मंगलवार, 10 मई 2022

ग़ज़ल 234

 ग़ज़ल 234


2122---1212---22


ज़िंदगी ग़म भी शादमानी भी

इक हक़ीक़त भी है कहानी भी


हादिसे कुछ ज़मीन के आइद

कुछ बलाएँ भी आसमानी भी


प्यार मेरा पढ़ेगी कल दुनिया

एक राजा था एक रानी भी


तेरे अन्दर ही इल्म की ख़ुशबू

तेरे अन्दर है रातरानी भी


लौट कर अब न आएगा बचपन

अब न लौटेगी वो जवानी भी


दर्द अपना बयान करती , वो

कुछ तो आँसू से कुछ ज़ुबानी भी


लुत्फ़ है ज़िन्दगी अगर ’आनन’

साथ में तल्ख़-ए-ज़िंदगानी भी


-आनन्द.पाठक-


आइद =आने वाला 


ग़ज़ल 233

  ग़ज़ल 233


221--2122 // 221--2122


जन्नत से वो निकाले, हमको मिली सज़ा है

दिल आज भी हमारा ,उतना ही बावफ़ा है


तेरी नज़र में शायद , गुमराह हो गया हूँ

मैने वही किया है , इस दिल ने जो कहा है


जब तक नहीं मिले तुम, सौ सौ ख़याल मन में

जब रूबरू हुए तो, सजदे में सर झुका है 


रहबर की शक्ल में थे, किरदार रहजनों के

दो-चार गाम पर ही, यह कारवाँ लुटा है


ज़ाहिद की बात अपनी, रिंदो की बात अपनी

दोनों के हैं दलाइल, दोनों को सच पता है


जो कुछ वजूद मेरा, तेरी ही मेहरबानी

आगे भी हो इनायत, बस इतनी इल्तिजा है


आरिफ़ नहीं हूँ ’आनन’, इतना तो जानता हूँ

दिल में न हो मुहब्बत, तो फिर वो लापता है ।


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

गाम = क़दम

दलाइल = दलीलें ,तर्क [ दलील का ब0व0\

ज़ाहिद  = धर्मोपदेशक

रिंद      = शराबी

आरिफ़ = तत्व ज्ञानी, ध्यानी ज्ञाता


बुधवार, 4 मई 2022

ग़ज़ल 232

 


ग़ज़ल 232


1222---1222---1222----1222



हमारी सोच में चन्दन की खुशबू है, मेरी थाती

तुम्हारी सोच नफ़रत से नहीं आगे है बढ़ पाती


चमन अपना, वतन अपना, ये कलियाँ फूल सब अपने

वो नफरत कौन सी ऐसी कि जो पत्थर है चलवाती


तुम्हारे रहबरों ने की अँधेरों की तरफ़दारी

नहीं पूछा किसी ने रोशनी क्यों घर नहीं आती


कहाँ होता है कोई फ़ैसला तलवार ख़ंज़र से

अगर मिल बैठ कर जो बात करते बात बन जाती


दिया तनहा तुम्हें दिखता है लेकिन है नहीं तनहा

दुआएँ अम्न की है साथ उसके, जल रही बाती


सभी अपनी ग़रज़ से हैं सियासत के बने मोहरे

जहाँ मौक़ा मिले दुनिया को ,अपनी चाल चल जाती


ये उनका काम है ’आनन’, लड़ाना और लड़वाना

तुम्हें उनकी खुली साज़िश समझ में क्यॊं नही आती


-आनन्द.पाठक-



सोमवार, 2 मई 2022

ग़ज़ल 231

 ग़ज़ल 231[95]

2122---1212---22

हस्र-ए-उलफ़त तो तब पता होगा !
जब हक़ीक़त से सामना  होगा

वक़्त सबका हिसाब रखता है
फिर तुम्हारी अना का क्या होगा?

आग दामन को छू रही है, वो
मजहबी खेल में लगा होगा ।

गर्म होने लगी हवाएँ  हैं-
सानिहा फिर कोई नया होगा

ख़्वाब टूटा तो ग़मजदा क्यों हो ?
 इक नया रास्ता खुला होगा

जो भी होना है वो तो होना है
जो भी क़िस्मत में कुछ लिखा होगा

 उस से अब भी उमीद है ’आनन’
एक दिन वह भी बावफा होगा ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 230

 ग़ज़ल 230 [94]

1222---1222---1222---1222


ख़ुदाया ! काश वह मेरा कभी जो हमनवा होता

उसी की याद में जीता, उसी पर दिल फ़ना होता


कभी तुम भी चले आते जो मयख़ाने में ऎ ज़ाहिद !

ग़लत क्या है, सही क्या है, बहस में फिर मज़ा होता


किसी के दिल में उलफ़त का दिया जो तुम जला देते

कि ताक़त रोशनी की क्या ! अँधेरों को पता होता 


उन्हीं से आशनाई भी , उन्हीं से है शिकायत भी

करम उनका नहीं होता तो हमसे क्या हुआ होता


नज़र तो वो नहीं आता, मगर रखता ख़बर सब की

 जो आँखें बन्द करके देखता, शायद दिखा होता 


वो आया था बुलाने पर, वो पहलू में भी था बैठा

निगाहेबद नहीं होती , न मुझसे वो ख़फ़ा होता


निहाँ होना, अयाँ होना, पस-ए-पर्दा छिपा होना

वो बेपरदा चले आते समय भी रुक गया होता


हसीनों की निगाहों में बहुत बदनाम हूँ ’आनन’

हसीना रुख बदल लेतीं, कभी जब सामना होता


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 229

 


1222--1222--1222-1222


ग़ज़ल 229 [40]

अगर सच से न घबराते, तो मंज़र और कुछ होता
गुनाहों से जो बाज़ आते, तो मंज़र  और कुछ होता

तुम्हारे हाथ में माचिस, चिराग़ों को जलाते तुम
उजाला दिल में फैलाते, तो मंज़र और कुछ होता

बना कर सीढ़ियाँ तुमको, वो तख़्त-ओ-ताज तक पहुँचे
तुम्हे वो याद कर पाते, तो मंज़र और कुछ होता

बना ली दूरियाँ तुमने, इन आक़ाओं के कहने पर
जो आपस में न लड़वाते, तो मंज़र और कुछ होता

डराते हैं तुम्हे हर दिन, कहीं यह ’वोट’ ना फिसले
अगर तुम डर नहीं जाते, तो मंज़र और कुछ होता

ग़रज उनकी जो होती है, तुम्हे मोहरा बनाते है
कुटिल चालें समझ जाते, तो मंज़र और कुछ होता

यहाँ पर कौन है किसका, सभी मतलब के हैं ’आनन’
कभी तुम बेग़रज़ आते, तो मंज़र और कुछ होता


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 228

 ग़ज़ल 228 [92]


1222--1222---1222--1222


सबक़ उलफ़त का दुहराते ,नज़ारा और कुछ होता

अगर नफ़रत न फैलाते , नज़ारा और कुछ होता ।


जहाँ पत्थर थे बरसाए, जहाँ तलवार लहराए

वहाँ गर फूल बरसाते ,नज़ारा और कुछ होता ।


जलाते जा रहे हो बस्तियाँ, दूकाँ ,मकाँ ,छप्पर

ज़हानत पर उतर आते, नज़ारा और कुछ होता ।


अगर तुम क़ैद ना करते चमन के रंग, ख़ुशबू तो

सुमन हर डाल खिल जाते ,नज़ारा और कुछ होता ।


फ़रेबी रहनुमाओं के जो चालों में न तुम फँसते

निकल बाहर चले आते, नज़ारा और कुछ होता ।


सियासत भी है मज़हब में, बने हैं क़ौम के लीडर

इरादे जो समझ जाते ,नज़ारा और कुछ होता ।


इधर भी सरफ़िरे कुछ हैं  उधर भी सरफ़िरे ;आनन’ 

तराने प्यार के गाते, नज़ारा और कुछ होता ।


आनन्द.पाठक



ग़ज़ल 227

 ग़ज़ल 227 [91]


1222--1222--1222--12


यूँ उनकी शान के आगे है  मेरी शान क्या  !

इनायत हो न जब उनकी मेरी पहचान क्या !


हवा नफ़रत जो फ़ैलाए तो है किस काम की

न फैलाएअगर ख़ुशबू हवा का मान क्या


गिरह तू चाहता है खोलना ,खुलती नहीं

तेरा अख़्लाक़ क्या है ताक़त-ए-ईमान क्या  !


शराइत हैं हज़ारों जब, हज़ारों बंदिशें

तुम्हारे दर तलक जाना कहीं आसान क्या !


दिखाता राह इन्सां को मुहब्बत का दिया

जले ना आग सीने में तो फिर इन्सान क्या


कभी तुमने नहीं देखा ख़ुद अपने आप को

वगरना ज़िंदगी होती कभी अनजान क्या


जो कहना चाहते हो तुम ज़रा खुल कर कहो

तुम्हारी चाहतें क्या ,ख़्वाब क्या, अरमान क्या


अक़ीदत हो तुम्हारे दिल में हो जो हौसला

तो  ’आनन’ सामने हो आँधियाँ तूफ़ान क्या !


-आनन्द.पाठक-


शराइत = शर्तें

अक़ीद्त = श्रद्धा विश्वास


ग़ज़ल 226

 ग़ज़ल 226 [90]


1222---1222--1222--1222


बुजुर्गों की दुआएँ  हो तो हासिल हर ख़ुशी होगी

उन्हीं से रहबरी होगी, उन्हीं से रोशनी  होगी


न हुस्ना हमसफ़र कोई, न काँधे पर टिका सर हो

मुहब्ब्त के बिना भी ज़िंदगी क्या ज़िंदगी होगी


हमें मालूम है उनकी बुलंदी की हक़ीक़त क्या

क़लम गिरवी रखी होगी ज़ुबाँ उनकी  बिकी होगी


वो आया था यही कह कर बदल देगा ज़माने को

सियासत में उलझ कर बात उसकी रह गई होगी


समझ कर भी न समझो तो फिर आगे और क्या कहना

तुम्हारी सोच में शायद कहीं कोई कमी होगी


जो नफ़रत से भरा हो दिल नज़र कुछ भी न आएगा

मुहब्ब्बत से जो भर लोगे ख़ुदा की बंदगी होगी


सही क्या है ग़लत क्या है न समझोगे कभी ’आनन’

कि जबतक आँख पर ख़ुदगर्ज़ की पट्टी बँधी होगी



-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 225

 ग़ज़ल 225 [89]

1222-----1222-----1222----1222


मुलव्विस हूँ हमेशा मै, गुनाहों में, ख़ताओं में

मगर वो याद रखता है, मुझे अपनी दुआओं मे

 

रहूँ या ना रहूँ कल मैं मगर नग्में मेरे होंगे

जो ख़ुशबू बन के फैलेंगे ज़माने की हवाओं में

 

नजूमी तो नहीं हूँ मैं मगर इतना तो कह सकता

सुनाऊँ दास्ताँ अपनी तो गूँजेंगी फ़िज़ाओं में

 

कभी शे’र-ओ-सुख़न मेंरे सुनोगे जो अकेले में

छ्लक आएँगे दो आँसू तुम्हारी भी निगाहों में

 

रफ़ाक़त अब नहीं वैसी कि पहले थी कभी जैसी

मगर शामिल रहोगी तुम सदा मेरी दुआओं में

 

नज़ाक़त भी, तबस्सुम भी, लताफ़त भी, क़यामत भी

कहीं मैं खो नहीं जाऊँ तुम्हारी इन अदाओं में

 

ख़ला में बारहा तुमको पुकारा नाम लेकर भी

सदा आती है किसकी लौट कर आती सदाओं में

 

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 224

 ग़ज़ल 224

2122—1212—22

 

एक रिश्ता जो ग़ायबाना1 है ,

उम्र भर वह हमें निभाना है ।

 

इतनी ताक़त दे ऎ ख़ुदा मेरे !

आज उनसे नज़र मिलाना है ।

 

शेख जी ! फिर वही रटी बातें ?
और क्या कुछ नया बताना है ?

 

रंग-सा घुल गई समन्दर में ,

बूँद का बस यही फ़साना है ।

 

वो पुकारेगा जब कभी मुझको,

काम हो लाख , छोड़ जाना है।

 

तेरी आदत वही पुरानी है -

ज़ख़्म देकर के भूल जाना है ।

 

बात सबकी सुना करो ’आनन’ ,

जो कहे दिल वो आज़माना है ।

 

-आनन्द.पाठक-

 

1-    1- परोक्ष में. छिपा छिपा

ग़ज़ल 223

 ग़ज़ल 223

1222---1222---1222---1222


अनाड़ी था, नया था, राहबर था बदगुमाँ मेरा

कि उसकी रहबरी में लुट गया है कारवाँ मेरा

 

धुआँ जब फेफड़ॊ में था, जलन आँखों में थी उसकी

खुशी उसको मिली जी भर, जला जब आशियाँ मेरा

 

ज़माने की हवाओं से मुतासिर हो गया वह तो

कि अपनी पीठ खुद ही थपथापाता हमज़ुबाँ मेरा

 

चमन मेरा, वतन मेरा, सभी मिल बैठ कर सोचें

जहाँ तक भी हवा जाए ,ये महके गुलसिताँ मेरा

 

ग़म-ए-दौरां, ग़म-ए-जानाँ, कभी मज़लूम के आँसू

यही हर्फ़-ए-सुख़न मेरा, यही रंग-ए-बयाँ  मेरा

 

अगर दिल तोड़ दे कोई, बिना पूछे चले आना

मुहब्बत से भरा है दिल ये बह्र-ए-बेकराँ1  मेरा

 

कहाँ मिलता है कोई अब यहाँ दिल खोल कर ’आनन’

किसे फ़ुरसत पड़ी है जो सुने दर्द-ए-निहां2 मेरा

 

 

-आनन्द.पाठक-