ग़ज़ल 243
1222---1222---122---1222
नई जब राह पर तू चल तो नक़्श-ए-पा बना के चल,
क़दम हिम्मत से रखते चल, हमेशा सर उठा के चल ।
बहुत से लोग ऐसे हैं ,जो काँटे ही बिछाते हैं
अगर मुमकिन हो जो तुझसे तो गुलशन को सजा के चल
डराते है तुझे वो बारहा बन क़ौम के ’लीडर’
अगर ईमान है दिल में तो फिर नज़रें मिला के चल
किसी का सर क़लम करना, सिखाता कौन है तुझको ?
अँधेरों से निकल कर आ, उजाले में तू आ के चल
तुझे ख़ुद सोचना होगा ग़लत क्या है सही क्या है
फ़रेबी रहनुमाओं से ज़रा दामन बचा के चल
न समझें है ,न समझेंगे , वो अन्धे बन गए क़स्दन
मशाल इन्सानियत की ले क़दम आगे बढ़ा के चल
सफ़र कितना भी हो मुशकिल, लगेगा ख़ुशनुमा ’आनन’
किसी को हमसफ़र, हमराज़ तो अपना बना के चल
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
क़स्दन = जानबूझ कर
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