ग़ज़ल 278
122---122---122---122
अमानत में करते नहीं हम ख़यानत
न छोड़ी कभी हमने अपनी शराफ़त
रही चार दिन की मेरी पारसाई
नही जा सकी बुतपरस्ती की आदत
समझ जाएगा एक दिन वो यक़ीनन
मेरी बेबसी की अधूरी हिक़ायत
क़फ़स में अभी मुझको जीना न आया
ये दिल करता रहता हमेशा बग़ावत
उमीदों पे क़ायम है दुनिया हमारी
कभी होगी हासिल तुम्हारी क़राबत
वही दास्तान-ए-फ़ना ज़िंदगी के
हमेशा ही रहता है फिक्र-ए- क़यामत
भले तुम रहो लाख सजदे में ’आनन’
लगी लौ न दिल में तो फिर क्या इबादत
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
पारसाई = संयम, इंद्रिय निग्रह
हिक़ायत = कहानी