फ़गुनह्टा’ आँचल सरकाए।
मादक हुई हवाएँ, प्रियतम !
रह रह कर है मन भटकाए ।

268
कुछ रही शिकायत तुम से भी
कुछ पपने ग़म का रोना था
दुनिया को मैं क्या बतलाता
जो होना था, वो होना था

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 66

 

क़िस्त  66

261
नकली चेहरे  वाले करते
दिल्ली का सत्ता संचालन
नकली सिक्के कर देते हैं
असली सिक्कों का निष्कासन


262
अहम भरा है नस नस उनके
औरों को छोटा समझे वो
अपना सिक्का असली समझें
ग़ैरों का खोटा समझे वो
 
263
हर मौज़ू पर इल्म बाँटते
अपने को बरतर आँके वो
बात अमल की जब आती है
इधर उधर बगलें झाँके वो
 
264
कुएँ का मेढक क्या समझे
उसकी तो बस उतनी दुनिया
उछल रहा है ऐसे मानों
नाप के आया कोई दर्या

-आनन्द.पाठक-

अनुभूतियाँ 65

 

क़िस्त 65


257
प्यार भरी बातें करनी थी
लेकिन वह भी मौसम बीता
कल तक दिल में सौ बातें थीं
आज वही घट रीता रीता
 
258
उन बातों की बात न करनी
सुन कर दिल हो जाए भारी
और किसी दिन मिल बैठेंगे
सुन लेंगे फिर व्यथा तुम्हारी

259
माया की सब ये माया है
दलदल में तुम फ़ँसते जाते
ऐसा क्यों है तुम भी सोचो
फिर भी हम सब हँसते जाते

260
स्वांग रचाए तुमने कितने
फिर भी खुद को ना चल पाए
सच का केवल एक रूप है
झूठ कहाँ कब तक चल पाए

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 11 जून 2021

गीत 70

 2122---2122--2122--2122

गीत 70 : ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ ---

ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ ,मैं अभी हारा नहीं हूँ ,
बिन लड़े ही हार मानूँ ? यह नहीं स्वीकार मुझकॊ

जो कहेंगे वो, लिखूँ मैं ,शर्त मेरी लेखनी पर,
और मेरे ओठ पर ताला लगाना चाहते हैं ।
जो सुनाएँ वो सुनूँ मैं, ’हाँ’ में ’हाँ’ उनकी मिलाऊँ
बादलों के पंख पर वो घर बनाना चाहते हैं॥

स्वर्ण-मुद्रा थाल लेकर आ गए वो द्वार मेरे,
बेच दूँ मैं लेखनी यह ? है सतत धिक्कार मुझको

ज़िन्दगी आसां नहीं तुम सोच कर जितनी चली हो,
कौन सीधी राह चल कर पा गया अपन ठिकाना ।
हर क़दम, हर मोड़ पर अब राह में रहजन खड़े हैं
यह सफ़र यूँ ही चलेगा, ख़ुद ही बचना  या बचाना ।

जानता हूँ  तुम नहीं मानोगी  मेरी बात कोई-
और तुम को रोक लूँ मैं, यह नहीं अधिकार मुझको।

लोग अन्दर से जलें हैं, ज्यों हलाहल से बुझे हों,
आइने में वक़्त के ख़ुद को नहीं पहचानते हैं।
नम्रता की क्यों कमी है, क्यों ”अहम’ इतना भरा है
सामने वाले को वो अपने से कमतर मानते हैं।

एक ढूँढो, सौ मिलेंगे हर शहर में, हर गली में ,
रूप बदले हर जगह मिलते वही हर बार मुझको।

-आनन्द.पाठक- 

ग़ज़ल 178

 ग़ज़ल 178

21--21-121--122 // 21-121-121-122


अपना ही क्यों हरदम गाते, तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 
कैसे  कैसे स्वाँग रचाते , तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

बात यक़ीनन कुछ तो होगी, मतलब होगा उनका,वरना
क्यों क़ातिल का साथ निभाते?, तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

चोट लगी हो जब शब्दों से, जीवन भर वो रिसते रहते
घाव कहाँ कब हैं भर पाते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

इतने तो मासूम नहीं हो, जान रही है दुनिया सारी
फिर तुम क्यों खुद को झुठलाते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ 

चाँद सितारों की बातों से ,मुझको क्या है लेना-देना
क्या सच है यह क्यों न बताते? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

फ़ित्ना उभरा, बस्ती उजड़ी, लोग मगर ख़ामोश रहे क्यूँ
हम सब क्यों गूँगे हो जाते ? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 

माया की ही सब माया है, जान रहे हो तुम भी ’आनन’
दलदल में क्यों फँसते जाते ? तुम भी सोचो, मैं भी सोचूँ . 


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 177

 ग़ज़ल 177

221--1222 //221-1222


हर बात पे नुक़्ताचीं ,उनकी तो ये आदत है
हम ग़ौर से सुनते हैं,अपनी ये ज़हानत है


अच्छा न बुरा कोई ,सब वक़्त के मारे हैं
तकदीर अलग सब की.सब रब की इनायत है


सब लोग सफ़र में हैं, फिर लौट के कब आना
चलना ही जहाँ चलना ,कैसी ये मसाफ़त है ?


पर्दे में अज़ल से वो , देखा भी नहीं  हमने
हर शै में नज़र आता ,जब दिल में सदाकत है


वीरान पड़ा है दिल, मुद्दत भी हुई अब तो
आता न इधर कोई, करने कोअयादत है


क्यों पूछ रही हो तुम ’आनन’ का पता क्या है?
क्या कोई सितम बाक़ी,क्या कोई क़यामत है ?


”आनन’ की जमा पूँजी , बाक़ी है बची अबतक
इक चीज़ है ख़ुद्दारी ,इक चीज़ शराफ़त है 



-आनन्द.पाठक


मसाफ़त = सफ़र

अज़ल से = अनादि काल से

सदाक़त = सच्चाई

इयादत = मरीज का हाल चाल पूछना


ग़ज़ल 176

 ग़ज़ल 176

21--121--121--122// 21-121-121-12

अहमक लोगो को कुर्सी पर, बैठे अकसर देखा है
पूरब जाना,पश्चिम जाए , ऐसा रहबर देखा है

तेरा भी घर शीशे का है, मेरा भी घर शीशे का
लेकिन तेरे ही हाथों में, मैने पत्थर  देखा  है 

नफ़रत की जब आँधी चलती, छप्पर तक उड़ जाते हैं
गुलशन, बस्ती, माँग उजड़ती .ऐसा मंज़र देखा है 

मंज़िल से ख़ुद ही ग़ाफ़िल है ,बातें ऊँची फेंक रहा
बाहर से मीठा मीठा है , भीतर ख़ंजर देखा है 

एक ’अना’ लेकर ज़िन्दा है ,झूठी शान दिखावे की
दुनिया में उसने अपने से , सबको कमतर देखा है

बच्चे वापस आ जायेंगे,ढूँढ रहीं बूढ़ी आँखें
ग़म में डूबे खोए बाबा. ऐसा भी घर देखा है 

लाख शिकायत जीवन तुम से ,फिर भी कुछ है याराना
जब भी देखा मैने तुमको, एक नज़र भर देखा है

नाम सुना होगा ’आनन’ का. शायद देखा भी होगा
लेकिन क्या  ’आनन’ का तुम ने, ग़म का सागर देखा है?


अहमक - नाक़ाबिल. 

ग़ज़ल 175

 212---212---212--2


ग़ज़ल 175


लोग हद से गुज़रने लगे हैं
आइने देख डरने लगे हैं

हम तो मक़्रूज़ है ज़िन्दगी के 
दर्द से क़िस्त भरने लगे हैं

घाव जो वक़्त ने भर दिए थे
जख़्म फिर से उभरने लगे हैं

झूठ के जो तरफ़दार थे,वो
बात सतयुग की करने लगे हैं

बारहा ज़िन्दगी को समेटा
और सपने बिखरने लगे हैं

शौक़ से वो क़लम बेच आए
पूछने पर, मुकरने लगे हैं

जुर्म किसका था,इलजाम ’आनन’
सर पर मेरे वो धरने लगे हैं


-आनन्द.पाठक-


मक्रूज़ = ऋणी 


अनुभूतियाँ 64

 
253
वादा करना शौक़ तुम्हारा
और निभाना जब हो मुश्किल
झूठे वादे क्यॊ करती हो
राह देखता रहता है दिल
 
254
पल दो पल का मिलना क्या था
जीवन भर का दर्द मिला है
बेहतर होता ना ही मिलते
जब मिलने का यही सिला है
 
255
साथ छोड़ कर यूँ जाने की
क्यों इतनी जल्दी थी जानम!
जीवन भर की बात हुई थी
साथ निभाने को थी हमदम!
 
256
मेरे प्रश्नों का कब उत्तर
देती हो तुम मन से खुलकर
’हाँ, में ’ना” में या चुप हो कर
शब्द प्रकम्पित अधर पटल पर

-आनन्द.पाठक-