शुक्रवार, 11 मार्च 2022

ग़ज़ल 222

 ग़ज़ल 222

1222---1222----1222---1222


करें जब गोपियों की चूड़ियाँ झंकार होली में
मज़ा तब और आता है यहाँ लठमार होली में

अबीरों के उड़ें बादल कहीं है फ़ाग की मस्ती
कहीं गोरी रचाती सोलहो शृंगार होली में  ।

इधर कान्हा की टोली है उधर ’राधा’ अकेली हैं
चलें दोनो तरफ़ से रंग की बौछार होली में ।

कहीं है  थाप चंगों पर, कहीं पायल की छमछम है
कही पर कर रहा कोई सतत मनुहार होली में 

किसी के रंग में रँग जा, न आता रोज़ यह मौसम
जो डूबा फिर न उबरा हो, वही हुशियार होली में

ये होली हो ’बिरज’ की या ’अवध’ की या ’बनारस’ की
करें रंगों से हम स्वागत , करें सत्कार होली में ।

गुलालों में घुली हैं स्नेह की ख़ुशबू  मुहब्बत की
भुला कर सब गिले शिकवे गले लग यार होली में ।

न खाली हाथ लौटा है यहाँ से आजतक कोई
चले आना कि ’आनन’ का खुला है द्वार होली में ।


-आनन्द.पाठक-




ग़ज़ल 221

 ग़ज़ल 221

1222---1222----1222---1222


न रूठो तुम, चली आओ, करेंगे प्यार होली में
मुझे देना है अपना दिल तुम्हें उपहार होली में

भले आओ न आओ तुम, गिला कुछ भी नहीं तुमसे
करूँगा याद मैं तुमको, सनम सौ बार होली में

ख़ता है छेड़ना तुमको, पता है क्या सज़ा होगी
कहाँ कब मानता है दिल, सज़ा स्वीकार होली में

तेरी तसवीर में ही रंग भर कर मान लूँगा मैं
हुई चाहत मेरी पूरी, प्रिये ! इस बार होली  में

ज़माने की निगाहों से ज़रा बच कर चला करना
ख़बर क्या क्या उड़ा देंगे, सर-ए-बाज़ार होली में

ये फ़ागुन की हवाएँ हैं, नशा भरती हैं नस-नस में
तुम्हारा रूप उस पर से, जगाता प्यार होली में

गिरीं रुख़सार पर ज़ुल्फ़ें,  जवानी खुद से बेपरवा
करे जादू तुम्हारे रूप का  शृंगार होली में 

लगाना रंग ’आनन’ को. न उतरे ज़िंदगी भर जो
यही है प्यार का मौसम गुल-ओ-गुलज़ार होली में


-आनन्द.पाठक-

  

बुधवार, 9 मार्च 2022

गीत 73

 गीत 

[Mother's Day पर कुछ पंक्तियाँ ----]

 माँ मेरे सपनों में आती
सौम्य मूर्ति देवी की जैसीआकर ममता छलका जाती....
माँ मेरे सपनों में आती ---
 
कितनी धर्म परायण थी माँ
करूणा की वातायन थी माँ
समय शिला पर अंकित जैसे
घर भर की रामायन थी माँ
 
जब जब व्यथित हुआ मन भटका जीवन के एकाकीपन में...
स्नेहसिक्त आशीर्वचन माँ मुझ पर आ कर बरसा जाती....
माँ मेरे सपनों में आती,.....
 
साथ सत्य का नहीं छोड़ना
चाहे हों घनघोर घटाएँ
दीन-धरम का साथ निभाना
चाहे जितनी चलें हवाएँ
 
एक अलौकिक ज्योति पुंज-सी शक्ति-स्वरूपा सी लगती है
समय समय पर सपनों में माँ आकर मुझको समझा जाती
माँ मेरे सपनों में आती ---
 
घात लगाए बैठी दुनिया
सजग तुम्हें ही रहना होगा
जीवन पथ पर बढ़ना है तो
तुम्हें स्वयं ही लड़ना होगा
 
यहाँ रहे या वहाँ रहे माँ, जहाँ रहे बस माँ होती है
अपने आँचल की छाया कर सर पर मेरे फ़ैला जाती
माँ मेरे सपनों में आती ---


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 220

 ग़ज़ल 220

221—2121—1221—212


पैग़ाम-ए-इश्क़ सबको सुनाती यही ग़ज़ल
दुनिया के ग़म का बोझ उठाती यही ग़ज़ल
 
मायूसियों के दौर में कोई हो ग़मजदा
तारीक़ियों में राह दिखाती यही ग़ज़ल
 
ग़ंग-ओ-जमन की मौज सी लबरेज़ प्यार से
नफ़रत की आग दिल की बुझाती यही ग़ज़ल
 
आदाब-ए-ज़िंदगी कभी अरकान-ए-तर्बियत
तहज़ीब-ए-गुफ़्तगू भी सिखाती यही ग़ज़ल
 
ख़ुशबू ज़बान की है हलावत लिए हुए
ग़ैरो को भी गले से लगाती यही ग़ज़ल
 
अल्फ़ाज़ बाँधने की ये जादूगरी नहीं
अन्दर में रूह तक कहीं जाती यही ग़ज़ल
 
’आनन’ ग़ज़ल की खूबियाँ क्या जानता नहीं ?
दो दिल की दूरियों को मिटाती यही ग़ज़ल ।

-आनन्द.पाठक-
 
 

ग़ज़ल 219

 1222---1222---1222---1222


ग़ज़ल 219


सितम मुझ  पर हज़ारों थे, उन्हे जोर आज़माना था

मुहब्बत में फ़ना हो कर. मुझे भी तो दिखाना था


यहाँ हर मोड़ बैठे थे , शिकारी जाल फैलाए

कमाल अपना हुनर अपना कि खुद बचना बचाना था


जहाँ कुछ राख की ढेरी  नज़र आए समझ लेना, 

इसी गुलशन में मेरा भी वहीं इक आशियाना था


गरज़ उसकी पड़ी अपनी तुम्हारी जी हज़ूरी की

यहाँ पर कौन अपना था किसे वादा निभाना था 


उमीद उनसे लगाई थी वो आयेंगे इयादत को

कि उनके पास पहले ही न आने का बहाना था


लगी जब आग बस्ती में बुझाने लोग आए थे

वहीं कुछ लोग ऐसे थे जिन्हें ’सेल्फ़ी’ बनाना था


कहाँ की बात करते हो कि ’कलयुग’ आ गया ’आनन’

किताबों में पढ़ा होगा कि ’सतयुग’ का ज़माना था 


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 218

 ग़ज़ल 218

221--2121---1221--212

तुमको न हो यक़ीन, मुझे तो यक़ीन है

तुम-सा ही कोइ दिल में निहाँ नाज़नीन है


तेरा हुनर कि ख़ाक से मुझको बना दिया

फिर यह ज़मीन तेरी  कि मेरी ज़मीन है


जिस राह से जो उनकी कभी रहगुज़र रही

उस राह की महक अभी ताज़ातरीन है


फ़ुरसत नहीं मिली कि जो देखूँ मैं ज़िन्दगी

वरना तो हर लिहाज़ से लगती हसीन है


दीदार  तो हुआ नही ,चर्चे बहुत सुने

सुनते हैं सब के दिल में वही इक मकीन है


फ़िरदौस की जो हूर हैं ,ज़ाहिद तुम्ही रखो

मेरा हसीन यार तो ख़ुद महज़बीन है


’आनन’ तमाम उम्र इसी बात में कटी

हर शय में वो ज़हूर कि पर्दानशीन है ?


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 217

 ग़ज़ल 217

221--1222 // 221-1222


जीवन के सफ़र में यूँ , तूफ़ान बहुत होंगे

बंदिश भी बहुत होंगी, अरमान बहुत होंगे


घबरा के न रुक जाना ,दुनिया के मसाइल से

दस राह निकलने के इमकान बहुत होंगे


लोगों की बुरी नज़रें, बाग़ों में, बहारों पर

गुलशन की तबाही के अभियान बहुत होंगे


जो चाँद सितारों की बातों में है खो जाते

वो सख़्त हक़ीक़त से अनजाब बहुत होंगे


कुछ आग लगाते हैं, कुछ लोग हवा देते

इनसान ज़रा ढूँढों, इनसान बहुत होंगे


ताक़त वो मुहब्बत की पत्थर को ज़ुबाँ दे दे

जिनको न यकीं होगा, हैरान बहुत होंगे


हर मोड़ कसौटी है इस राह-ए-तलब ’आनन’

जो सूद-ओ-ज़ियाँ देखे, नादान बहुत होंगे


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 216

 ग़ज़ल 216 : 


212---212---212---212

फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन

बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम

------   ----------

झूठ पर झूठ वह बोलता आजकल

क़ौम का  रहनुमा बन गया आजकल


चन्द रोज़ा सियासत की ज़ेर-ए-असर

ख़ुद को कहने लगा है ख़ुदा आजकल


साफ़ नीयत नहीं, ना ही ग़ैरत बची

शौक़ से दल बदल कर रहा आजकल


उसकी बातों में ना ही सदाक़त रही

उसको सुनना भी लगता सज़ा आजकल


तल्ख़ियाँ बढ़ गई हैं ज़ुबानों में अब

मान-सम्मान की बात क्या आजकल


आँकड़ों की वह घुट्टी पिलाने लगा

आँकड़ों से अपच हो गया आजकल


यह चुनावों का मौसम है ’आनन’ मियाँ

खोल कर आँख चलना ज़रा आजकल 



-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

ज़ेर-ए-असर = प्र्भाव के अन्तर्गत

सदाक़त      = सच्चाई


ग़ज़ल 215

 ग़ज़ल 215 

2122---1212---22


दूर जब रोशनी नज़र आई

’तूर’ की याद क्यॊं उभर आई ?


लाख रोका, नहीं रुके जब तुम

वक़्त-ए-रुख़सत ये आँख भर आई


ज़िन्दगी के तमाम पहलू थे

राह-ए-उलफ़त ही क्यॊं नज़र आई ?


सर्द रिश्ते पिघलने वाले हैं

धूप आँगन में है उतर आई


तेरे दर पर हम आ गए, गोया

ज़िन्दगी, ज़िन्दगी के घर आई


उम्र अब तो गुज़र गई अपनी

शादमानी न लौट कर आई


दिल तेरा क्यों धड़क रहा ’आनन’

उनके आने की क्या ख़बर आई ?


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 214

  [अभी संभावना है--27]


221--2122  // 221--2122

 ग़ज़ल 214[27]


दीवार खोखली है,  बुनियाद लापता है

वह सोचता है खुद को, दुनिया से वह बड़ा है


मझधार में पड़ा है , लेकिन ख़बर न उसको

कहता है ’मुख्यधारा’ के साथ बह रहा  है


आतिश ज़ुबान उसकी, है चाल कजरवी भी

अपने गुमान में है, कुरसी का यह नशा है


वह देखता भी दुनिया तो देखता भी कैसे

जब भाट-चारणॊं से दिन-रात वह घिरा है 


महरूम रोशनी से,  ताज़ी नई हवा से

अपने मकान की वह खिड़की न खोलता है 


उसकी ज़ुबाँ में शामिल ग़ैरों की भी ज़ुबाँ थी

जितनी भरी थी चाबी उतना ही वह चला है


वह ख़ून की शहादत में ढूँढता  सियासत

जाने सबूत की क्यों पहचान माँगता है ?


ग़मलों में कब उगे हैं बरगद के पेड़ ’आनन’

लेकिन उसे भरम है क्या सोच में रखा है ।


-आनन्द.पाठक-


बाबे-सुखन 22-02-22



ग़ज़ल 213

 [अभी संभावना है -15]


ग़ज़ल 213 


221---2121---1221---212


वह बार बार काठ की   हंडी चढ़ा रहा

क्या क्या न राजनीति में खिचड़ी पका रहा


पाँवों तले ज़मीन तो उस की खिसक चुकी

जाने ख़ुदा कि पाँव पे कैसे टिका रहा ?


शब्दों के जाल बुन रहा था पाँच साल से

आया है जब चुनाव तो मुझको फँसा रहा


थाना है उसके हाथ में , आदिल भी जेब में

क़ानून की किताब का तकिया लगा रहा


भारत का ’संविधान’ तो ’बुधना’ के लिए है

ख़ुद ही वह ’संविधान ’ है सबको बता रहा


इक पाँव कठघरे में हैं ,इक पाँव जेल में

लीडर नया है , क़ौम को रस्ता दिखा रहा


’दिल्ली’ चला गया है वो नज़रें बदल गईं

’आनन’ चुनाव बाद तू किसको बुला रहा


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 212

 ग़ज़ल 212

221---2122---221---212

बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब सालिम अख़रब मह्ज़ूफ़

मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन----मफ़ऊलु--फ़ाइलुन

=========  =========  =====


तुम पास ही खड़ी थी ,मुझको ख़बर नहीं

मुझसे कटी कटी थी. मुझको ख़बर नहीं


आवाज़ दिल की अपनी किसको सुना गया

क्या तुमने भी सुनी थी ? मुझको ख़बर नहीं


ख़ामोश ही रही तुम, इज़हार-ए-इश्क़ पर

क्या मुझमें कुछ कमी थी ? मुझको ख़बर नहीं


आने को कह गई थी जब जा रही थी तुम

आँखों में क्यों नमी थी ? मुझको ख़बर नहीं


मैने नहीं लगाई यह आग इश्क़ की

कैसे कहाँ लगी थी , मुझको ख़बर नहीं


तुम से मिली नज़र तो ख़ुद में न ख़ुद रहा

कैसी वो बेख़ुदी थी मुझको ख़बर नहीं


कब आशिक़ी में ’आनन’ रहती ख़बर किसे

चाहत थी ?बन्दगी थी? मुझको ख़बर नहीं


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 211

 ग़ज़ल 211[17]


2212----1212---1212--1212

बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मख्बून 


दो चार-गाम रह गया था मंज़िलों का फ़ासिला

गुमराह कर दिया है मेरे राहबर ने क़ाफ़िला


उम्मीद रहबरी से थी. यक़ीन जिस पे था मुझे

झूठे सपन दिखा दिखा दिखा के रहजनों से जा मिला


कुछ हादिसों से सामना कुछ और साजिशें रहीं

इस तरह से चल रहा था ज़िन्दगी का सिलसिला


कुछ ख़ास प्रश्न यक्ष के, सवाल ज़िन्दगी के भी

लेकिन जवाब आदमी से कब सही सही मिला


जब चन्द साँस मर गया तो एक साँस जी सका

दो चार दिन हँसी ख़ुशी फिर आँसुओं का सिलसिला


फ़ुरसत कभी मिली नहीं कि  खुद से ख़ुद जो मिल सकूँ

तेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब में ये दिल मेरा था मुबतिला


दुनिया हसीन है, अगर तू प्यार की नज़र से देख

’आनन’ कभी किसी के दिल में फूल प्यार का खिला


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 210

 ग़ज़ल 210 [57] 


221---1222  // 221--1222


हर सिम्त धुआँ उठता , वह आग उगलता है

मौक़े की नज़ाकत  से. वह रंग बदलता है


हर बार चुनावों में , वादों की हैं सौगातें

फिर बाद चुनावों के, मुँह फेर के चलता है


मज़लूम के आँसू हैं , आवाज़ नहीं होती

हर बूँद की गरमी से, पत्थर भी पिघलता है


जब जान रहा हैं तू , वादों की हक़ीक़त क्या

फेंके हुए सिक्कों पर, क्यों पाँव फिसलता है


है काम यही उनका, वो जाल बिछाते हैं

हर बार है क्यूँ फँसता ,तू क्यों न सँभलता है


ज़रख़ेज़ ज़मीं इसकी, यह देश चमन मेरा

नफ़रत न उगा इसमे , बस प्यार ही फलता है


’आनन’ यह सियासत है, या शौक़ कि मजबूरी

वह सेंक रहा रोटी , घर और का जलता है 


-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 209

 ग़ज़ल 209[57] : कथनी में क्या क्या न कहा करते हैं


मूल बह्र 

21--121--121--121---122 =20


’कथनी’ में क्या क्या न कहा करते हैं

’करनी’ पर मुँह फेर लिया करते हैं


घोटालों में जीने  मरने वाले

घोटालों से साफ़ मना करते हैं


आँसू उतने क्षार नहीं हैं मेरे

जितने उनके हास लगा करते हैं


सोच रहे वो दुनिया हैं मुठ्ठी में

किस दुनिया में लोग रहा करते हैं


नफ़रत हिंसा आग लगाने वाले

माचिस डिब्बी साथ रखा करते हैं


देश भरा है जब तक गद्दारों से

किस भारत की बात किया करते हैं


छाँव तले के पौध नहीं हम ,’आनन’

धूप कड़ी हो राह चला करते हैं


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 208

 ग़ज़ल 208


221--2122--// 221-2122


गुमराह हो गया तू बातों में किसकी आ कर
दिल राहबर है तेरा .बस दिल की तू सुना कर

किसको पुकारता है पत्थर की बस्तियों में
खिड़की नहीं खुलेगी तू लाख आसरा कर

मिलना ज़रा सँभल कर ,बदली हुई हवा है
हँस कर मिलेगा तुमसे ख़ंज़र नया छुपा कर

जब सामने खड़ा था भूखा ग़रीब कोई
फिर ढूँढता है किसको दैर-ओ-हरम में जाकर

मौसम चुनाव का है ,वादे तमाम वादे
लूटेंगे ’वोट’ तेरा ,सपने दिखा दिखा कर

मेरा जमीर मुझको देता नहीं इजाज़त
’सम्मान’ मैं कराऊँ ,महफ़िल सजा सजा कर

’आनन’ तेरी ये ग़ैरत अब तक नहीं मरी है
रखना इसे तू ज़िन्दा हर हाल में बचा कर

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 207

 ग़ज़ल 207[20]


2122---2122--2122--212


आदमी में ’आदमीयत’ अब नहीं आती नज़र 

एक ज़िन्दा लाश बन करने लगा है तय सफ़र


और के कंधें पे चढ़ कर जब से चलने लग गया

वह बताने लग गया यह भी नया उसका हुनर


वह चला था गाँव से सर पर उठाए ’ संविधान’

’राजपथ’ पर लुट गया, बनती नहीं कोई ख़बर


आज के इस दौर में सुनता कहाँ कोई किसे

सबके हैं अपने  मसाइल ,सबकी अपनी रहगुज़र


लोग तो बहरे नहीं थे , लोग गूँगे भी नहीं

लोग क्यों ख़ामोश थे जब जल रहा था यह शहर


छोड़िए अब क्या रखा है आप के ’अनुदान’ में

आप ही के सामने जब जल गया लख़्त-ए-जिगर


लाख हो तारीक़ियाँ ’आनन’ तुम्हारे सामने

हौसला रखना ज़रा ,बस होने वाली है सहर


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 206

 ग़ज़ल  206[62]

221---1222 // 221- 1222


जो बर्फ़ पड़ी दिल की चादर पे, पिघलने दो

रिश्तों को तपिश दे दो, इक राह निकलने दो


क़िस्मत से मिला करते ,ज़ुल्फ़ों के घने साए

गर आग मुहब्बत की जलती है तो जलने दो


मायूस नहीं होना हालात-ए-मुकद्दर से 

आएँगी बहारें भी, मौसम तो बदलने दो 


तुम हाथ बढ़ा दो तो , इतिहास बदल देंगे

रग रग में लहू उबले . कुछ और उबलने दो


गुलशन हैं लगे खिलने, महकी हैं हवाएँ भी

बहके हैं क़दम मेरे ,मुझको न सँभलने दो


मालूम मुझे भी है, यह नाज़-ओ-अदा नख़रे

यह हुस्न मुझे छलता , छलता है तो छलने दो


आज़ाद परिन्दें हैं ,रोको न इन्हें ’आनन’

पैग़ाम-ए-मुहब्बत से , दुनिया को बदलने दो


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 205

 ग़ज़ल  205 [19]

1222---1222---1222--1222--


तुम्हें जब तक ख़बर होगी बहुत कुछ हो गया होगा

वो सूली से उतर कर भी दुबारा चढ़ चुका होगा


जो कल तक घूमता था हाथ में लेकर खुला ख़ंज़र

वो ’दिल्ली’ की इनायत से मसीहा बन गया होगा


तुम्हे जिसकी गवाही पर ,अरे ! इतना भरोसा है

वो अपने ही बयानों से मुकर कर हँस रहा होगा


फ़क़त कुरसी निगाहों में, जहाँ था ’स्वार्थ’ का दलदल

तुम्हारा ’इन्क़लाबी’ रथ ,वहीं अब तक धँसा होगा


चलो माना हमारी मौत पर ’अनुदान ’ दे दोगे

मगरमच्छों के जबड़ों से वो क्या अबतक बचा होगा ?


गड़े मुरदे उखाड़ोगे कि जब तक साँस फ़ूँकोगे

कि ज़िन्दा आदमी सौ बार जी जी कर मरा होगा 


उठानी थी जिसे आवाज़ मेरे हक़ में, संसद में

वो कुरसी के ख़यालों में, जम्हाई ले रहा होगा 


भला ऐसी अदालत से करे फ़रियाद क्या ’आनन’

जहाँ क़ानून अन्धा हो ,जहाँ आदिल बिका होगा


-आनन्द.पाठक-



 

ग़ज़ल 204

 ग़ज़ल 204 [06] 

221--1222  // 221-1222

ख़ामोश रहे कल तक, मुठ्ठी न भिंची उनकी

आवाज़ उठाए अब , बस्ती जो जली उनकी

 

बच बच के निकलते हैं, मिलने से भी कतराते

कल तक थे प्रतीक्षारत  हर रात कटी उनकी


जाने वो ग़लत थे या, थी मेरी ग़लतफ़हमी

जो नाज़ उठाते थे ,क्यों बात लगी उनकी


कश्ती भी वहीं डूबी ,जब पास किनारे थे

जो साथ चढ़े सच के, कब लाश मिली उनकी


साज़िश थीं हवाओं की, मौसम के इशारों पर

जब राज़ खुला उनका , हर बात खुली उनकी 


बातें तो बहुत ऊँची, पर सोच में बौने है

हर मोड़ पे बिकते हैं ,ग़ैरत न बची उनकी 

’आनन’ तू किसी पर भी ,इतना भरोसा कर

लगता हो भले तुमको ,हर बात भली उनकी


-आनन्द. पाठक-


ग़ज़ल 203

 ग़ज़ल 203


2122---2122--2122--212

आप के आने से पहले आ गई ख़ुश्बू इधर

ख़ैरमक़्दम के लिए मैने झुका ली है नज़र


यह मेरा सोज़-ए-दुरूँ, यह शौक़-ए-गुलबोसी मेरा

अहल-ए-दुनिया को नहीं होगी कभी इसकी ख़बर


नाम भी ,एहसास भी, ख़ुश्बू-सा है वह पास भी

दिल उसी की याद में है मुब्तिला शाम-ओ-सहर


तुम उठा दोगे मुझे जो आस्तान-ए-इश्क़ से

फिर तुम्हारा चाहने वाला कहो जाए किधर ?


बेनियाज़ी , बेरुख़ी तो ठीक है लेकिन कभी

देखने को हाल-ए-दुनिया आसमाँ से तो उतर ।


यह मुहब्बत का असर या इश्क़ का जादू कहें

आदमी में ’आदमीयत’ अब लगी आने नज़र


शेख़ जी ! क्या पूछते हो आप ’आनन’ का पता ?

बुतकदे में वह कहीं होगा पड़ा थामे जिगर 


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

सोज़-ए-दुरुँ = हृदय की आन्तरिक वेदना

शौक़-ए-गुलबोसी = फूलों को चूमने की तमन्ना

अहल-ए-दुनिया को = दुनिया वालों को


ग़ज़ल 202

 ग़ज़ल 202


2122--1212--22


बात यूँ ही निकल गई होगी

रुख की रंगत बदल गई होगी


वक़्त-ए-रुख़सत जो उसने देखा तो

हर तमन्ना निकल गई होगी


वक़्त क्या क्या नहीं सिखा देता

टूटे दिल से बहल गई होगी


दौर-ए-हाज़िर की रोशनी ऐसी

रोशनी से वह जल गई होगी


सर्द रिश्ते गले लगा लेना

बर्फ़ अबतक पिघल गई होगी


एक दूजे के मुन्तज़िर दोनों

उम्र उसकी भी ढल गई होगी


ज़िक्र ’आनन’ का आ गया होगा

चौंक कर वो सँभल गई होगी


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 8 मार्च 2022

ग़ज़ल 201

 ग़ज़ल 201


122---122--122---122


मुहब्बत की उसने सज़ा जो सुनाई

न क़ैद-ए-कफ़स ही, न होगी रिहाई


भरोसा नहीं जब मेरी बात का तो

कहाँ तक तुम्हें दूँ मैं अपनी सफ़ाई


ये मासूम दिल था, समझ कुछ न पाया

इशारों में जो बात तुम ने बताई


नज़र को मेरी वैसी ताक़त भी देते

अगर तुम को करनी थी जल्वानुमाई


कहीं ज़िक्र आया न मेरा अभी तक

कहानी अधूरी है तुमने सुनाई


हज़ारों शिकायत तुम्हे ज़िन्दगी से

कभी ज़िन्दगी से की क्या आशनाई ?


सुना है कि शामिल वो हर शय में ’आनन’

वो ख़ुशबू है, ख़ूशबू  न देती दिखाई


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 200

 ग़ज़ल 200


121-22/ 121-22 /121-22/ 121-22


बदल गईं जब तेरी निगाहें , ग़ज़ल का उन्वां बदल गया है

जहाँ भी हर्फ़-ए-करम लिखा था, वहीं पे हर्फ़-ए-सितम लिखा है 


अजब मुहब्बत का यह चलन है जो डूबता है वो पार पाता

फ़ना हुए हैं ,फ़ना भी होंगे, ये सिलसिला भी कहाँ रुका है 


पता तो उसका सभी को मालूम, तलाश में हैं सभी उसी के

कभी तो दैर-ओ-हरम में ढूँढू , कभी ये लगता कि लापता है


न कुछ भी सुनना, न कुछ सुनाना, न कोई शिकवा,गिला,शिकायत

ये बेख़ुदी है कि बेरुख़ी है, तुम्हीं बता दो सनम ये क्या है ?


पयाम मेरा, सलाम उनको, न जाने क्यों नागवार गुज़रा

जवाब उनका न कोई आया, मेरी मुहब्बत की यह सज़ा है 


तमाम कोशिश रही किसी की, कि बेच दूँ मैं ज़मीर अपना

मगर ख़ुदा की रही इनायत, ज़मीर अबतक बचा रखा है

 

जिसे तुम अपना समझ रहे थे, हुआ तुम्हारा कहाँ वो ’आनन’

उसे नया हमसफ़र मिला है. तुम्हें वो दिल में कहाँ रखा है


-आनन्द.पाठक-