ग़ज़ल 232
1222---1222---1222----1222
हमारी सोच में चन्दन की खुशबू है, मेरी थाती
तुम्हारी सोच नफ़रत से नहीं आगे है बढ़ पाती
चमन अपना, वतन अपना, ये कलियाँ फूल सब अपने
वो नफरत कौन सी ऐसी कि जो पत्थर है चलवाती
तुम्हारे रहबरों ने की अँधेरों की तरफ़दारी
नहीं पूछा किसी ने रोशनी क्यों घर नहीं आती
कहाँ होता है कोई फ़ैसला तलवार ख़ंज़र से
अगर मिल बैठ कर जो बात करते बात बन जाती
दिया तनहा तुम्हें दिखता है लेकिन है नहीं तनहा
दुआएँ अम्न की है साथ उसके, जल रही बाती
सभी अपनी ग़रज़ से हैं सियासत के बने मोहरे
जहाँ मौक़ा मिले दुनिया को ,अपनी चाल चल जाती
ये उनका काम है ’आनन’, लड़ाना और लड़वाना
तुम्हें उनकी खुली साज़िश समझ में क्यॊं नही आती
-आनन्द.पाठक-
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