मंगलवार, 27 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 340

  ग़ज़ल  340[15]


२१२---२१२---२१२---२१२


क्यों अँधेरों में जीते हो मरते हो तुम

रोशनी की नहीं बात करते हो तुम


रंग चेहरे का उड़ता क़दम हर क़दम

सच की गलियों से जब भी गुज़रते हो तुम


कौन तुम पर भरोसा करे ? क्यों करे?

जब कि हर बात से ही मुकरते हो तुम


राह सच की अलग, झूठ की है अलग

राह ए हक  पर भला कब ठहरते हो तुम ?


वो बड़े लोग हैं, उनकी दुनिया अलग

बेसबब क्यों नकल उनकी करते हो तुम ?


वक़्त आने पे लेना कड़ा फ़ैसला

उनके तेवर से काहे को डरते हो तुम ?


तुमको उड़ना था ’आनन; नहीं उड़ सके

तो परिंदो के पर क्यों कतरते हो तुम ?


-- आनन्द,पाठक--


ग़ज़ल 339

 


ग़ज़ल 339/14

212---212---212---212--


तुम ने जैसा कहा मैने वैसा किया

फ़िर बताओ कि मैने बुरा क्या किया ?


हाथ की बस लकीरें रहे देखते

बाजुओं पर न तुमने भरोसा किया ।


ध्यान में वह नहीं था, कोई और था

बस दिखावे का ही तुमने सज्दा किया ।


इश्क़ क्या चीज़ है, तुमको क्या है पता

इश्क़ के नाम पर बस तमाशा किया ।


रह-ए-हक़ में क़दम दो क़दम क्या चले

चन्द लोगों ने मुझ से किनारा किया ।


क्यों जुबाँ लड़खड़ाने लगी आप की

आप ने कौन सा सच से वादा किया ।


बात ’आनन’ की चुभने लगी आप को

सच की जानिब जब उसने इशारा किया ।


-आनन्द.पाठक--


ग़ज़ल 338

 2122   1212   22


आप से अर्ज-ए-हाल है, साहिब
जिंदगी पाएमाल  है साहिब

रोज जीना है रोज मरना है
यह भी खुद मे कमाल है, साहिब

अब फरिश्ते कहाँ उतरते हैं
आप का क्या खयाल है साहिब ?

रोशनी देगा या जला देगा-
हाथ उसके मशाल है, साहिब

सिर्फ टी0वी0 पे दिन दिखे अच्छे
मुझको इसका मलाल है साहिब

जिंदगी शौक़ है कि मजबूरी ?
यह भी कैसा सवाल है, साहिब

लोग 'आनन'  को हैं बुरा कहते
चन्द लोगों की चाल है साहिब

-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 337

  ग़ज़ल 337/12


221---212---212---212


खुशियों का ज़िंदगी में अभी सिलसिला नहीं

मैने भी ज़िंदगी से अभी कुछ कहा नहीं ।


हालात-ए-ज़िंदगी से कोई ग़मज़दा न हो

ऐसा तो कोई शख़्स अभी तक मिला नहीं ।


नफ़रत की आँधियॊं से उड़ा आशियाँ  मेरा

ज़ौर-ओ-सितम से एक भी तिनका बचा नहीं


दीवार थी गुनाह की दोनों के बीच में ,

वरना था दर्मियान कोई फ़ासला नहीं ।


वैसे कहानी आप की तो बारहा सुनी

फिर भी ज़दीद सी ही लगी, दिल भरा नहीं ।


नदिया में प्यास की न तड़प ही रही अगर

सागर से फिर मिलन का असर खुशनुमा नहीं


’आनन’ ख़याल-ओ-ख़्वाब में इतना न डूब जा

दुनिया की साज़िशों का तुम्हे हो पता नही ।



-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 336

  ग़ज़ल 336/11


212---212---212---212


इश्क़ क्या है? न मुझको बताया करो

जो पढ़ी हो, अमल में भी लाया  करो  ।


गर ज़ुबाँ से हो कहने में दुशवारियाँ

तो निगाहों से ही कह के जाया करो ।


जो रवायत ज़माने के नाक़िस हुए

छोड़ दो, कुछ नया आज़माया करो ।


दोस्ती भी इबादत से तो कम नही

बेगरज़ साथ तुम भी निभाया करो ।


रहबरी है तुम्हारी कि साज़िश है कुछ

जानते हैं सभी , मत छुपाया करो ।


जो अँधेरों में है उनके दिल में कभी

इल्म की रोशनी तो जगाया करो ।


नाम ’आनन’ का तुमने सुना ही सुना

जानना हो तो घर पे भी आया करो ।


-आनन्द पाठक--


ग़ज़ल 335

 ग़ज़ल 335[10]

2122---1212---22


झूठ की हद से जब गुज़रता है

बात सच की कहाँ वो करता है


जब दलाइल न काम आती है

गालियों पर वो फिर उतरता है


हर तरफ है धुआँ धुआँ फ़ैला

खिड़कियां खोलने से डरता है


वह उजालों के राज़ क्या जाने

जुल्मतों में सफर जो करता  है


आसमाँ पर उड़ा करे हमदम

वह ज़मीं पर कहाँ ठहरता है ?


निकहत-ए-गुल से कब शनासाई

मौसिम-ए-गुल उसे अखरता है


कैसे ’आनन’ करें यकीं उसपर

जो ज़ुबाँ दे के भी मुकरता है


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 334

  ग़ज़ल 334 /09


212---212---212---212


हो न जाए कहीं रायगां रोशनी -

उससे पहले तू दिल से मिटा तीरगी


उसने पर्दा उठाया हुई इक सहर

और दिल में जगी एक पाकीज़गी


इक अक़ीदत रही आख़िरी साँस तक

शख़्सियत उसकी थी बस सुनी ही सुनी


ज़िंदगी में तो वैसे कमी कुछ नहीं

जब न तुम ही मिले तो कमी ही कमी


मैं शुरु भी करूँ तो कहाँ से करूँ

मुख़्तसर तो नही है ग़म-ए-ज़िंदगी


इन हवाओं की ख़ुशबू से ज़ाहिर यही

इस चमन से है गुज़री अभी इक परी


एक एहसास है एक विश्वास है

तुमने ’आनन’ की देखी नही आशिक़ी


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

रायगां  = व्यर्थ

नूर--ए-सहर = सुबह का उजाला

पाकीजगी  = पवित्रता

अक़ीदत = श्रद्धा ,विश्वास

मुख़्तसर = संक्षिप्त

ग़ज़ल 333

  ग़ज़ल 333 [08]


221--2121----1221---212


 कुछ लोग बस हँसेंगे, तुझे पाएमाल कर

अपना गुनाह-ए-ख़ास तेरे सर पे डाल कर


कितना बदल गया है ज़माना ये आजकल

दिल खोलना कभी तो, जरा देखभाल कर


लोगों ने कुछ भी कह दिया तू मान भी लिया

अपनी ख़िरद का कुछ तो ज़रा इस्तेमाल कर


वह वक़्त कोई और था, यह वक़्त और है

जो कह रहा निज़ाम, न उस पर सवाल कर


सौदा न कर वतन का, न अपनी ज़मीर का

मिट्टी के कर्ज़ का ज़रा कुछ तो खयाल कर


इन बाजुओं में दम अभी हिम्मत है, हौसला

फिर क्यों करूँ मै फ़ैसला, सिक्के उछाल कर


’आनन’ सभी की ज़िंदगी तो एक सी नहीं

हासिल है तेरे पास जो, उससे कमाल कर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

ख़िरद = अक़्ल

पाएमाल =बरबाद 

ग़ज़ल 332

  ग़ज़ल 332 [07]


2122---2122---2122


आदमी की सोच को यह क्या हुआ है

आज भी कीचड़ से कीचड़ धो रहा है


मजहबी जो भी मसाइल, आप जाने

दिल तो अपना बस मुहब्बत ढूँढता है


मन के अन्दर ही अँधेरा और उजाला

देखना है कौन तुम पर छा गया है


ज़िंदगी की शर्त अपनी, चाल अपनी

कब हमारे चाहने से क्या हुआ है ।


कौन मानेगा तुम्हारी बात कोई 

बात अब तुमको बनाना आ गया है


देख सकते हैं मगर हम छू न सकते

चाँद नभ का है हमारा कब हुआ है ।


मौसिम-ए-गुल में कहाँ वो रंग ’आनन’

जो गुज़िस्ताँ दौर का होता रहा है ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 331

  ग़ज़ल 331

212---212---212---212


ऐसी क्या हो गईं अब हैं मजबूरियाँ

लब पे क़ायम तुम्हारे है ख़ामोशियाँ


कल तलक रात-दिन राबिता में रहे

आज तुमने बढ़ा ली है क्यॊं दूरियाँ


एक पल को नज़र तुम से क्या मिल गई

लोग करने लगे अब है सरगोशियाँ


सोच उनकी अभी आरिफ़ाना नहीं

शायरी को समझते हैं लफ़्फ़ाज़ियाँ


ज़िंदगी भर जो तूफ़ान में ही पले

क्या डराएँगी उनको कभी बिजलियाँ


एक तुम ही तो दुनिया में तनहा नहीं’

इश्क़ में जिसको हासिल है नाकामियाँ


तेरी ’आनन’ अभी तरबियत ही नहीं

इश्क की जो समझ ले तू बारीकियाँ



-आनन्द.पाठक-




सोमवार, 26 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 330

  ग़ज़ल 330[ 06]


221---1222--// 221--1222


देखा जो कभी तुमको, खुद होश गँवा बैठे

क्या तुमको सुनाना था ,क्या तुमको सुना बैठे


कुछ बात हुआ करतीं पर्दे की तलब रखती

यह क्या कि समझ अपना, हर बात बता बैठे


मालूम हमें क्या था बदलेगी हवा ऐसी

हर बार हवन करते, हम हाथ जला बैठे


यह राह फ़ना की है, अंजाम से क्या डरना

जिसका न मुदावा है, वह रोग लगा बैठे


रोके से नहीं रुकता, लगता न लगाने से

इस बात से क्या लेना, दिल किस से लगा बैठे


चाँदी के क़लम से कब, सच बात लिखी तुमने

सोने की खनक पर जब दस्तार गिरा बैठे


उम्मीद तो थी तुम से, तुम आग बुझाओगे

नफ़रत को हवा देकर तुम और बढ़ा बैठे ।


आदात तुम्हारी क्या अबतक है वही 'आनन'

कोई भी  मिला तुम से बस दर्द सुना बैठे ?


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
दस्तार = पगड़ी, इज्जत

मुदावा = इलाज


ग़ज़ल 329

  ग़ज़ल 329 /05


1222---1222---1222---1222


तुम्हारे ही इशारों पर, बदलते हैं यहाँ मौसम

कभी दिल शाद होता है ,कभी होती हैं आँखें नम ।


ये ख़ुशियाँ चन्द रोज़ां की,  कब आती हैं चली जातीं

कभी क्या मुख़्तसर होती किसी की दास्तान-ए-ग़म


तरीक़ा आजमाने का तुम्हें लगता यही वाज़िब

सितम जितना भी तुम कर लो, नहीं होगी मुहब्बत कम


अजब है ज़िंदगी मेरी, न जाने क्यॊ मुझे लगता

कभी  लगती है अपनॊ सी ,कभी हो जाती है बरहम


रहेगा सिलसिला क़ायम सवालों का, जवाबों का

नतीज़ा एक सा होगा , ये आलम हो कि वो आलम


जरूरत ही नही होगी हथेली में लिखा है क्या

तुम्हें  इन बाजुओं पर हो भरोसा जो अगर क़ायम


परेशां क्यों है तू ’आनन’, ज़माने से हैं क्यॊ डरता

ये दुनिया अपनी रौ में है तू ,अपनी रौ मे चल हरदम



-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

मुख़्तसर  == छो्टी, संक्षेप में

बरहम = तितर बितर. नाराज़

ग़ज़ल 328

  ग़ज़ल 328 [04] 


ग़ज़ल 328[04फ़]

122--122--122--122


मुझे क्या ख़बर किसने क्या क्या कहा है

अभी मुझ पे तारी तुम्हारा  नशा  है ।


तुम्हें शौक़ है आज़माने का मुझको

हमेशा हूँ हाज़िर ,मना कब किया है


अभी शाम में ख़त मिला जब तुम्हारा

वही मैं पढ़ा जो न तुमने लिखा है


हज़ारों मनाज़िर मेरे सामने थे

तुम्हारे सिवा कब मुझे कुछ दिखा है


बदन ख़ाक की मिल गई ख़ाक में तो

ये हंगामा इतना क्यों बरपा हुआ  है


नई रोशनी घर में आए तो कैसे 

न खिड़की खुली है, न दर ही खुला है


समझ जाएगी एक दिन वह भी ’आनन’

अभी वह मुहब्बत से नाआशना है 


-आनन्द.पाठक- 

ग़ज़ल 327

  ग़ज़ल 327[03F]


212---212---212---212


जिंदगी में रही इक कमी उम्र भर

इन लबों पर रही तिशनगी उम्र भर


तुम जो आते तो दिल होता रोशन मेरा

तुम न आए रही तीरगी  उम्र भर 


जानता हूँ मगर कह मैं सकता नहीं

ज़िंदगी क्यों मुझे तुम छ्ली उम्र भर


ये नज़ाकत, लताफ़त ये लुत्फ़-ओ-अदा

किसकी क़ायम यहाँ कब रही उम्र भर


आप की बात पर था भरोसा मुझे

राह देखा किए आप की उम्र भर


हो न लुत्फ़-ओ-इनायत भले आप की

दिल करेगा मगर बंदगी उम्र भर


सबको अपना समझते हो ’आनन’ यहाँ

कौन होता किसी का कहाँ उम्र भर


-आनन्द.पाठक-


 

ग़ज़ल 326

 Ghazal 326 [02F]


221---1222// 221--1222

जब दिल मे कभी उनका,इक अक्स उतर आया
दुनिया न मुझे भायी दिल और निखर आया

ऐसा भी हुआ अकसर सजदे में झुकाया सर
ख्वाबों मे कभी उनका चेहरा जो नजर आया

कैसी वो कहानी थी सीने मे छुपा रख्खी
तुमने जो सुनाई तो इक दर्द उभर आया

दो बूँद छलक आए नम आँख हुई उनकी
चर्चा में कहीं मेरा जब जख्म ए जिगर आया

अंजाम से क्या डरना क्यों लौट के हम आते
खतरों से भरे रस्ते दौरान ए सफर आया

क्या क्या न सहे हमने दम तोड़ दिए सपने
टूटे हुए सपनों से जीने का हुनर आया

 मालूम नही तुझको, क्या रस्म-ए-वफा उलफत
क्या सोच के तू 'आनन', कूचे मे इधर आया 

--आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 325

  325[01F]


212---212---212---212


आजकल आप जाने न रहते किधर

आप की अब तो मिलती नही कुछ ख़बर


इश्क नायाब है सब को हासिल नहीं

कौन कहता मुहब्बत है इक दर्द-ए-सर


ख़्वाब देखे थे या जो कि सोचे थे हम

अब तो दिखती नहीं वैसी कोई  सहर


काम ऐसा न कर ज़िंदगी  में कभी

जो चुरानी पड़े खुद को ख़ुद से नज़र


छोड़ कर जो गया हम सभी को कभी

कौन आया है प्यारे यहाँ लौट कर


वक़्त रुकता नहीं है किसी के लिए

तय अकेले ही करना पड़ेगा सफ़र


दिल जो कहता है तुझसे उसी राह चल

क्यों भटकता है ;आनन’ इधर से उधर


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 324

  ग़ज़ल 324[89]


122---122---122---122


इबादत में मेरी कहीं कुछ कमी है

निगाहों में क्यों दिख रही बेरुखी है


तेरी शख़्सियत का मैं इक आइना हूँ

तो फिर क्यों अजब सी लगे ज़िंदगी है


नहीं प्यास मेरी बुझी है अभी तक

अजल से लबों पर वही तिश्नगी है


यक़ीनन नया इक सवेरा भी होगा

नज़र में तुम्हारी अभी तीरगी  है


बहुत दूर तक देख पाओगे कैसे

नहीं दिल में जब इल्म की रोशनी है


तुम आओगे इक दिन भरोसा है मुझको

उमीदो पे ही आज दुनिया टिकी है 


ये मुमकिन नहीं लौट जाऊँ मै ’आनन’

ये मालूम है इश्क़ ला-हासिली है ।


-आनन्द.पाठक-

अजल = अनादि काल से

ला-हासिली =निष्फल



ग़ज़ल 323

 1222  1222   1222   1222

गजल 323(88E)

निगाहों ने निगाहों से कहा क्या था, खुदा जाने
कभी जब सामना होता लगे हैं अब वो शरमाने

 मिले दो पल को राहो में झलक क्या थी क़यामत थी
ये दिल मक्रूज है उनका  वो ख्वाबों मे लगे आने

नही मालूम है जिनको, मुहब्बत चीज क्या होती
वही तफसील से हमको लगे हैं आज  समझाने

इनायत आप की गर हो भले कागज की कश्ती हो
वो दर्या पार कर लेगी कोई माने नही माने
  
ये जादू है पहेली है कि उलफत है भरम कोई
कभी लगते हैं वो अपने कभी लगते है बेगाने

बड़ी मुशकिल हुआ करती, मैं जाऊँ तो किधर जाऊँ
तुम्हारे घर की राहों मे हैं मसजिद और मयखाने

अगर दिल साफ हो अपना तो पोथी और पतरा क्या
कि सीधी बात भी 'आनन' लगे हो और उलझाने

-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 322

 ग़ज़ल 322(87E)


1222--------1222------1222

न आए , तुम नहीं आए, बहाना क्या
गिला शिकवा शिकायत क्या सुनाना क्या

कभी तोड़ा नही वादा लब ए दम तक
ये दिल की बात है अपनी बताना क्या

नफा नुकसान की बातें मुहब्बत में
इबादत मे तिजारत को मिलाना क्या

हसीं तुम हो, खुदा की कारसाजी है
तो फिर पर्दे मे क्यों रहना, छुपाना क्या

भरोसा क्यों नहीं होता तुम्हे खुद पर
मुहब्बत को हमेशा आजमाना क्या 

अगर तुमने नहीं समझा तो फिर छोड़ो
हमारा दर्द समझेगा जमाना क्या  

अगर दिल से नहीं कोई मिले 'आनन'
दिखावे का ये फिर मिलना मिलाना क्या 

-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 321

 ग़ज़ल  321[86इ] 

 1222---1222----122


तुम्हारे चाहने से क्या हुआ है
जो होना था वही होकर रहा है

बहुत रोका कि ये छलके न आँसू
हमारे रोकने से कब रुका है

भँवर में हो कि तूफाँ में सफीना
हमेशा मौज़ से लड़ता रहा है

हवाएँ साजिशें करने लगीं अब
चमन शादाब मुरझाने लगा है

हमारे हाथ में ताक़त क़लम की
तुम्हारे हाथ में खंज़र नया है

दरीचे खोल कर देखा न तुमने
तुम्हे दिखती उधर कैसी फ़ज़ा है

उजाले क्यों उन्हें चुभते हैं ’आनन’
अँधेरों से कोई क्या वास्ता  है ?

-आनन्द.पाठक-



रविवार, 25 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 320

 गजल 320(85)

212---212---212---212

गर्म आने  लगीं है हवाएँ इधर
'कुछ जली बस्तियाँ' कल की होगी खबर

चल पड़े लीडराँ रोटियाँ सेंकने
सब को आने लगी अब है कुर्सी नजर

आग की यह लपट कब हैं पहचानतीं
यह है 'जुम्मन' का घर या 'सुदामा' का घर

लोग गुमराह करते रहेंगे तुम्हे
उनकी चालों से रहता है क्यों बेखबर

अपने मन का अँधेरा मिटाया नहीं
चाहते हो मगर तुम नई इक सहर

प्यार की बात क्यों लोग करते नहीं
 चार दिन का है जब जिंदगी का सफर

 उनके हाथों के पत्थर पिघल जाएँगे
अपनी ग़ज़लों में 'आनन' मुहब्बत तो भर

- आनन्द पाठक-



ग़ज़ल 319

 ग़ज़ल 319(84)

1222---1222---1222---1222

वो माया जाल फैला कर जमाने को है भरमाता
हक़ीक़त सामने जब हो, मै कैसे खुद को झुठलाता

जिसे तुम सोचते हो अब कि सूरज डूबने को है
जो आँखें खोल कर रखते नया मंजर नजर आता

मै मह्व ए यार मे डूबी हुई खुद से जुदा होकर
लिखूँ तो क्या लिखूँ दिल की उसे पढ़ना नही आता

अजब दीवानगी उसकी नया राही मुहब्बत का
फ़ना है आखिरी मंजिल उसे यह कौन समझाता

मसाइल और भी तो हैं मुहब्बत ही नहीं केवल
कभी इक गाँठ खुलती है तभी दूजा उलझ जाता

दबा कर हसरतें अपनी तेरे दर से गुजरता हूँ
सुलाता ख़्वाब हूँ कोई, नया कोई है जग जाता

वही खुशबख्त है 'आनन' जिसे हासिल मुहब्बत है
नहीं हासिल जिसे वह दिल खिलौनों से है बहलाता

-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 318

  गजल 318(E)

212---212---212---212

फेंक कर जाल बैठे मछेरे यहाँ

बच के जाएँ तो जाएँ मछलियाँ कहाँ


 ग़ायबाना सही एक रिश्ता तो है

जब तलक है यह क़ायम जमी-आस्माँ


मैं जुबाँ से भले कह न पाऊँ कभी

मेरे चेहरे से होता रहेगा बयाँ


प्यास दर्या की ही तो नहीं सिर्फ है

क्यों समन्दर की होती नही है अयाँ


वस्ल की हो खुशी या जुदाई का गम

जिंदगी का न रुकता कभी कारवाँ


सैकडो रास्ते यूँ तो मक़सूद थे

इश्क का रास्ता ही लगा जाविदाँ


जानता है तू 'आनन' नियति है यही

आज उजाला जहाँ कल अंँधेरा वहाँ


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ

ग़ायबाना  =अप्रत्यक्ष

मक़सूद =अभिप्रेत

जाविदाँ  = नित्य, शाश्वत


ग़ज़ल 317

  ग़ज़ल 317/82


212---212---212---212


ख़त अधूरा लिखा उसका पूरा हुआ

आँसुओं से कभी जब वो गीला हुआ


पढ़्ने वाले ने पढ़ कर समझ भी लिया

दर्द वह भी जो  खत में न लिख्खा हुआ


आप झूठी शहादत ही बेचा किए

यह तमाशा कई बार देखा हुआ


शोर ही शोर है बेसबब हर तरफ
कौन सुनता है किसको सुनाना हुआ


हर कली बाग़ की आज सहमी हुई

ख़ौफ़ का एक साया है फैला हुआ


अब परिन्दे भी जाएँ तो जाएँ कहाँ

साँप हर पेड़ पर एक बैठा हुआ


तुम भी ’आनन’ हक़ीक़त से नाआशना

सब की अपनी गरज़ कौन किसका हुआ



-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 316

  ग़ज़ल 316[81]

212---212---212----212

सच से उस का कोई वास्ता भी नहीं,

क्या हक़ीक़त उसे जानना  भी नहीं ।


उँगलियाँ वो उठाता है सब की तरफ़

और अपनी तरफ़ देखता भी नहीं ।


रंग चेहरे क्यों उड़ गया आप का ,

सामने तो कोई आइना भी नहीं ।


पीठ अपनी सदा थपथपाते रहे ,

क्या कहें तुमको कोई हया भी नहीं ।


टाँग यूँ ही अड़ाते रहोगे अगर ,

तुम को देगा कोई रास्ता भी नहीं ।


आप दाढ़ी मे क्या लग गए खोजने ,

मैने 'तिनका' अभी तो कहा भी नहीं ।


रेवड़ी बाँटने  ख़ुद  चले आप थे

किसको क्या क्या दिया कुछ पता ही नहीं


राज-सत्ता भी ’आनन’ अजब चीज़ है

मिल गई , तो कोई छोड़ता भी नहीं


-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 315

  ग़ज़ल 315  [ 80इ]


212---212---212---212


ये अलग बात है वो मिला तो नहीं

दूर उससे मगर मैं रहा तो नहीं


एक रिश्ता तो है एक एहसास है

फूल से गंध होती जुदा तो नहीं


उनकी यादों मे दिल मुब्तिला हो गया

इश्क की यह कहीं इबतिदा तो नहीं


कौन आवाज़ देता है छुप कर मुझे

आजतक कोई मुझको दिखा तो नहीं 


ध्यान में और लाऊँ मैं किसको भला

आप जैसा कोई दूसरा तो नहीं


लाख ’तीरथ’ किए आ गए हम वहीं

द्वार मन का था खुलना, खुला तो नहीं


आप जैसा भी चाहें समझ लीजिए

वैसे ’आनन’ है दिल का बुरा तो नहीं


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 314

  ग़ज़ल 314[79]


2122---1212---22


आप ने जो भी कुछ किया होगा

हश्र में उसका फ़ैसला  होगा


चाह कर भी न कह सका उस से

उसने आँखों से पढ़ लिया होगा


ख़ौफ़ खाया न जो दरिंदो से

आदमी देख कर डरा  होगा


दिल पे दीवार उठ गई होगी

घर का आँगन भी जब बँटा होगा


अब भरोसा भी क्या करे  कोई

राहजन ही जो रहनुमा होगा


जाहिलों की जमात में अब वो

ख़ुद को आरिफ़ बता रहा होगा


रोशनी की उमीद में ’आनन’

आख़िरी छोर पर खड़ा होगा


-आनन्द पाठक-



ग़ज़ल 313

  ग़ज़ल 313/78


221---2121---1221---212


जब झूठ की ज़ुबान सभी बोलते रहे

सच जान कर भी आप वहाँ चुप खड़े रहे


दिन रात मैकदा ही तुम्हारे खयाल में

तसबीह हाथ में लिए क्यों फेरते रहे


इन्सानियत की बात किताबों में रह गई

अपना बना के लोग गला काटते रहे


चेहरे के दाग़ साफ नजर आ रहे जिन्हे

इलजाम आइने पे वही थोपते रहे


क्या दर्द उनके दिल में है तुमको न हो पता

अपनी ज़मीन और जो घर से कटे रहे


कट्टर ईमानदार हैं जी आप ने कहा

घपले तमाम आप के अब सामने रहे


बस आप ही शरीफ़ हैं मजलूम हैं जनाब

मासूमियत ही आप सदा बेचते रहे


'आनन' को कुछ खबर न थी, मंजिल पे थी नजर

काँटे चुभे थे पाँव में या आबले रहे


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ = नाम जपने की माला

मजलूम =पीड़ित


इसी ग़ज़ल को मेरी आवाज़ में सुने---

ग़ज़ल 312

  ग़ज़ल 312


1222---1222---1222---1222


चिराग़-ए-इल्म जिसका हो, सही रस्ता दिखाता है

जहाँ होता वहीं से ख़ुद पता अपना बताता  है


शजर आँगन में, जंगल में कि मन्दिर हो कि मसज़िद मे

जो तपता ख़ुद मगर औरों पे वो छाया लुटाता है


समन्दर है तो क़तरा है, न हो क़तरा समन्दर क्या

ये रिश्ता दिल हमेशा ही निभाया है निभाता है


नज़र आता नहीं फिर भी तसव्वुर में है वह रहता

बहस मैं क्या करूँ इस पर नज़र आता, न आता है


हवेली माल-ओ-ज़र, इशरत जो जीवन भर जुटाते हैं

यही सब छोड़ कर जाते, कभी जब वह बुलाता है


इनायत हो अगर उनकी  तो दर्या रास्ता दे दे

करम उनका भला इन्साँ कहाँ कब जान पाता है


 जो संग-ए-आस्ताँ उनका हवा छूकर इधर आती 

मुकद्दस मान कर ’आनन’ ये अपना सर झुकाता है


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

शजर = पेड़

माल-ओ-ज़र इशरत = धन संपत्ति, ऐश्वर्य वैभव

संग-ए-आस्ताँ  = चौखट

मुक़द्दस =पवित्र


ग़ज़ल 311

  1222---1222---1222--122


एक ग़ज़ल 311 [76इ]


दिखा कर झूठ के सपने हमें भरमा रहे हो

जो जुमले घिस चुके क्यों बारहा रटवा रहे हो


अकेले तो नहीं तुम ही जो लाए थे उजाले

यही इक बात हर मौके पे क्यों दुहरा रहे हो


दिखा कर ख़ौफ़ का  मंज़र जो लूटे हैं चमन को

उन्हीं को आज पलकों पर बिठाए जा रहे हो


अगर शामिल नहीं थे तुम गुजस्ता साजिशों में

नही है सच अगर तो किस लिए  घबरा रहे हो ?


सबूतों के लिए तुम बेसबब हो क्यों परेशाँ

खड़ा सच सामने जब है तो क्या झुठला रहे हो


ये मिट्टी का बदन है ख़ाक में मिलना है इक दिन

ये इशरत चार दिन की है तो क्यों इतरा रहे हो


तुम्हारी कैफ़ियत ’आनन’ यही है तो कहेँ क्या  

जहाँ पत्थर दिखा बस सर झुकाते जा रहे हो


-आनन्द पाठक-

शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

ग़ज़ल 310

 


ग़ज़ल 310 [75इ]

1222---1222---1222--122


हमे कब से वो शिद्दत से यही बतला रहा है

लहू के रंग कितने हैं  हमें समझा  रहा है


उसे भाता नहीं सुख चैन मेरी बस्तियों का

हवा दे कर बुझे शोलों को वो भड़का रहा है


फ़रिश्ता बन के उतरेगा न कोई आसमाँ से

बचे हैं जो उन्हें सूली चढ़ाया  जा रहा है


जो बाँटी 'रेवड़ी' उसने, दिखे बस लोग अपने

ज़माने को वह असली रंग अब दिखला रहा है


वो कर के दरजनो वादे हुआ सत्ता पे काबिज़

निभाने की जो पूछी बात तो हकला रहा है ।


इधर पानी भरा बादल तो आता है यक़ीनन

पता चलता नहीं पानी किधर बरसा रहा है


वो मीठी बात करता सामने हँस हँस कर ’आनन’

पस-ए-पर्दा वो टेढ़ी चाल चलता जा रहा है


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 309

  ग़ज़ल 309


1212---1122--1212--22


अवाम जो भी सुनाए उसे सुना करिए

हवा का रुख भी ज़रा देखते रहा करिए


हुजूम आ गया सड़कों पे तख़्तियाँ लेकर

कभी तो हर्फ़-ए-इबारत जरा पढ़ा करिए


हर एक बात मेरी फूँक कर उड़ा देना

हुजूर दर्द सलीक़े से तो सुना करिए


ज़ुबान आप की है आप को मुबारक हो

जलील-ओ-ख्वार तो कम से न कम किया करिए


तमाशबीन ही बन कर न देखिए मंज़र

जनाब वक़्त ज़रूरत पे तो उठा करिए


चला किए है अभी तक किसी के पैरों से

उतर के पाँव पे अपने, कभी चला करिए


सही है बात बुरा मानना नहीं ’आनन’

बँधी हो आँख पे पट्टी, किसी का क्या करिए


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 308

 


ग़ज़ल 308

2122---2122---2122


इश्क़ क्या है? दो दिलों की बस्तगी है 

एक ने’मत है , खुदा की बंदगी  है


राह-ए-उलफ़त का सफ़र क्या तय करेगा

सोच में ही जब तेरी आलूदगी है


इश्क़ कब अंजाम तक पहुँचा हमारा

इक अधूरी सी कहानी ज़िंदगी है


लोग हैं खुशबख़्त जिनको प्यार हासिल

चन्द लोगों के लिए यह दिल्लगी है


आप का मैं मुन्तज़िर जब से हुआ हूँ

एक मैं हूँ इक मेरी शाइस्तगी है


दूसरा चेहरा नज़र आता नहीं अब

जब से मेरे दिल से उनकॊ लौ लगी है


आप आनन को भले समझे न समझें

दिल में मेरे आज भी पाकीजगी है ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

बस्तगी = लगाव खिंचाव

ने’मत = ईश्वरी कूपा

आलूदगी = खोट, मिलावट,अपवित्रता

मुन्तज़िर = प्रतीक्षक इन्तज़ार करने वाला

शाइस्तगी = शिष्टता शराफ़त

पाकीजगी =पवित्रता


ग़ज़ल 307

  ग़ज़ल 307

2122--2122--2122

 

बात में उसकी  रही कब पुख्तगी  है

सोच में साजिश भरी है, तीरगी है


एक चेहरे पर कई चेहरे लगाता

पर चुनावों में भुनाता सादगी है


लग रही है कुछ निज़ामत में कमी क्यों

लोग प्यासे हैं लबों पर तिश्नगी है


घर के आँगन में उठीं दीवार इतनी

मर चुकी आँखों की अब वाबस्तगी है


रोशनी देखी नहीं जिसने अभी तक

जुगनुओं की रोशनी अच्छी लगी है


चन्द लोगों के यहाँ जश्न-ए-चिरागाँ

बस्तियों में दूर तक बेचारगी है


भीड़ में क्या ढूँढते रहते हो ’आनन’

अब न रिश्तों में रही वो ताजगी है ।


-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ 

पुख्तगी = दृढ़ता, स्थायित्व

निज़ामत = शासन व्यवस्था

वाबस्तगी = लगाव खिंचाव

जश्न-ए-चिरागाँ = रोशनी का त्यौहार

तीरगी = अँधेरा



ग़ज़ल 306

  ग़ज़ल 306 

221---2121--1221---212


मंज़िल पे  है नज़र, मुझे काँटों का डर नहीं

छाले पड़े हैं पाँव में कहता मगर नही


पत्थर के देवता से ही अब कुछ उमीद है

गो, आँसुओं का उस पे भी होता असर नहीं


यह तो मकान और किसी का मकीन तू

दो दिन का है क़याम यहाँ, तेरा घर नहीं


ठोकर लगा के आप ने दिल तोड़ क्यों दिया

 क्या दिल गरीब का अभी है मोतबर नहीं ?

 

गो, हादिसे तमाम तेरे सामने हुए

उस पर दलील यह कि तुझे कुछ ख़बर नहीं 


दो-चार लाइनों में सुनाऊँ तो किस तरह

ये दास्तान ज़िंदगी का मुख़्तसर नहीं


जब इन्तखाब तुमको निगाहों ने कर लिया”

आनन’ को दूसरा कोई आता नज़र नहीं


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 305

  ग़ज़ल 305 [ 70इ]


1222---122


निज़ाम आया नया है

बयाँ सच का मना है


उधर आँसू गिरे हैं

इधर पत्थर गला है


अगर तुम चुप रहोगे

तो फिर मालिक ख़ुदा है


अमीर-ए-कारवाँ बन

हमे फिर छल रहा है


मेरी ख़ामोशियों का

किसी को क्या पता है


दिया नन्हा सही, पर

अँधेरों से लड़ा  है


सवालों के मुक़ाबिल

इधर ’आनन’ खड़ा है 


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 304

  ग़ज़ल 304 [69इ]

1212---1122---1212---22


सफ़र हयात का आसाँ मेरा हुआ होता 

हबीब आप सा कोई अगर मिला होता


निगाह आप ने मुझसे न फ़ेर लॊ होती

हक़ीर आप के कुछ काम आ गया होता


इधर उधर न भटकते तेरी तलाश में हम

तवाफ़ दिल का कभी हम ने कर लिया होता


अना की क़ैद से बाहर कभी नहीं निकला

अगर वो शख़्स निकलता तो कुछ भला होता


सज़ा गुनाह की मेरे न कुछ मिली होती

बयान आप ने ख़ारिज़ न कर दिया होता


जो दिल में आप की तसवीर हम नहीं रखते

ख़ुमार प्यार का अबतक उतर गया होता


हर एक दर पे झुकाता नहीं है सर ’आनन’

दयार आप का होता तो सर झुका होता ।


-आनन्द.पाठक-


तवाफ़ = परिक्र्मा करना




ग़ज़ल 303

  ग़ज़ल 303 [68इ]

1212---1122---1212---22

वतन के हाल का उसको भी कुछ पता होता

हसीन ख्वाब में गर वो न मुब्तिला होता


चिराग़ दूर से जलता हुआ नज़र आता-

जो उसकी आँख पे परदा नहीं पड़ा होता


तुम्हारे हाथ में तस्बीह और ख़ंज़र भी

समझ में काश! यह पहले ही आ गया होता


क़लम, ज़ुबान नहीं आप की बिकी होती

ज़मीर आप का ज़िंदा अगर रहा होता ।


किसी के पाँव से चलता रहा है वो अकसर

मज़ा तो तब कि वह ख़ुद पाँव से चला होता


तमाम दर्द ज़माने का तुम समेटे हो

कभी ज़माने से अपना भी ग़म कहा होता


सितम शिआर भी सौ बार सोचता ’आनन’

सितम के वक़्त ही पहले जो उठ खड़ा होता


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 302

  "वैलेन्टाइन डे पर-[2023]


हास्य ग़ज़ल 302 [ 67इ]


1222---1222---1222---1222


इधर दिखती नहीं अब तुम, किधर रहती हो तुम जानम !

चलो मिल कर मनाते हैं ’ वेलनटाइन’ दिवस हमदम !


दिया जो हार पिछली बार पीतल का बना निकला

दिला दो हार  हीरे का नहीं दस लाख से हो कम


खड़े हैं प्यार के दुश्मन लगा लेना ज़रा ’हेलमेट’

मरम्मत कर न दें सर का "पुलिसवाले" मेरे रुस्तम ! 


ज़माने का नहीं है डर करेगा क्या पुलिसवाला

अगर तुम पास मेरे हो नहीं दुनिया का है फिर ग़म


बता देती हूँ मैं पहले , नहीं जाना तुम्हारे संग

कि बस ’फ़ुचका’ खिला कर तुम मना लेते हो ये मौसम


इधर क्या सोच कर आया कि है यह खेल बच्चों का !

अरे ! चल हट निकल टकले, नहीं ’पाकिट’ में तेरे दम


घुमाऊँगा , खिलाऊँगा,  सलीमा भी दिखाऊँगा, 

अब ’आनन’ का ये वादा है, चली आ ,ओ मेरी हमदम !


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 301

  ग़ज़ल 301[66इ]


1222---1222---1222---1222


तुम्हारे हुस्न का जल्वा किसी को जब दिखा होगा

ख़ुमारी आजतक होगी नहीं उतरा नशा  होगा


ख़यालों में किसी के तुम कभी जो आ गए होगे

भला वह शख़्स अपने आप में फिर कब रहा होगा


तुम्हे हूँ चाहता दिल से. फ़ना होने की हद तक मैं

न दुनिया को ख़बर होगी, तुम्हे भी क्या पता होगा


यकीं करना तुम्हारा राज़ मेरे साथ जाएगा 

जमाने से दबा है यह जमाने तक दबा होगा


कभी तुम लौट कर आना समझ लेना करिश्मा क्या

तुम्हारा नाम रट रट कर , कोई ज़िंदा रहा होगा


अगर ढूढोंगे शिद्दत से तो मिल ही जाएगा वो भी

तो मकसद ज़िंदगी का और अपना ख़ुशनुमा होगा


निगाह-ए-शौक़ से ढूँढा इसी उम्मीद से ’आनन’

कभी दैर-ओ-हरम में एक दिन तो सामना होगा


-आनन्द.पाठक--