ग़ज़ल 277[ 42 ई]
212---212---212---212
छोड़ दूँ मैं शराफ़त यह फ़ितरत नहीं
सर कहीं भी झुका दूँ, है आदत नहीं
मैं मिलूँ तो मिलूँ किस तरह आप से
आप की सोच में अब सदाक़त नहीं
हौसले इन चरागों में भरपूर हैं
तोड़ दें ,इन हवाओं में ताक़त नहीं
आइना देख कर तुम करोगे भी क्या
जब तलक तुमको होनी नदामत नहीं
दिल कहीं और हो, ज़ाहिरन और कुछ
यह दिखावा है, कोई रफ़ाक़त नहीं
जाने क्यों वह ख़फ़ा है बिना बात का
आजकल होती उसकी इनायत नहीं
सब तुम्हारे मुताबिक़ हो ’आनन’ यहाँ
ऐसी दुनिया की होती रिवायत नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
नदामत = प्रायश्चित अफ़सोस
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