रविवार, 23 अक्तूबर 2022

ग़ज़ल 278

 ग़ज़ल 278


122---122---122---122


अमानत में करते नहीं हम ख़यानत

न छोड़ी कभी हमने अपनी शराफ़त


रही चार दिन की मेरी पारसाई

नही जा सकी बुतपरस्ती की आदत


समझ जाएगा एक दिन वो यक़ीनन

मेरी बेबसी की अधूरी हिक़ायत


क़फ़स में अभी मुझको जीना न आया

ये दिल करता रहता हमेशा बग़ावत


 उमीदों पे क़ायम है दुनिया हमारी

कभी होगी हासिल तुम्हारी क़राबत


वही दास्तान-ए-फ़ना ज़िंदगी के

हमेशा ही रहता है फिक्र-ए- क़यामत


भले तुम रहो लाख सजदे में ’आनन’

लगी लौ न दिल में तो फिर क्या इबादत


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

पारसाई   = संयम, इंद्रिय निग्रह

हिक़ायत   = कहानी

ग़ज़ल 277

 ग़ज़ल 277[ 42 ई]


212---212---212---212


छोड़ दूँ मैं शराफ़त यह फ़ितरत नहीं 

सर कहीं भी झुका दूँ, है आदत नहीं


मैं मिलूँ तो मिलूँ किस तरह आप से

आप की सोच में अब सदाक़त नहीं


हौसले इन चरागों में भरपूर हैं

तोड़ दें ,इन हवाओं में ताक़त नहीं


आइना देख कर तुम करोगे भी क्या

जब तलक तुमको होनी नदामत नहीं


दिल कहीं और हो, ज़ाहिरन और कुछ

यह दिखावा है, कोई रफ़ाक़त नहीं


जाने क्यों वह ख़फ़ा है बिना बात का

आजकल होती उसकी इनायत नहीं


सब तुम्हारे मुताबिक़ हो ’आनन’ यहाँ

ऐसी दुनिया की होती रिवायत नहीं  ।


-आनन्द.पाठक-


नदामत = प्रायश्चित अफ़सोस


ग़ज़ल 276

 ग़ज़ल 276 [41इ]

212--212--212


शाख से पत्तियाँ टूट कर

उड़ गई हैं न जाने किधर


जब मिलन के लिए चल पड़ी

फिर न लौटी नदी अपने घर


चार दिन की खुशी के लिए

दौड़ते ही रहे उम्र भर


एक पल का ग़लत फ़ैसला

कर गया ज़िंदगी दर बदर


आशियाने परिंदो के थे-

अब न आँगन में है वो शजर 


इक नज़र भर तुम्हें देख लूँ

ज़िंदगी एक पल तो ठहर


बात बरसों की सब कर रहे

अगले पल की न कोई ख़बर


तुमको ’आनन’ पता क्या नहीं

इश्क का है सफ़र पुरख़तर


-आनन्द.पाठक- 


ग़ज़ल 275

  ग़ज़ल 275

1222---1222---122


वह अपने आप पर झुँझला रहा है

कोई उसका उजाला खा रहा है


समय रहता हमेशा एक सा कब

इशारों में समय समझा रहा है


ये लहजा आप का लगता नहीं है

कोई है, आप से बुलवा रहा है


चमन की तो हवा ऐसी नहीं थी

फ़ज़ा में ज़ह्र भरता जा रहा है


भले मानो न मानो सच यही है

पस-ए-पर्दा कोई भड़का रहा है


वो देता लाख अपनी है सफ़ाई

भरोसा क्यों नहीं हो पा रहा है


जिसे अपना समझते हो तुम ’आनन’

तुम्हारे काम कब वो आ रहा है


-आनन्द. पाठक--


पस-ए-पर्दा  = पर्दे के पीछे से 


ग़ज़ल 274

 ग़ज़ल 274[39 E]


212--212--212--212

चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर

जान कर भी तू अनजान है बेख़बर


प्यार मे हम हुए मुब्तिला इस तरह

बेखुदी मे न मिलती है अपनी खबर


यूँ ही साहिल पे आते नहीं खुद ब खुद

डूब कर ही कोई एक लाता  गुहर


या ख़ुदा ! यार मेरा सलामत रहे

ये बलाएँ कहीं मुड़ न जाएं उधर


अब न ताक़त रही, बस है चाहत बची

आ भी जाओ तुम्हे देख लूँ इक नज़र


ये बहारें, फ़ज़ा, ये घटा, ये चमन

है बज़ाहिर उसी का कमाल-ए-हुनर


उसकॊ देखा नहीं, बस ख़यालात में

सबने देखा उसे अपनी अपनी नजर


खुल के जीना भी है एक तर्ज-ए-अमल

आजमाना कभी देखना फिर असर


ज़िंदगी से परेशां हो ’आनन’ बहुत

क्या कभी तुमने ली ज़िंदगी की ख़बर ?

-आनन्द.पाठक-  

ग़ज़ल 273

 ग़ज़ल 273 [38E]

1222---1222---122


तहत पर्दे के इक पर्दा मिलेगा

अगर सोचूँ तो हमसाया मिलेगा


कहाँ तुम साफ़ चेहरा ढूँढत्ते हो

यहाँ सबका रंगा चेहरा मिलेगा


तलब बुझती नहीं है लाख चाहें

हमारा दिल तुम्हें प्यासा मिलेगा


भले ही भीड़ में दिखता तुम्हें है

मगर अन्दर से वह तनहा मिलेगा


हवाएँ ख़ौफ़ का मंज़र दिखाती

चमन का बाग़बाँ सहमा मिलेगा


शजर को डालियाँ कब बोझ लगती

वो अपने रंग में गाता मिलेगा


छुपा कर रंज़ो-ग़म रखता है दिल में

मगर ’आनन’ तुम्हें हँसता मिलेगा


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 272

 ग़ज़ल 272 /37इ

212---212---212---212

बह्र-ए-मुत्दारिक मुसम्मन सालिम

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ज़िंदगी रंग क्या क्या दिखाने लगी

आँख नम थी मगर मुस्कराने लगी


यक ब यक उसके रुख से जो पर्दा उठा

रूबरू हो गई  मुँह छुपाने लगी


सामने जब मैं उनको नज़र में रखा

 फिर ये दुनिया नजर साफ आने लगी


बागबाँ की नज़र, बदनज़र हो गई

हर कली बाग़ की खौफ़ खाने लगी


मैं बनाने चला जब नया आशियाँ

बर्क़-ए-ख़िरमन मुझे क्यों डराने लगी ?


आप की जब से मुझ पर इनायत हुई

ज़िंदगी तब मुझे रास आने लगी


तुमको ’आनन’ कहाँ की हवा लग गई

जो ज़ुबाँ झूठ को सच बताने लगी ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

बर्क़-ए-ख़िरमन = आकाशीय बिजली

जो खलिहान तक जला दे

ग़ज़ल 271

 ग़ज़ल 271/36 ई


2122---2122--212


इक अजब अनजान सा रहता है डर

आजकल मिलती नहीं उसकी ख़बर


लौट आएँगे परिन्दे शाम तक -

मुन्तज़िर है आज भी बूढ़ा शजर


देश की माटी हमारी ख़ास है

ज़र्रा ज़र्रा है वतन का सीम-ओ-ज़र


पत्थरों के शहर में शीशागरी

कब तलक क़ायम रहेगा यह हुनर


दास्तान-ए-दर्द तो लम्बी रही

और ख़ुशियों की कहानी मुख़्तसर


उलझने हों, पेच-ओ-ख़म हो या बला

काटना होगा तुम्हें ही यह सफ़र


सब्र कर ’आनन’ कभी वो आएगा

तेरी आहों का अगर होगा असर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

मुन्तज़िर  = इन्तज़ार में

सीम-ओ-ज़र   =चाँदी-सोना ,धन दौलत

शीशागरी   =  शीशे /कांच का काम

पेच-ओ-ख़म = मोड़ घुमाव 

ग़ज़ल 270

 

1222---1222--1222---1222
मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल 270 [35 E]

तू उतना ही चलेगा , वह तुम्हें जितना चलाएगा
भरेगा चाबियाँ उतनी तू जितना नाच पाएगा ।

हक़ीक़त जानता है वह, हक़ीक़त जानते हम भी
वतन ख़ुशहाल है अपना, वो टी0वी0 पर दिखाएगा

उजालों से इधर बातें ,अँधेरों से उधर यारी
खुदा जाने है क्या दिल में, नही वह सच बताएगा।

 ख़रीदेगा वो पैसों से, अगर बिकने पे तुम राजी
तुम्हें वह "पंच तारा" होटलों मे क्या छुपाएगा

ज़ुबाँ होगी तुम्हारी और उसकी बात बोलेगी
तुम्हें कहना वही होगा तुम्हें वह जो बताएगा

निगाहों में अगर खुद को नहीं ज़िंदा रखोगे तुम
ज़माना उँगलियों पर ही सदा तुमको नचाएगा

जो सुन कर भी नहीं सुनते, जो अंधे बन गए’आनन’
जगाने से नहीं जगते, उन्हें कब तक जगाएगा

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 269

 ग़ज़ल 269 / 34 E


212---212---212---212


आप की बात में वो रवानी लगी

एक नदिया की जैसे कहानी लगी


आप जब से हुए हैं मेरे हमसफ़र

ग़मजदा ज़िंदगी भी सुहानी लगी


आप की साफ़गोई, अदा, गुफ़तगू

कुछ नई भी लगी कुछ पुरानी लगी


छोड़ कर वो गया करते शिकवा भी क्या

उसको शायद वही शादमानी लगी


झूठ के साथ सोते हैं जगते हैं वो

सच भी बोलें कभी लन्तरानी लगी


राह सबकी अलग, सबके मज़हब अलग

एक जैसी सभी की कहानी लगी


यह फ़रेब-ए-नज़र या हक़ीक़त कहूँ

ज़िंदगी दर्द की तरज़ुमानी लगी


एक तू ही तो ’आनन’ है तनहा नहीं

राह-ए-उलफ़त जिसे राह-ए-फ़ानी लगी


-आनन्द पाठक - 


ग़ज़ल 268

  ग़ज़ल 268(33E)


1212--1122---1212--22


 ये बात और थी वो पास मेरे आ न सका

ख़याल-ओ-ख़्वाब से उसको कभी भुला न सका


तमाम उम्र सदा हासिला रखा उसने

न जाने कौन सी दीवार थी, ढहा न सका


दयार-ए-यार से गुज़रा हूँ बारहा यूँ तो

वो रूबरू भी हुआ मैं नज़र मिला न सका


चला था शौक़ से राह-ए-तलब में ख़्वाब लिए

जो रस्म-ओ-राह थी उल्फ़त की मैं निभा न सका


बहुत हूँ दूर मगर राबिता वही अब भी

अक़ीदा आज भी दिल में वही, भुला न सका


ज़रा सी बात थी इतनी बड़ी सजा ,या रब !

जो बात आप से कहनी थी वो बता न सका


अज़ाब वक़्त के क्या क्या नहीं सहे ,’आनन’

भले ही टूट गया था, मैं सर झुका न सका


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

दयार-ए-यार से = यार के इलाके से  

रस्म-ओ-राह = ढंग तरीक़ा

अक़ीदा  = श्रद्धा विश्वास

राबिता  = सम्पर्क

अज़ाब  = यातना कष्ट

  

ग़ज़ल 267

 ग़ज़ल 267

122---122---122--122


उजालों को तुमने न आने दिया है

तो कहते हो क्यों फिर अँधेरा घना है


कभी बन्द कमरे से बाहर निकलते

तो फिर देखते कैसी रंगीं फ़िज़ा है


ख़ुदा जाने क्या तुमने मज़हब से सीखा

कि आज आदमी आदमी से डरा है


अना में रहे जब तलक मुब्तिला तुम

तुम्हे खुद से आगे न कुछ भी दिखा है


भरी भीड़ में आदमी हैं हज़ारों-

मगर ’आदमीयत’ हुई लापता है


कहाँ की थीं बातें, कहाँ ले गए तुम

अजब यह तुम्हारा तरीका नया है


सदाक़त की बातें जो करता हूँ ’आनन’

इसी बात पर यह ज़माना ख़फ़ा है


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ


अना = अहं 

सदाक़त = सच्चाई