ग़ज़ल 231[95]
2122---1212---22
हस्र-ए-उलफ़त तो तब पता होगा !
जब हक़ीक़त से सामना होगा
जब हक़ीक़त से सामना होगा
वक़्त सबका हिसाब रखता है
फिर तुम्हारी अना का क्या होगा?
फिर तुम्हारी अना का क्या होगा?
आग दामन को छू रही है, वो
मजहबी खेल में लगा होगा ।
मजहबी खेल में लगा होगा ।
गर्म होने लगी हवाएँ हैं-
सानिहा फिर कोई नया होगा
ख़्वाब टूटा तो ग़मजदा क्यों हो ?
इक नया रास्ता खुला होगा
जो भी होना है वो तो होना है
जो भी क़िस्मत में कुछ लिखा होगा
उस से अब भी उमीद है ’आनन’
एक दिन वह भी बावफा होगा ।
-आनन्द.पाठक-
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