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ग़ज़ल 174
किसी के प्यार में ये दिल लुटा दिया मैने
हसीन जुर्म पे ख़ुद को सज़ा दिया मैने ।
तलाश जिसकी थी वो तो नहीं मिला फिर भी
तमाम उम्र उसी में गँवा दिया मैने ।
भटक न जाएँ मुसाफ़िर कहीं अँधेरों में
चिराग़ राह में दिल का जला दिया मैने ।
जहाँ भी नक़्श-ए-क़दम आप का नज़र आया
मुक़ाम-ए-ख़ास समझ, सर झुका दिया मैने ।
इसी उमीद में जीता रहा कि आओगे
ख़बर न आई तो दीया बुझा दिया मैने ।
नहीं हूँ फ़ैज़ तलब जो भी फ़ैसला कर दो
गुनाह जो भी था अपना बता दिया मैने ।
लगे न दाग़ कहीं इश्क़ पाक है ’आनन’
फ़ना का रस्म था वो भी निभा दिया मैने ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
फ़ैज़-तलब = यश का आकांक्षी
मुक़ाम-ए-ख़ास = विशिष्ट स्थान
फ़ना = प्राणोत्सर्ग