मंगलवार, 28 मई 2024

ग़ज़ल 360

  ग़ज़ल 360/35 : लोग सुनेंगे हँस कर अपनी--

21--121--121---121---121--122  =24

सोए जो दिन रात, जगाने से क्या होगा
बहरों को आवाज़ लगाने से क्या होगा

लोग सुनेंगे हँस कर अपनी राह लगेंगे
महफ़िल महफ़िल दर्द सुनाने से क्या होगा  !

आज नहीं तो कल सच का सूरज निकलेगा
झूठ अनर्गल बात बनाने से क्या होगा  !

जब दामन के दाग़ बज़ाहिर दिखते हो 
फिर दुनिया से दाग़ छुपाने से क्या होगा !

सत्ता की साज़िश में थे जब तुम भी शामिल
तुमसे फिर उम्मीद लगाने से क्या होगा !

ऊँची ऊँची आदर्शों की बातें करना-
सिर्फ़ हवा में गाल बजाने से क्या होगा !

प्रश्न तुम्हारा ’आनन’ नाक़िस बेमानी है
तुम क्या जानो दीप जलाने से क्या होगा !


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 359

  ग़ज़ल 359/34 : उसे ख़बर ही नहीं है --

1212---1122---1212---112/22


उसे ख़बर ही नहीं है, उसे पता भी नहीं

हमारे दिल में सिवा उसके दूसरा भी नहीं


न जाने कौन सा था रंग जो मिटा भी नहीं

मज़ीद रंग कोई दूसरा चढ़ा भी नहीं  ।


जो एक बार तुम्हें ख़्वाब में कभी देखा ,

ख़ुमार आज तलक है तो फिर बुरा भी नहीं।


भटक रहा है अभी तक ये दिल कहाँ से कहाँ

सही तरह से किसी का अभी हुआ भी नहीं ।


किताब-ए-इश्क़ की तमहीद ही पढ़ी उसने

"ये इश्क़ क्या है"  कभी ठीक से पढ़ा भी नहीं


ख़ला से, ग़ैब से आती है फिर सदा किसकी

वो कौन हैं? वो कहाँ है?  कभी दिखा भी नहीं ।


तमाम लोग थे " आनन"  को रोकते ही रहे

सफ़र तमाम हुआ और वह रुका भी नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

तमहीद = किसी किताब की प्रस्तावना , भूमिका, प्राक्कथन

ग़ज़ल 358

  ग़ज़ल 358/33

1222---1222---1222---1222


चलो होली मनाएँ आ गया फिर प्यार का मौसम

गुलाबी हो रहा है मन, तेरे पायल की सुन छम छम


लगीं हैं डालियाँ झुकने, महकने लग गईं कलियाँ

हवाएँ भी सुनाने लग गईं अब प्यार का सरगम ।


समय यह बीत ना जाए, हुई मुद्दत तुम्हें रूठे

अरी ! अब मन भी जाओ, चली आओ मेरी जानम।


भरी पिचकारियाँ ले कर चली कान्हा की है टोली

इधर हैं ढूँढते ’कान्हा’,उधर राधा हुई बेदम ।


चुनरिया भींग जाए तो बदन में आग लग जाए

लुटा दे प्यार होली में, रहे ना दिल में रंज-ओ-ग़म । 


ये मौसम है रँगोली का, अबीरों का, गुलालों का

बुला कर रंजिशें सारी, गले लग जा मेरे हमदम ।


इसी दिल में है ’बरसाना’, ’कन्हैया’ भी हैं”राधा’ भी

तू अन्दर देख तो ’आनन’ दिखेगा वह युगल अनुपम ।


-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 357

  

ग़ज़ल 357/32

1212---1122---1212---22-


चिराग़-ए-इश्क़ मेरा यूँ बुझा नहीं होता

नज़र से आप की जो मैं गिरा नहीं होता


क़लम न आप की बिकती, नहीं ये सर झुकता

जमीर आप का जो गर बिका नहीं  होता


शरीफ़ लोग भी तुझको कहाँ नज़र आते

अना की क़ैद में जो तू रहा नहीं  होता ।


वहाँ के हूर की बातें मैं  क्या सुनूँ ,ज़ाहिद

यहाँ की हूर में भी, हुस्न क्या नही होता ?


सफ़र तवील था, कटता भला कहाँ मुझसे

सफ़र की राह में जो मैकदा नहीं होता ।


मेरे गुनाह मुझे कब कहाँ से याद आते

जो आस्तान तुम्हारा दिखा नहीं होता ।


तुम्हारे बज़्म तक ’आनन’ पहुँच गया होता

ख़याल-ए-ख़ाम में जो दिल फँसा नहीं होता


-आनन्द.पाठक- 

ग़ज़ल 356

  ग़ज़ल 356/31

221---1221---1221---122


मिलता है बड़े शौक़ से वह हाथ बढ़ा कर

रखता है मगर दिल में वो ख़ंज़र भी छुपा कर


तहज़ीब की अब बात सियासत में कहाँ हैं

लूटा किया है रोज़ नए ख़्वाब दिखा कर


यह शौक़ है या ख़ौफ़ कि आदात है उसकी

मिलता है हमेशा वह मुखौटा ही चढ़ा कर


करने को करे बात वो ऊँची ही हमेशा

जब बात अमल की हो, करे बात घुमा कर


जिस बात का हो सर न कोई पैर हो प्यारे

उस बात को बेकार न हर बार खड़ा कर


यह कौन सा इन्साफ़, कहाँ की है शराफ़त

कलियों को मसलते हो ज़बर ज़ोर दिखा कर


’आनन’ तू करे और पे क्यों इतना भरोसा

धोखा ही मिला जब है तुझे दिल को लगा कर।


-आनन्द.पाठक-