रविवार, 9 जून 2024

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ग़ज़ल 362

  ग़ज़ल 362

2122---1212---22


हम तेरा एहतराम करते हैं

याद भी सुबह-ओ-शाम करते हैं ।


नक्श-ए-पा जब कहीं दिखा तेरा

सर झुका कर सलाम करते हैं।


सादगी भी तेरी क़यामत है

बात यह ख़ास-ओ-आम करते हैं ।


इश्क़ के जानते नताइज़, सब 

इश्क़ फिर भी तमाम करते हैं ।


क्या तुम्हें दे सकेंगे हम, जानम !

ज़िंदगी तेरे नाम करते हैं ।


उनको इस बात की ख़बर ही नहीं

मेरे दिल में क़याम करते हैं ।


कब वो वादा निभाते हैं ’आनन’

हम निभाने का काम करते हैं ।


-आनन्द.पाठक- 

ग़ज़ल 361

 ग़ज़ल 361/36


221---2121---1221---212


सीने में है जो आग इधर, क्या उधर नहीं ?

कैसे मैं मान लूँ कि तुझे  कुछ ख़बर नहीं  ।


कल तक तेरी निगाह में इक इन्क़लाब था,

अब क्या हुआ रगों में तेरी वो शरर  नहीं ।


वैसे तो ज़िंदगी ने बहुत कुछ दिया, मगर

कोई न हमकलाम कोई हम सफ़र नहीं ।


गुंचें हो वज्द में कि मसर्रत में हों, भले ,

माली की बदनिगाह से है बेख़बर नहीं ।


तेरी इनायतों का अगर सिलसिला रहा

कश्ती मेरी डुबा दे कोई वो लहर नहीं ।


डूबा जो इश्क़ में है वो उबरा न उम्र भर

यह इश्क़ है और इश्क़ कोई दर्दे-सर नही


तू मान या न मान कहीं कुछ कमी तो है

’आनन’ तेरा अक़ीदा अभी मोतबर नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

शरर = चिंगारी
गुंचा = कलियाँ
वज्द  में = उल्लास में ,आनन्द में
मसर्रत में = हर्ष मे, ख़ुशी में
अक़ीदा = आस्था , विश्वास
मोतबर = विशवसनीय, भरोसेमंद