बुधवार, 10 अगस्त 2022

ग़ज़ल 250

 ग़ज़ल 250 [15E]

मूल बहर

21-121-121-122 = 21-122 // 21-122


कोई रहता  मेरे अन्दर

ढूँढ रहा हूँ किसको बाहर ?


आलिम, तालिब, अल्लामा सब

पढ़ न सके हैं "ढाई आखर"


दर्द सभी के यकसा होते

किसका कमतर? किसका बरतर?


साथ तुम्हारा मिल जाए तो

क्या जन्नत ! क्या आब-ए-कौसर !


ज़ाहिद सच सच आज बताना

क्या है यह हूरों का चक्कर ?


रंज़-ओ-ग़म हो लाख तुम्हारा

कौन सुनेगा साथ बिठा कर 


देख कभी दुनिया तू ’आनन’

नफ़रत की दीवार गिरा कर ।


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

यकसा =एक जैसा

बरतर = बढ़ कर

आब-ए-कौसर =स्वर्ग का पानी

ग़ज़ल 249

 ग़ज़ल 249


2122---1212---22


आप को राज़-ए-दिल बताना क्या !

उड़ते बादल का है ठिकाना  क्या !


बेरुखी आप की अदा ठहरी

मर गया कौन ये भी जाना क्या !


बारहा मैं सुना चुका तुम को

फिर वही हाल-ए-दिल सुनाना क्या !


लोग कहते हैं सब पता तुम को

हसरत-ए-दिल का फिर छुपाना क्या !


जानता हूँ तुम्हें नहीं आना-

रोज़ करना नया बहाना  क्या !


रोशनी ही बची न आँखों में

रुख से पर्दे का फिर उठाना क्या !


इश्क़ की आग दिल में लग ही गई

जलने दो , अब इसे बुझाना क्या !


जो भी कहना है खुल के कह ’आनन’

बेसबब बात को घुमाना क्या !


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 248

  ग़ज़ल 248 [13E]


2122----1212---22


बीज नफ़रत के बोए जाते हैं

लोग क्यॊं बस्तियाँ जलाते हैं


एक दिन वो भी ज़द में आएँगे

ख़ार  राहों में जो बिछाते हैं


गर चिरागाँ सजा नहीं सकते

तो चिरागों को क्यों बुझाते है ?


खुद को वो दूध का धुला कहते 

कठघरे में कभी जो आते हैं


जिनके दामन रँगे गुनाहों से

ग़ैर पर ऊँगलियाँ  उठाते हैं


दीन-ओ-मज़हब के नाम पर दंगे

’वोट’ की खातिर सदा कराते हैं


आप से अर्ज़ क्या करे ’आनन’

कौन सी बात मान जाते हैं ।


-आनन्द.पाठक-


चिरागाँ = दीपमालिका

ग़ज़ल 247

 ग़ज़ल 247 [12E]


2122---1212---22


आप से दिल लगा के बैठे हैं

खुद को ख़ुद से भुला के बैठे हैं


हाल-ए-दिल हम सुना रहें उनको

और वो मुँह घुमा के बैठे हैं


इश्क़ में कौन जो नहीं फिसला

दाग़-ए-इसयाँ लगा के बैठे हैं


एक दिन वो इधर से गुज़रेंगे

राह पलकें बिछा के बैठे हैं


मेरी चाहत में कुछ कमी तो न थी

वो नज़र से गिरा के बैठे हैं


या इलाही ! उन्हे हुआ क्या है !

ग़ैर के पास जा के बैठे हैं


बात ’आनन’ ने क्या कही ऐसी

आप दिल से लगा के बैठे हैं 


-आनन्द.पाठक-


दाह-ए-इसयाँ = गुनाहों के दाग़

ग़ज़ल 246

 ग़ज़ल 246 [11E]


2122---1212---22


दर्द-ए-दिल को जगा के रखते हैं

राज़ अपना छुपा  के रखते हैं


इश्क़ में कुछ ग़लत न कर बैठे

दिल को समझाबुझा के रखते हैं


जो मिला आप की इनायत है

रंज़-ओ-ग़म भी सजा के रखते हैं


लोग ऐसे भी हैं ज़माने में

जाल अपना बिछा के रखते हैं


तीरगी में भटक न जाएँ, वो

लौ दिए की बढ़ा  के रखते हैं


जब नज़र आते नक़्श-ए-पा उनके

सामने सर झुका के रखते हैं


अक्स है आप ही का जब ’आनन’

फ़ासिला क्यों बना के रखते हैं ?


-आनन्द.पाठक-


तीरगी में = अन्धकार में /अँधेरे में

ग़ज़ल 245

 ग़ज़ल 245 [10E]


1212---1122---1212---112/22


चुभी है बात उसे कौन सी पता भी नहीं

कई दिनों से वो करता है अब ज़फ़ा भी नहीं


हर एक साँस अमानत में सौंप दी जिसको

वही न हो सका मेरा , कोई गिला भी नहीं


किसी की बात में आकर ख़फ़ा हुआ होगा

वो बेनियाज़ नहीं है तो आशना भी नहीं


ज़ुनून-ए-शौक़ ने रोका हज़ार बार उसे

ख़फ़ा ख़फ़ा सा रहा और वह रुका भी नहीं


ख़याल-ए-यार में यह उम्र काट दी मैने

कमाल यह है कि उससे कभी मिला भी नहीं


तमाम उम्र उसे मैं पुकारता ही रहा 

सुना ज़रूर मगर उसने कुछ कहा भी नहीं


हर एक शख़्स के आगे न सर झुका ’आनन’

ज़मीर अपनी जगा, हर कोई ख़ुदा भी नहीं


-आनन्द.पाठक-

पोस्टेड 17-07-22


ग़ज़ल 244

 ग़ज़ल 244 [09E]


2122---2122---2122


वक़्त देता, वक़्त आने पर सज़ा है

कौन इसकी मार से अबतक बचा है 


रात-दिन शहनाइयाँ बजती जहाँ थीं

ख़ाक में ऎवान अब उनका पता है


तू जिसे अपना समझता, है न अपना

आदमी में ’आदमीयत’ लापता है


दिल कहीं, सजदा कहीं, है दर किसी का

यह दिखावा है ,छलावा और क्या है 


इज्तराब-ए-दिल में कितनी तिश्नगी है

वो पस-ए-पर्दा  बख़ूबी जानता है  


क्या कभी ढूँढा है उसको दिल के अन्दर

बारहा ,बाहर जिसे तू  ढूँढता  है


ज़िंदगी क्या है ! न इतना सोच ’आनन’

इशरत-ओ-ग़म से गुज़रता रास्ता है


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

ऎवान                = महल , प्रासाद

इज़्तराब-ए-दिल  =बेचैन दिल

तिश्नगी          = प्यास

पस-ए-पर्दा         = परदे के पीछॆ से

बारहा = बार बार 

इशरत-ओ-ग़म से     = सुख -दुख से


ग़ज़ल 243

 ग़ज़ल 243


1222---1222---122---1222


नई जब राह पर तू चल तो नक़्श-ए-पा बना के चल,

क़दम हिम्मत से रखते चल, हमेशा सर उठा के चल ।


बहुत से लोग ऐसे हैं ,जो काँटे ही बिछाते हैं

अगर मुमकिन हो जो तुझसे तो गुलशन को सजा के चल 


डराते है तुझे वो बारहा बन क़ौम के ’लीडर’

अगर ईमान है दिल में तो फिर नज़रें  मिला के चल


किसी का सर क़लम करना, सिखाता कौन है तुझको ?

अँधेरों से निकल कर आ, उजाले में तू आ के चल


तुझे ख़ुद सोचना होगा ग़लत क्या है सही क्या है

फ़रेबी रहनुमाओं से ज़रा दामन बचा के चल


न समझें है ,न समझेंगे , वो अन्धे बन गए क़स्दन

मशाल इन्सानियत की ले क़दम आगे बढ़ा के चल


सफ़र कितना भी हो मुशकिल, लगेगा ख़ुशनुमा ’आनन’

किसी को हमसफ़र, हमराज़ तो अपना बना के चल


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

क़स्दन = जानबूझ कर

ग़ज़ल 242

  ग़ज़ल 242 [07E]


122---122---122---122


कटी उम्र उनको बुलाते बुलाते

जमाना लगेगा उन्हें आते आते


न जाने झिझक कौन सी उनके मन में

इधर आते आते, ठहर क्यों हैं जाते ?


हक़ीक़त है क्या? यह पता चल तो जाता

कभी अपने रुख से वो परदा हटाते


अँधेरों में तुमको नई राह दिखती

चिराग़-ए-मुहब्बत अगर तुम जलाते


परिंदो की क्या ख़ुशनुमा ज़िंदगी है

जहाँ दिल किया जब वहीं उड़ के जाते


ख़िलौना था कच्चा इसे टूटना था

नई बात क्या थी कि आँसू बहाते


ये माना कि दुनिया फ़रेबी है ’आनन’

इसी में है रहना, कहाँ और जाते 


-आनन्द.पाठक-