ग़ज़ल 210 [57]
221---1222 // 221--1222
हर सिम्त धुआँ उठता , वह आग उगलता है
मौक़े की नज़ाकत से. वह रंग बदलता है
हर बार चुनावों में , वादों की हैं सौगातें
फिर बाद चुनावों के, मुँह फेर के चलता है
मज़लूम के आँसू हैं , आवाज़ नहीं होती
हर बूँद की गरमी से, पत्थर भी पिघलता है
जब जान रहा हैं तू , वादों की हक़ीक़त क्या
फेंके हुए सिक्कों पर, क्यों पाँव फिसलता है
है काम यही उनका, वो जाल बिछाते हैं
हर बार है क्यूँ फँसता ,तू क्यों न सँभलता है
ज़रख़ेज़ ज़मीं इसकी, यह देश चमन मेरा
नफ़रत न उगा इसमे , बस प्यार ही फलता है
’आनन’ यह सियासत है, या शौक़ कि मजबूरी
वह सेंक रहा रोटी , घर और का जलता है
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें