बुधवार, 31 मार्च 2021

कविता 07

  एक कविता :  सूरज निकल रहा है.......


सूरज निकल रहा है
मेरा देश,सुना है
आगे बढ़ रहा है ,
सूरज निकल रहा है

रिंग टोन से टी0वी0 तक
घिसे पिटे से सुबह शाम तक
वही पुराने बजते गाने
सूरज निकल रहा है

लेकिन सूरज तो बबूल पर
टँगा हुआ है
भ्रष्ट धुन्ध से घिरा हुआ है
कुहरों की साजिश से
घिरी हुई प्राची की किरणें
कलकत्ता से दिल्ली तक
धूप हमारी जाड़े वाली
कोई निगल रहा है
सूरज निकल रहा है

एक सतत संघर्ष चल रहा
आज नहीं तो कल सँवरेगा
सच का पथ
नहीं रोकने से रुकता है
सूरज का रथ
’सत्यमेव जयते’ है तो
सत्यमेव जयते-ही होगा
काला धन पिघल रहा है

-आनन्द.पाठक-

कविता 06

 कितने पौरुष वीर पुरुष है !

हाथों में बंदूक लिए
नारी को निर्वसना कर के
हांक रहे है सीना ताने
मरा नहीं दुर्योधन अब भी
जिंदा है हर गाँव शहर में
अगर मरा है
'धर्मराज'का सत्य मरा है
'अर्जुन ' का पुन्सत्व मरा है
'भीम' का भीमत्व मरा है
दु:शासन तो अब भी जिंदा
अट्टहास कर हंसता-फिरता
हाथों में बंदूक लिए
पांचाली का चीर चीरता
क्या अंतर है ????
कुरुक्षेत्र हो ,बांदा हो , चौपारण हो
हमें प्रतीक्षा नहीं कि
कोई कृष्ण पुन: गीता का उपदेश सुनाए
अपना अपना कुरुक्षेत्र है
संघर्ष हमें ही करना होगा
हमे स्वयं ही लड़ना होगा
इसी व्यवस्था में रह कर
इन्द्र-प्रस्थ फिर गढ़ना होगा

-Anand.pathak-

कविता 05

 मृदुल अंकुर भी

तोड़ कर पत्थर पनपती है
एक उर्जा-शक्ति
अंतस में धधकती है
'मगर हम आदमी है
उम्र भर लड़ते रहे नित्य-प्रति की शून्य अभावों से
रोज़ सूली पर चढ़े - उतरे
आँख में आंसू भरे
और तुम?
 देवता बन कर बसे
जा पहाडों में ,गुफाओं में कन्दराओं में !
या नदी के छोर
दूर सागर से,कहीं उस पार
या किसी अनजान से थे द्वीप
या पर्वतों की कठिन दुर्गम चोटियां
वह पलायन था तुम्हारा??
या संघर्षरत की चूकती क्षमता ??
या स्वयं को निरीह पाना ??
या की हम से दूर रहना ??
हम मनुज थे
आदमी का था अदम्य साहस
खोज लेंगे ,आप के आवासस्थल
कंदरा में या गुफा में
यह हमारी जीजिविषा है
कट कर पत्थर पहाडों के
बाँध कर उत्ताल लहरें , सेतु-बन्धन
गर्जनाएं हो समंदर की
या कि दुर्गम चोटियां
हो हिमालय की , शिवालिक की
आ गएँ हैं पास भगवन !
यह हमारी शक्ति है
भाग कर हम जा नहीं बसते
कन्दराओं मे, गुफाओं में
क्यों की हम आदमी है
शून्य अभावों में
संघर्षरत रहना हमारी नियति है

-आनन्द  पाठक -

कविता 04



तुम जलाकर दीप
रख दो आँधियों में \
जूझ लेंगे जिन्दगी से
पीते रहेंगे
गम अँधेरा ,धूप ,वर्षा
सब सहेंगे \
बच गए तो रोशनी होगी प्रखर
मिट गए तो गम न होगा \
धूम-रेखा लिख रही होगी कहानी
"जिन्दगी मेरी किसी की भीख न थी --

-आनन्द पाठक---

कविता 03

 प्यासी धरती प्यासे लोग !


इस छोर तक आते-आते
सूख गई हैं कितनी नदियाँ
दूर-दूर तक रह जाती है
बंजर धरती ,रेत, रेतीले टीले
उगती है बस झाड़-झाडियाँ
पेड़ बबूल के तीखे और कँटीले
हाथों में बन्दूक लिए ए०के० सैतालिस
साए में भी धूप लगे है

'बुधना' की दोआँखे नीरव
 प्यास भरी है
सुना कहीं से
'दिल्ली' से चल चुकी नदी है
आयेगी  उसके भी गाँव
ताल-तलैया भर जायेंगे
हरियाली फ़िर हो जायेगी
हो जायेगी धरती सधवा

लेकिन कितना भोला 'बुधना'
नदियाँ इधर नहीं आती हैं
उधर खड़े हैं बीच-बिचौलिए
'अगस्त्य-पान' करने वाले
मुड़ जाती है बीच कहीं से
कुछ लोगों के घर-आँगन में
शयन कक्ष में
वर्ष -वर्ष तक जल-प्लावन है

कहते हैं वह भी प्यासे
प्यासे वह भी,प्यासे हम भी
दोनों की क्या प्यास एक है?
"परिभाषा में शब्द-भेद है "

-आनन्द.पाठक-
[सं 08-07-18]
प्र0 फ़0बु0

कविता 02

 महानगर है

कहते हैं यह महानगर है
गिर जाए बीज अगर भूले से
उगता नहीं ,यहाँ जीता है
कारों के पहिए के नीचे
दब जाते हैं कितने अंकुर

जीने को मिलता सीलन
एक सडन ,संत्रास ,घुटन
जहरीली हवा अँधेरा ,जिनका कोई नही सवेरा
श्वास-श्वास में भरा धुआ है
जीवन जैसे अंध कुआ है
हर दिवस ही महासमर है
महानगर है
--- ---
फिर उगती कैक्टस की पौध
नागफनी के कांटे
शून्य ह्रदय ,संवेदनहीन
पसरे फैले दूर-दूर तक
अंतहीन सन्नाटे
नहीं उगते हैं चंदन वन
रक्तबीज के वंशज उगते
वृक्षों पर नरभक्षी उगते
टहनी पर बदूकें उगती
पास गए तो छाया चुभती
कुछ लोग तो पाल-पोष
गमलों में रखते
शयन-कक्ष में,घर-आँगन में
धीरे-धीरे फ़ैल-फ़ैल कर
शयन-कक्ष से, घर से बढ़ कर
गली-गली में बढ़ते -बढ़ते
हो जाता संपूर्ण शहर
जंगल ही जंगल
कांक्रीट का जंगल
-- --- --
कांक्रीट के जंगल में
आता नहीं वसंत
बस आते कौओं के झुंड
गिध्धों की टोली
नहीं गूंजती कोयल बोली
गूंजा करते बम्ब धमाके
बंदूकों की गोली

फूल पलाश के लाल नहीं दिखते हैं
रंग देते हैं हमी शहर के दीवारों को

लाल-रंग से खून के छीटें
नहीं सुनाती संगीत हवाएं
मादक द्रव्य सेवन करते
हमी नाचते झूमे-गाएं
हमी मनाते गली-शहर
दिग-दिगंत ,अपना वसंत

-----
सच है यह भी
इस जंगल के मध्य अवस्थित
कहीं एक छोटा -सा उपवन
नंदन -कानन
छोटा-सा पोखर ,शीतल-जल,मन-भावन
अति पावन
पास वहीं केसर की क्यारी
महक रही है
हरी मखमली घास चुनरिया
पसरी फैली हुई लताएँ

अल्हड़ युवती -सी
महकी -महकी हुई हवाएं रजनी-गंधा सी


काश ! कि यह छोटा उपवन
फ़ैल-फ़ैल जंगल हो जाता
जन-जन का मंगल हो जाता

-आनन्द पाठक--

कविता 01

 आप क्यों उदास रहते हैं ?

अतीत की कोई
अनकही व्यथा दर्द

आंखों में उतर आता है
नीरव आंखो की दो-बूंद
सागर की अतल गहराइयों से
कहीं ज्यादा गहरा
कहीं ज्यादा अगम्य हो जाता है

आप के अंतस का दावानल
सूर्य की तपती किरणों से

कहीं ज्यादा तप्त व दग्ध हो जाता है
उदासी का यह चादर फेंक दे अनंत में
और देखें अनागत वसंत
लहरों का उन्मुक्त प्रवाह
जिन्दगी के सुगंध
जो आप के आस-पास रहते हैं
फिर आप क्यों उदास रहते हैं
आप क्यों उदास रहते हैं

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 30 मार्च 2021

अनुभूतियाँ 07

 
1
प्रेम स्नेह जब रिक्त हो गया
प्रणय-दीप यह जलता कब तक?
रात अभी पूरी बाक़ी है
बिन बाती यह चलता कब तक?
 
2
दुष्कर थीं पथरीली राहें-
हठ था कि तुम साथ चलोगी।
कितना तुम को समझाया था,
हर ठोकर पर हाथ मलोगी।
 
3
जीवन पथ का राही हूँ मैं,
एक अकेला कई रूप में ।
आजीवन चलता रहता हूँ,
कभी छांव में ,कभी धूप में।
 
4
बिना बताए चली गई तुम ,
क्या थी ग़लती,सनम हमारी।
इतना तो बतला कर जाती,
कब तक देखूँ राह तुम्हारी ।
 

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 164

2122--1212--112/22
फ़ाइलातुन--मफ़ा इलुन- फ़ इलुन/ फ़अ’लुन
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़
---   ---------  -----

सच कभी जब  फ़लक से उतरा है
झूट को नागवार  गुज़रा है

बाँटता कौन है चिराग़ों को 
रोशनी पर लगा के पहरा  है

ख़ौफ़ आँखों के हैं गवाही में
हर्फ़-ए-नफ़रत हवा में बिखरा है

आग लगती कहाँ, धुआँ है कहाँ
राज़ यह भी अजीब  गहरा है

खिड़कियाँ बन्द हैं, नहीं खुलतीं
जख्म फिर से तमाम उभरा है

दौर-ए-हाज़िर की यह हवा कैसी?
सच  भी बोलूँ तो जाँ पे ख़तरा है ।

आज किस पर यकीं करे ’आनन’
कौन है क़ौल पर जो ठहरा है ?


-आनन्द.पाठक- 


ग़ज़ल 163

 212---212---212---212

फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन

बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम

--- -----   -------

इश्क़ की राह पर चल दिए हो, अगर

ख़ौफ़ क्यों हो ,भले रास्ता पुरख़तर ?


इत्तिफ़ाक़न कभी  आप आएँ इधर

देखिए ज़ौक़-ए-दिल, मेरी ज़ौक़-ए-नज़र


फिर न आये कभी उम्र भर होश में

देख ले आप को जो कोई भर नज़र


इश्क़ में डूब कर आप भी देखिए

कौन कहता है यह बेसबब दर्द-ए-सर


ये अलग बात है वो न अपना हुआ

उम्र भर जिसको समझा था लख़्त-ए-जिगर


खुद ही चल कर वो आयेंगे दर पर मेरे

मेरी आहों का होगा अगर पुरअसर


तुमने ’आनन’ को देखा, न जाना कभी

उसका सोज़-ए-दुरूँ और रक्स-ए-शरर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

पुरख़तर = ख़तरों से भरा हुआ

ज़ौक़-ए-दिल = दिल की अभिरुचि

ज़ौक़-ए-नज़र = प्रेम भरी दॄष्टि

लख़्त-ए-जिगर - जिगर का टुकड़ा

सोज़-ए-दुरुँ = दिल की आग [प्रेम की]

रक्स-ए-शरर = [प्रेम की] चिंगारियों का नाच 


ग़ज़ल 162


212---212---212---212
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल 162


इक क़लम का सफ़र, उम्र भर का सफ़र,
यूँ  ही चलता रहे,  बेधड़क हो निडर 

बात ज़ुल्मात से जिनको लड़ने की थी
आ गए बेच कर वो नसीब-ए-सहर

जो कहूँ मैं, वो कह,जो सुनाऊँ वो सुन
या क़लम बेच दे, या ज़ुबाँ  बन्द कर 

उँगलियाँ ग़ैर पर तुम उठाते तो हो
अपने अन्दर न देखा, कभी झाँक कर 

तेरी ग़ैरत है ज़िन्दा तो ज़िन्दा है तू
ज़र्ब आने न दे अपनी दस्तार पर

झूठ ही झूठ की है  ख़बर चारसू
पूछता कौन है अब कि सच है किधर?

एक उम्मीद बाक़ी है ’आनन’ अभी
तेरे नग़्मों  का होगा कभी तो असर ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ -
ज़ुल्मात से = अँधेरों से 
सहर        = सुबह 
दस्तार पर = पगड़ी पर, इज्जत पर 
चारसू      = चारो तरफ़


ग़ज़ल 161


1222---1222---1222----1222

मुफ़ाईलुन—मुफ़ाईलुन—मुफ़ाईलुन—मुफ़ाईलुन

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम

 

एक ग़ज़ल होली पर

 

न उतरे ज़िन्दगी भर जोलगा दो रंग होली में,

हँसीं दुनिया नज़र आए , पिला दो भंग होली में ।         

 

न उतरी है न उतरेगीतुम्हारे प्यार की रंगत,

वही इक रंग सच्चा हैन हो बदरंग  होली में ।--          

 

कहीं ’राधा’ छुपी  फिरतीकहीं हैं गोपियाँ हँसतीं,

चली कान्हा कि जब टोलीकरे हुड़दंग होली में ।      

 

’परे हट जा’-कहें राधा-’कन्हैया छोड़ दे रस्ता’

“न कर मुझसे यूँ बरज़ोरीनहीं कर तंग होली में” ।    

 

गुलालों के उड़ें बादलजहाँ रंगों की बरसातें,

वहीं अल्हड़ जवानी के फड़कते अंग होली में ।         

 

थिरकती है कहीं गोरीमचलता है किसी का दिल

बजे डफली मजीरा हैंबजाते चंग होली में ।             

 

सजा कर अल्पना देखूँतुम्हारी राह मैं ’आनन’

चले आओ, मैं नाचूँगीतुम्हारे संग होली  में ।            

 

-आनन्द,पाठक-

 

ग़ज़ल 160


1222---1222---1222--1222
मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
--- --- ---
ख़ुशी मिलती है उनको साजिशों के ताने-बाने में,
छ्लकता दर्द है घड़ियाल-सा आँसू बहाने में।

हिमालय से चली नदियाँ बुझाने प्यास धरती की,
लगे कुछ लोग हैं बस तिश्नगी अपनी बुझाने में।

हवाएँ बरगलाती हैं ,चिरागों को बुझाती हैं,
कि जिनका काम था ख़ुशबू को फ़ैलाना ज़माने में।

हमारे आँकड़े तो देख हरियाली ही हरियाली,
उधर तू रो रहा है एक बस ’रोटी’ बनाने में ?

मिलेगी जब कभी फ़ुरसत, तुम्हें ’रोटी’ भी दे देंगे,
अभी तो व्यस्त हूँ तुमको नए सपने दिखाने में।

जहाँ क़ानून हो अन्धा, जहाँ आदिल भी हो बहरा,
वहाँ इक उम्र कट जाती किसी का हक़ दिलाने में।

अँधेरा ले के लौटे है,हमारे हक़ में वो ’आनन,’
मगर है रोशनी का जश्न उनके आशियाने में ।

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 159

 

बह्र-ए-मुतदारिक मुसद्दस  सालिम
212-----212-----212
फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन

रफ़्ता रफ़्ता कटी ज़िन्दगी

चाहे जैसी बुरी या भली 

 

सर झुकाया न मैने कभी

एक हासिल यही बस ख़ुशी

 

उम्र भर का अँधेरा रहा

चार दिन की रही चाँदनी

 

मैं भी कोई फ़रिश्ता नहीं

कुछ तो मुझ में भी होगी कमी

 

क्यों जलाते नहीं तुम दिया

क्यों बढ़ाते हो बस  तीरगी

 

दिल में हो रोशनी तो दिखे

रब की तख़्लीक़ ,कारीगरी

 

जब से दिल हो गया आइना

करता रहता वही रहबरी

 

दिल में ’आनन’ के आ जाइए

और फिर देखिए आशिक़ी

 

ग़ज़ल 158

 1222---1222---1222--1222

बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम 
मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन
-----------------------------------------------------


जमाने से जमी है बर्फ़ रिश्तों पर, पिघलने दो
निकलती राह कोई है नई, तो फिर निकलने दो

हवाएँ छू के आती हैं तुम्हारा जब कभी आँचल
बदल जाता इधर मौसम, उधर तुम भी बदलने दो

ख़याल-ओ-ख़्वाब हैं, तसवीर है, यादें तुम्हारी हैं
इन्हीं से दिल बहलता है मेरे जानम ! बहलने दो

पता कुछ भी नहीं मुझको किधर यह ले के जाएगा
अगर दिल चल पड़ा राह-ए-मुहब्बत पे,तो चलने दो

वो कह कर तो गया था शाम ढलते लौट आएगा
मुडेरे पर रखा दीया अभी कुछ देर जलने दो

तुम्हारे दर पे आऊँगा सुनाने दास्ताँ अपनी
अभी हूँ वक़्त का मारा ज़रा मुझको सँभलने दो

यक़ीनन कुछ कमी होगी तुम्हारे इश्क़ में ’आनन’
अगर दिल में हवस हो या हसद, उनको निकलने दो

-आनन्द.पाठक--




ग़ज़ल 157

 


मूल बह्र 21--121--121--122 =16

सारी ख़ुशियाँ इश्क़-ए-कामिल
होती हैं कब किसको  हासिल

जब से तुम हमराह हुए हो
साथ हमारे खुद  ही मंज़िल

और तलब क्या होगी मुझको
होंगी अब क्या राहें मुश्किल

प्यार तुम्हारा ,मुझ पे इनायत
वरना यह दिल था किस क़ाबिल

इश्क़ में डूबा पार हुआ वो
फिर क्या दर्या फिर क्या साहिल

शेख ! तुम्हारी बातें कुछ कुछ
क्यों लगती रहतीं है  बातिल

लौट के आजा ”आनन’ अब तो
किस दुनिया में रहता गाफ़िल 

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 156

 2122---1212--112/22
फ़ाइलातुन--मुफ़ाइलुन--फ़अ’  लुन
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दद मख़्बून महज़ूफ़
---   -----   ---

फिर वही इक नया बहाना है
जानता हूँ न तुम को आना है

छोड़िए दिल से खेलना  मेरे
ये खिलौना भी टूट  जाना है

तुम भी आते तो बात बन जाती
आज मौसम भी आशिकाना है

छोड़ कर दर तिरा कहाँ जाऊँ
हर जगह सर नहीं  झुकाना है

आप से और क्या करूँ पर्दा
क्या बचा है कि जो छुपाना है

जिस्म का ये कबा न जायेगा
बाद इसको भी छोड़ जाना है

कौन रुकता है याँ किसी के लिए
एक ही राह सबको जाना है

आज तुमको हूँ अजनबी ’आनन’
राब्ता तो मगर पुराना है 

-आनन्द.पाठक--

कबा = चोला ,लबादा
राब्ता /राबिता= संबंध

ग़ज़ल 155

 221---1222--//221---1222

मफ़ऊलु--मुफ़ाईलुन // मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन
बह्र  हज़ज मुसम्मन अख़रब
या
हज़ज मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुखन्निक़ सालिम अल आख़िर 
---------------------


बेज़ार हुए तुम क्यों, ऐसी भी  शिकायत क्या?
मै अक्स तुम्हारा हूँ, इतनी भी हिक़ारत क्या!   

हर बार पढ़ा मैने, हर बार सुना तुमसे ,
पारीन वही किस्से, नौ हर्फ़-ए-हिक़ायत क्या?   

जन्नत की वही बातें, हूरों से मुलाक़ातें,
याँ हुस्न पे परदा है, वाँ  होगी इज़ाजत क्या?

तक़रीर तेरी ज़ाहिद, मुद्दत से वही बातें,
कुछ और नया हो तो, वरना तो समाअत क्या!

हर दिल में निहाँ हो तुम ,हर शै में फ़रोज़ां  हो,
ऎ दिल के मकीं मेरे! यह कम है क़राबत क्या!

दिल पाक अगर तेरा ,क्यों ख़ौफ़जदा  बन्दे!
सज़दे का दिखावा है? या हक़ की इबादत, क्या?

मसजिद से निकलते ही, फिर रिन्द हुआ ’आनन’,
इस दिल को यही भाया, अब और वज़ाहत क्या!

-आनन्द.पाठक--

 शब्दार्थ
अक्स = परछाई ,प्रतिबिम्ब
हिक़ारत = घॄणा ,नफ़रत
पारीन:   = पुराने
नौ हर्फ़-ए-हिक़ायत = कहानी में कोई नई बात
रिन्द   =  शराबी
तक़रीर = प्रवचन
समाअत  = सुनना
फ़ुरोज़ाँ   = प्रकाशमान,रौशन
क़राबत = नजदीकी
दिल के मकीं  = दिल के मकान में रहने वाला
वज़ाहत = स्पष्टीकरण

ग़ज़ल 154

 212----212----212----212

फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन-फ़ाइलुन
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
----------------------------------

ज़िन्दगी से हमेशा   बग़ावत रही
ज़िन्दगी को भी मुझ से शिकायत रही

कौन-सी शर्त थी जो निभाई नही ?
मेरे ख़्वाबों से फिर क्यूँ अदावत रही ?

राह कोई मुकम्मल न हासिल हुई
मोड़ हर मोड़ पर बस कबाहत रही

अर्श से फ़र्श पर गिर के ज़िन्दा रहे
ज़िन्दगी ये भी तेरी इनायत  रही

रंज-ओ-ग़म हो ख़ुशी हो  कि हो दिल्लगी
मुख़्तसर ज़िन्दगी की हिकायत रही

पास आकर ज़रा बैठ ,ऎ ज़िन्दगी !
उम्र भर तुझ से मिलने की चाहत रही

राह-ए-हक़ पर जो चलना था ’आनन’ तुझे
बुतपरस्ती मगर तेरी आदत रही

-आनन्द.पाठक--

हिकायत = कहानी
कबाहत  = परेशानी
राह-ए-हक़  पर= हक़ीक़ी मार्ग पर
बुतपरस्ती  = सौन्दर्य पूजन ,

ग़ज़ल 153

 ह्र  मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु---फ़ाइलातु----मफ़ाईलु----फ़ाइलुन
221   -----2121-------1221-------212
------------------


दीदार-ए-हक़ में दिल कोअभी ताबदार कर
दिल-नातवाँ को और ज़रा बेक़रार  कर

गुमराह हो रहा है भटक कर इधर उधर
इक राह-ए-इश्क़ भी है वही इख़्तियार कर

कब तक छुपा के दर्द रखेगा तू इस तरह
अब वक़्त आ गया है इसे आशकार  कर

कजरौ ! ये पैरहन भी इनायत किसी की है
हासिल हुआ है गर तुझे तो आबदार कर

हुस्न-ए-बुताँ की बन्दगी गर जुर्म है ,तो है
ऎ दिल ! हसीन  जुर्म  ये  तू बार बार कर

ऐ शेख ! सब्र कर तू , नसीहत न कर अभी
आता हूँ मैकदे से ज़रा इन्तिज़ार  कर

दुनिया हसीन है ,कभी तू देख तो सही
’आनन’ न ख़ुद को हर घड़ी तू अश्कबार कर

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ --


आशकार        = ज़ाहिर
कज रौ  = ऎंठ कर चलनेवाला
पैरहन  = लिबास
आबदार =चमकदार /पानीदार
हुस्न-ए-बुताँ की = हसीनों की
नासेह  = नसीहत करने वाला
अश्कबार           = आँसू बहाना

ग़ज़ल 152

 बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालि,

फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन  -फ़ाइलुन
21 2-------212------212-------212-

चाहे ग़म था ,ख़ुशी थी ,कटी ज़िन्दगी
लड़खड़ाती संभलती  रही ज़िन्दगी 

दाँव पर दाँव चलती रही ज़िन्दगी
शर्त हारे कभी हम ,कभी  ज़िन्दगी 

वक़्त ने कब नहीं आजमाया मुझे
साथ छोड़ी नहीं  पर कभी  ज़िन्दगी 

तेरे आदाब क्या हैं ,पता ही नहीं
आज तू ही बता दे मेरी ज़िन्दगी 

अपनी हिम्मत को हमने न मरने दिया
आंधियॊ से भी लड़ती रही ज़िन्दगी 

तेरे घर तक को जाने के सौ  रास्ते 
प्यार की राह बस चल पड़ी ज़िन्दगी

हैफ़ ! ’आनन’ तू ख़ुद से ही गाफ़िल रहा
वरना हर रंग में थी रँगी ज़िन्दगी   

-आनन्द.पाठक-


हैफ़ = अफ़सोस

ग़ज़ल 151

 ह्र  मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु---फ़ाइलातु----मफ़ाईलु----फ़ाइलुन
221   -----2121-------1221-------212
----------------------

आई इधर ख़बर नई कल हुक्मरान से ,
"टी0वी0 पे जो दिखा रहे हैं देख ध्यान से "।

सच बोलना मना है, सियासत का हुक्म है,
कर दूँ जुबान बन्द कि जायेगा जान से ?

खूरेज़ हो रही कहो आदम की नस्ल क्यों ?
क्या है यही नविश्त, मिटेगी जहान से ?

ग़मनाक हो रही है ख़ुदाई तेरी , ख़ुदा !
तू देखता तो होगा कभी आसमान से

जंग-ओ-जदल से कुछ नहीं हासिल हुआ कभी,
निकलेगा कोई रास्ता अम्न-ओ-अमान से ।

हर शख़्स मोतबर नहीं , ना ही अमीन है ,
इक दिन मुकर वो जाएगा अपनी जुबान से ।

’आनन’ तेरे जमीर से हासिल हुआ भी क्या ?
कुछ हैं जमीर बेच के रहते हैं  शान से

-आनन्द पाठक-
 शब्दार्थ
ग़मनाक  = कष्ट्पूर्ण
ख़ूरेज़ = खून बहाने वाला ,ख़ूनी
नविश्त = [भाग्य ] लेख
जंग-ओ-जदल से =युद्ध से
अम्न-ओ-अमन  = शान्ति से
मोतबर  = विश्वस्त
अमीन  =ईमानदार

ग़ज़ल 150

 221---2121---1221-----212

बह्र-ए-मुज़ारे  मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मह्ज़ूफ़
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु------मफ़ाइलु---फ़ाइलुन
------------------

ग़ज़ल 150 फ़ुरसत कभी मिलेगी ---

फ़ुरसत कभी मिलेगी जो कार-ए-ज़हान से ,
आऊँगा तेरे दर पे कभी इतमिनान  से  ।   

हुस्न-ओ-जमाल का भले दीदार हो न हो ,
ख़ुशबू चलो कि आ रही तेरे मकान  से ।

अपनी अना में ख़ुद ही गिरफ़्तार हो गया ,
निकला भी नहीं था  अभी गर्द-ए-गुमान से ।

ये दर्द बेसबब तो नहीं , जानता है तू  ,
वाक़िफ़ नहीं तू क्या मिरे आह-ओ-फ़ुगान से ?

तौफ़ीक़ दे ख़ुदा कि मैं बाहर निकल सकूँ  ,
हर रोज़ ज़िन्दगी के कड़े  इम्तिहान  से  ।

जो भी है मेरा दर्द  तेरे सामने रहा ,
मैं क्या बयान खुद करूँ अपनी ज़ुबान से ।

बस भाग दौड़ में रहा ’आनन’ तू मुब्तिला ,
बेरब्त हो गया है तू दीन-ओ-इमान  से     ।

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
कार-ए-जहान  से=  दुनिया के कामों से
हुस्न-ओ-जमाल का = रूप सौन्दर्य का
अना = अहम ,घमंड
गर्द-ए-गुमान = ग़लत धारणा के गर्द से
आह-ओ-फ़ुगान  से= आर्तनाद से
त्तौफ़ीक़ दे  = शक्ति दे
मुब्तिला       =ग्रस्त
बेरब्त  = असंबद्ध

ग़ज़ल 149

 ह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम

मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन--मफ़ाइलुन
1222-------1222------1222-----1222
-----------------------


मुहब्बत जाग उठी दिल में ,ख़ुदा की यह इनायत है ,
इसे रुस्वा नहीं करते ,अक़ीदत है , इबादत है    ।

जफ़ा वो कर रहें मुझ पर ,दुआ भी कर रहें मेरी ,
ख़ुदा जाने इरादा क्या ,ये नफ़रत है कि उल्फ़त है ?

मरासिम ही  निभाने हैं ’हलो’ या ’हाय’ ही कह कर ,
अगर वाज़िब समझते हो ,हमें फिर क्या शिकायत है ।

ज़माने की हवाओं से  मुतस्सिर हो गए तुम भी ,
न अब वो गरमियाँ बाक़ी न पहली सी रफ़ाक़त है । 

कहाँ ले कर मैं जाऊँगा  ,ये अपना ग़म तुम्हीं कह दो ,
तुम्हारा दर ही काबा है ,यही अपनी ज़ियारत है  ।  

रकीबों के इशारों पर ,नज़र क्यों फेर ली तुम ने?
हमीं से पूछ लेते  तुम -’ कहो ! क्या क्या शिकायत है ?’ 

इधर मैं जाँ ब लब ’आनन’ उधर वो रंग-ए-महफ़िल में ,
यही हासिल मुहब्बत का , हसीनों की  रवायत है  ।   

-आनन्द.पाठक-


मरासिम - रस्में
मुतासिर = प्रभावित
रफ़ाक़त =दोस्ती
जाँ ब लब = मरणासन्न स्थिति

ग़ज़ल 148

 ह्र - मुतदारिक मुसम्मन सालिम मुज़ाअफ़ 

फ़ाइलुन ---[8-बार ]
212---212---212---212--212--212--212--212
-----------------------

ग़ज़ल 148 : ज़िन्दगी ना हमारी हुई आजतक ---

ज़िन्दगी ना हमारी हुई आजतक ,और हम ना  कभी ज़िन्दगी के हुए     ,
अपनी शर्तों पे जीते रहे उम्र भर ,दिल को इस में ख़ुशी थी, ख़ुशी के हुए ।

धूप मुट्ठी में कब बाँध पाया कोई ,जो कि तुम अब चले हो इसे बाँधने   ,
इस भरम में रहे मुबतिला उम्र भर ,गुमरही में रहे  बेदिली  के हुए  ।

झूठ की राह में सच मिलेगा नहीं ,और सच से तुम्हें वास्ता भी नहीं ,
तुम तमाशा दिखाते रहे बारहा और हम थे कि क़ायल उसी के हुए  ।

’आप’ लाने को सूरज गए थे कभी ,हाथ में एक परचम नया जोश था ,
राह में ’एक कुरसी दिखी ’आप’ को  ,छोड़ कर रोशनी ,तीरगी के हुए ।

हैं बहारें ,फ़िज़ाएँ ,चमन और भी ,रोशनी के मनाज़िर नए और भी ,
तुम अँधेरों से यारी निभाते रहे ,लाख चाहा ,न तुम रोशनी के हुए  ।

आलम-ए-खाक दिल रहा अजनबी ,हम भटकते रहे बस इधर से उधर ,
इक जज़ा की तमन्ना रही साथ में ,रफ़्ता रफ़्ता रह-ए-आगही के हुए    ।

तुम में ’आनन’ यही बस बुरी बात है ,राह चलते कहीं जो कोई मिल गया  ,
कुछ भी देखा नहीं ,कुछ भी जाना नहीं ,प्यार से जो मिला तुम उसी के हुए  ।



आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 147

  बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़

2122---1212---22
फ़ाइलातुन---मफ़ाअ’लुन--फ़अ’ लुन
------------------


बात दिल पे लगा के बैठे हैं
हाय ! वो ख़ार खा के बैठे हैं

ज़ख़्म-ए-दिल हम दिखा रहें हैं इधर
वो उधर मुँह फ़ुला के बैठे हैं

ग़ैर को आप का करम हासिल
सोज़-ए-दिल हम दबा के बैठे हैं

देखते हैं कि क्या असर उन पर ?
हाल-ए-दिल हम सुना के बैठे हैं

रुख़ से पर्दा ज़रा हटा उनका
होश हम तो गँवा के बैठे हैं

राह-ए-दिल से कभी वो गुज़रेंगे
हम इधर सर झुका के बैठे हैं

इश्क़ में होश ही कहाँ ’आनन’
खुद ही ख़ुद को भुला के बैठे हैं

-आनन्द,पाठक---

शब्दार्थ
सोज़-ए-दिल = दिल की आग प्रेम की
                  = प्रेमाग्नि

ग़ज़ल 146

 बह्र-ए-मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़

मफ़ऊलु---्फ़ाअ’लातु---मफ़ाईलु-- फ़ाअ’लुन
221---------2121---------1221-------2 1 2


क़ातिल के हक़ में लोग रिहाई में आ गए
अंधे  भी   चश्मदीद   गवाही   में  आ गए

तिनका छुपा हुआ  है जो  दाढ़ी  में आप के
पूछे बिना ही आप सफ़ाई  मे आ गए

कुर्सी का ये असर है कि जादूगरी कहें
जो राहज़न थे  राहनुमाई में  आ गए

अच्छे दिनों के ख़्वाब थे आँखों में पल रहे
आई वबा तो दौर-ए- तबाही में आ गए

मुट्ठी में इन्क़लाब था सीने में जोश था
वो सल्तनत की पुश्तपनाही में आ गए

बस्ती जला के सेंक सियासत की रोटियाँ
मरहम लिए वो रस्म निबाही में आ गए

ऐ राहबर ! क्या ख़ाक तेरी रहबरी रही
हम रोशनी में थे कि सियाही में आ गए

’आनन’ तू खुशनसीब है पगड़ी तो सर पे है
वरना तो लोग बेच कमाई में आ गए

-आनन्द.पाठक-

वबा = महामरी
पुश्तपनाही = पॄष्ठ-पोषण,हिमायत
सियाही में = अँधेरे में
मरहम     = मलहम

ग़ज़ल 145

 फ़’लुन--फ़े’लुन---फ़े’लुन --फ़े’लुन

122---122------122----122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
-------------------


लगे दाग़ दामन पे , जाओगी कैसे ?
बहाने भी क्या क्या ,बनाओगी कैसे ?

चिराग़-ए-मुहब्बत बुझा तो रही हो
मगर याद मेरी मिटाओगी  कैसे ?

शराइत हज़ारों यहाँ ज़िन्दगी  के
भला तुम अकेले निभाओगी कैसे ?

नहीं जो करोगी  किसी पर भरोसा
तो अपनो को अपना बनाओगी कैसे ?

रह-ए-इश्क़ मैं सैकड़ों पेंच-ओ-ख़म है
गिरोगी तो ख़ुद को उठाओगी कैसे ?

कहीं हुस्न से इश्क़ टकरा गया तो
नज़र से नज़र फिर मिलाओगी कैसे ?

कभी छुप के रोना ,कभी छुप के हँसना
ज़माने से कब तक  छुपाओगी कैसे ?

अगर पास में हो न ’आनन’ तुम्हारे
तो शाने पे सर को टिकाओगी कैसे ?

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 144

 2122---2122----2122-----2122

फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसम्मन सालिम 
-----------------


रोशनी मद्धम नहीं करना अभी संभावना है
 कुछ अभी बाक़ी सफ़र है तीरगी से सामना है

यह चराग़-ए-इश्क़ मेरा कब डरा हैंआँधियों से
रोशनी के जब मुक़ाबिल धुंध का बादल घना है

लौट कर आएँ परिन्दे शाम तक इन डालियों पर
इक थके बूढ़े शजर की आखिरी यह कामना है

हो गए वो दिन हवा जब इश्क़ थी शक्ल-ए-इबादत
कौन होता अब यहाँ राह-ए-मुहब्बत में फ़ना है

जाग कर भी सो रहे हैं लोग ख़ुद से  बेख़बर भी
है जगाना लाज़िमी ,आवाज देना कब मना है

आदमी से जल गया है ,भुन गया है आदमी जो
आदमी का आदमी ही हमसुखन है ,आशना है

दस्तकें देते रहो तुम हर मकां के दर पे’आनन’
आदमी में आदमीयत जग उठे संभावना है

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 143

 212----212-----212-----212

फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
-----------------------------------------


आइने आजकल ख़ौफ़ खाने लगे
पत्थरों  से डरे , सर  झुकाने लगे

रुख हवा की जिधर ,पीठ कर ली उधर
राग दरबारियों  सा है गाने लगे

हादिसा हो गया ,इक धुआँ सा उठा
झूठ को सच बता कर दिखाने लगे

हम खड़े हैं इधर,वो खड़े सामने
अब मुखौटे नज़र साफ़ आने लगे

वो तो अन्धे नहीं थे मगर जाने क्यूँ
रोशनी को अँधेरा बताने  लगे

जब भी मौसम चुनावों का आया इधर
दल बदल लोग करने कराने लगे

अब तो ’आनन’ न उनकी करो बात तुम
जो क़लम बेंच कर मुस्कराने लगे

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 142

 


आप से क्या मिले ,फिर न ख़ुद से मिले
उम्र भर को मिले दर्द के  सिलसिले

वो निगाहे झुकीं, फिर उठीं. फिर झुकीं
ख़्वाब दिल में न पूछो कि क्या क्या खिले

तुम गले से लगा लो अगर प्यार से
दूर हो जाएँगे सारे शिकवे  गिले

उसने नफ़रत से आगे पढ़ा ही नहीं
फिर दिलों के मिटेंगे  कहाँ फ़ासिले

’क़ौल’ उनके हैं  कुछ और ’नीयत’ है कुछ
जाने लेकर चले वो किधर क़ाफ़िले

बोलना लाज़िमी था ,ज़रूरी जहाँ
होंठ अपने वहीं लोग क्यों थे सिले ?

 प्यार ’आनन’ लुटाते चलो राह में
क्या पता ज़िन्दगी फिर मिले ना मिले

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 141

 2122---1212--112/22


गर्द दिल से अगर उतर जाए
ज़िन्दगी और भी  निखर जाए

कोई दिखता नहीं  सिवा तेरे
दूर तक जब मेरी नज़र जाए

तुम पुकारो अगर मुहब्बत से
दिल का क्या है ,वहीं ठहर जाए

डूब जाऊँ तेरी निगाहों में
यह भी चाहत कहीं न मर जाए

एक हसरत तमाम उम्र रही
मेरी तुहमत न उसके सर जाए

ज़िन्दगी भर हमारे साथ रहा
आख़िरी वक़्त ग़म किधर जाए

वो मिलेगा तुझे ज़रूर ’आनन’
एक ही राह से अगर जाए

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 140

 212---212---212---212

फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
---------

एक ग़ज़ल : आदमी का कोई अब---

आदमी का कोई अब भरोसा नहीं
वह कहाँ तक गिरेगा ये सोचा नहीं

’रामनामी’ भले ओढ़ कर घूमता
कौन कहता है देगा  वो धोखा नहीं

प्यार की रोशनी से वो महरूम है
खोलता अपना दर या दरीचा नहीं

उनके वादें है कुछ और उस्लूब कुछ
यह सियासी शगल है अनोखा नहीं

या तो सर दे झुका या तो सर ले कटा
उनका फ़रमान शाही सुना या नहीं ?

मुठ्ठियाँ इन्क़लाबी उठीं जब कभी
ताज सबके मिले ख़ाक में क्या नहीं ?

जुल्म पर आज ’आनन’ अगर चुप रहा
फिर कोई तेरे हक़ में उठेगा नहीं

-आनन्द.पाठक--

उस्लूब = तर्ज-ए-अमल, आचरण

ग़ज़ल 139

 212---212---22

फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़े’लुन
बह्र-ए-मुतदारिक मुसद्दस मक़्तूअ’ अल आख़िर 
---------------



दिल में  इक अक्स जब उतरा
दूसरा  फिर कहाँ  उभरा

बारहा दिल मेरा  टूटा
टूट कर भी नहीं बिखरा

कौन वादा निभाता  है
 कौन है क़ौल पर ठहरा ?

शम्मअ’ हूँ ,जलना क़िस्मत में
क्या चमन और क्या सहरा

इश्क़ करना गुनह क्यों है ?
इश्क़ पर क्यों कड़ा पहरा

आजतक मैं नहीं समझा
इश्क़ से और क्या गहरा ?

है ख़बर अब कहाँ ’आनन’
वक़्त गुज़रा नहीं  गुज़रा

-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
बारहा = बार बार

ग़ज़ल 138

 मूल बहर  112---112---112---112-

फ़अ’लुन ----फ़अ’लुन---फ़अ’लुन--फ़अ’लुन
बहर-ए-मुतदारिक मुसम्मन मख़्बून 
-----


दिल ख़ुद ही तुम्हारा आदिल है
समझो क्या सच क्या बातिल है

उँगली तो उठाना  है   आसाँ
पर कौन यहाँ कब कामिल है

टूटी कश्ती, हस्ती मेरी
दरिया है ,ग़म है, साहिल है

मक़्रूज़ रहा है दिल अपना
कुछ तेरी दुआ भी  शामिल है

इक तेरा तसव्वुर है दिल में
दिल हुस्न-ओ-अदा में गाफ़िल है

कुछ और नशीली कर आँखें
खंजर ये तेरा नाक़ाबिल  है

इस वक़्त-ए-आख़िर में ’आनन’
जो हासिल था ,लाहासिल है

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
बातिल =असत्य ,झूठ
मक़्रूज़  = ऋणी ,कर्ज़दार
लाहासिल= व्यर्थ ,बेकार

ग़ज़ल 137

 212---212----212----212-

 फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ैलुन
-------------


क्या कहूँ मैने किस पे कही  है ग़ज़ल
सोच जिसकी थी जैसी सुनी है ग़ज़ल

दौर-ए-हाज़िर की हो रोशनी या धुँआ
सामने आइना  रख गई है  ग़ज़ल 

लोग ख़ामोश हैं खिड़कियाँ बन्द कर
राह-ए-हक़ मे खड़ी थी ,खड़ी है ग़ज़ल

वो तक़ारीर नफ़रत पे करते रहे
प्यार की लौ जगाती रही है ग़ज़ल

मीर-ओ-ग़ालिब से चल कर है पहुँची यहाँ
कब रुकी या  झुकी कब थकी है  ग़ज़ल ?

लौट आओगे तुम भी इसी राह पर
मेरी तहज़ीब-ए-उलफ़त बनी है ग़ज़ल

आज ’आनन’ तुम्हारा ये तर्ज़-ए-बयां
बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ बन गई है ग़ज़ल

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
तक़ारीर = प्रवचन [तक़रीर का ब0व0]

ग़ज़ल 136



1222---1222---1222---1222

तुम्हारे हुस्न से जलतीं हैं ,कुछ हूरें  भी जन्नत में,
ये रश्क़-ए-माह-ए-कामिल है,फ़लक जलता अदावत में ।

तेरी उल्फ़त ज़ियादा तो मेरी उलफ़त है क्या कमतर ?
ज़ियादा कम का मसला तो नहीं होता है उल्फ़त में ।

पहाडों से चली नदियाँ बना कर रास्ता अपना ,
तो डरना क्या  ,फ़ना होना है जब राह-ए-मुहब्बत में ।

वही आदत पुरानी है तुम्हारी आज तक ,जानम !
गँवाया वक़्त मिलने का ,गिला शिकवा शिकायत में ।

चिराग़ों को मिला करती हवाओं से सदा धमकी ,
नहीं डरते, नहीं बुझते, ये शामिल उनकी आदत में ।

उन्हें भी रोशनी देगी जो थक कर हार कर बैठे ,
मेरा जब ज़िक्र आयेगा ज़माने की हिकायत में ।

जहाँ सर झुक गया ’आनन’ वहीं काबा,वहीं काशी ,
वो खुद ही आएँगे चलकर बड़ी ताक़त मुहब्बत में ।

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 135

 फ़ऊलुन---फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन

122-------122------122-------122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
--------------


तेरे हुस्न की  सादगी  का असर है
न मैं होश में हूँ ,न दिल की ख़बर है

यूँ चेहरे से पर्दा   गिराना ,उठाना
इसी दम से होता है शाम-ओ-सहर है

सवाब-ओ-गुनह का मै इक सिलसिला हूँ
अमलनामा भी तेरी ज़ेर-ए-नज़र है

गो पर्दे में  है  हुस्न  फिर भी  नुमायाँ
कि रोशन है ख़ुरशीद,रश्क-ए-क़मर है

जो जीना है जी ले हँसी से , ख़ुशी से
मिली जिन्दगी है ,भले मुख़्तसर  है

क़यामत से पहले क़यामत है बरपा
वो बल खा के, लहरा के आता इधर है

नवाज़िश बड़ी आप की है  ये,साहिब !
जो पूछा कि ’आनन’ की क्या कुछ ख़बर है ?

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 134

 फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन

122-------122------122------122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम 

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नहीं जानता  कौन हूँ ,मैं कहाँ हूँ
उन्हें ढूँढता मैं  यहाँ   से वहाँ  हूँ

तुम्हारी ही  तख़्लीक़ का आइना बन
अदम से हूँ निकला वो नाम-ओ-निशाँ हूँ

बहुत कुछ था कहना ,नहीं कह सका था
उसी बेज़ुबानी का तर्ज़-ए-बयाँ  हूँ

तुम्हीं ने बनाया , तुम्हीं  ने मिटाया
जो कुछ भी हूँ मैं बस इसी दरमियाँ  हूँ

मेरा दर्द-ओ-ग़म क्यों सुनेगा ज़माना
अधूरी  मुहब्बत की  मैं दास्ताँ  हूँ

न देखा ,न जाना ,सुना ही सुना है
उधर वो निहां है ,इधर मैं अयाँ  हूँ

ये मेरा तुम्हारा वो रिश्ता है ’आनन’
अगर तुम ज़मीं हो तो मैं आसमाँ  हूँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
तुम्हारी ही तख़्लीक़ = तुम्हारी ही सॄष्टि / रचना
अदम से     = स्वर्ग से
निहाँ है     = अदॄश्य है /छुपा है
अयाँ  हूँ        = ज़ाहिर हूँ /प्रगट हूँ/सामने हूँ

ग़ज़ल 133

 


2122--        -1212--     --22
फ़ाइलातुन---मफ़ाइलुन---फ़े’लुन


मेरे जानाँ ! न आज़मा  मुझको
जुर्म किसने किया ,सज़ा मुझको

ज़िन्दगी तू ख़फ़ा ख़फ़ा क्यूँ है ?
क्या है मेरी ख़ता ,बता  मुझको

यूँ तो कोई नज़र नहीं  आता
कौन फिर दे रहा सदा मुझको

नासबूरी की इंतिहा क्या  है
ज़िन्दगी तू ही अब बता मुझको

होश फिर उम्र भर  नहीं आए
जल्वाअपना  कभी दिखा मुझको

मैं निगाहें  मिला सकूँ उनसे
इतनी तौफ़ीक़ दे ख़ुदा मुझको

उनका होना भी है बहुत ’आनन’
देता जीने का हौसला मुझको

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
नासबूरी =अधीरता ,ना सब्री
तौफ़ीक़ =शक्ति,सामर्थ्य

ग़ज़ल 132

 122---122---122---122

फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम

---------


भले ज़िन्दगी से  हज़ारों शिकायत
जो कुछ मिला है उसी की इनायत

फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम

ये हस्ती न होती ,तो होते  कहाँ सब
फ़राइज़ , शराइत ,ये रस्म-ओ-रिवायत

कहाँ तक मैं समझूँ ,कहाँ तक मैं मानू
ये वाइज़ की बातें  वो हर्फ़-ए-हिदायत

न पंडित ,न मुल्ला ,न राजा ,न गुरबा
रह-ए-मर्ग में ना किसी को रिआयत

मेरी ज़िन्दगी ,मत मुझे छोड़ तनहा
किसे मैं सुनाऊँगा अपनी हिकायत

निगाहों में उनके लिखा जो पढ़ा तो
झुका सर समझ कर मुहब्बत की आयत

बुरा मानने की नहीं बात ,’आनन’
है जिससे मुहब्बत ,उसी से शिकायत

-आनन्द.पाठक--

शब्दार्थ
फ़राइज़  = फ़र्ज़ का ब0व0
शराइत = शर्तें [ शर्त का ब0व0]
रह-ए-मर्ग  = मृत्यु पथ पर [ मौत की राह में ]
अपनी हिकायत  = अपनी कथा कहानी
आयत  = कलमा-ए-क़ुरान [ की तरह पाक] -

ग़ज़ल 131

 


2122---2122---212

झूठ इतना इस तरह  बोला  गया
सच के सर इलजाम सब थोपा गया

झूठ वाले जश्न में डूबे  रहे -
और सच के नाम पर रोया गया

वह तुम्हारी साज़िशें थी या वफ़ा
राज़ यह अबतक नहीं खोला गया

आइना क्यों देख कर घबरा गए
आप ही का अक्स था जो छा गया

कैसे कह दूँ तुम नहीं शामिल रहे
जब फ़ज़ा में ज़ह्र था घोला गया

बेबसी नाकामियों के नाम पर
ठीकरा सर और के फ़ोड़ा गया

हो गई ज़रख़ेज़ ’आनन’ तब ज़मीं
प्यार का इक पौध जब रोपा गया

-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 29 मार्च 2021

ग़ज़ल 130

 221----2122---// 221--2122


’क़ानून की नज़र में ,सब एक हैं ’-बता कर
रखते रसूख़वाले  , पाँवो  तले दबा कर

कल तक जहाँ खड़ा था ,"बुधना" वहीं खड़ा है
लूटा है रहबरों  ने,सपने  दिखा दिखा  कर

जब आम आदमी की आँखों में हों शरारे
कर दे नया सवेरा ,सूरज नया  उगा कर

क्या सोच कर गए थे ,तुम आइना दिखाने
अंधों की बस्तियों  से , आए फ़रेब खा कर

जब दल बदल बदल कर! हासिल हुई हो कुरसी
 फिर दीन क्या धरम क्या ,ईमान जब लुटा कर

उनका लहू बदन का ,अब हो गया है पानी
रखते ज़मीर अपना ,’संसद’ में हैं सुला कर

रखना इसे बचा कर ,यह देश है हमारा
सींचा सभी ने इसको ,अपना लहू बहा कर

’आनन’ ज़मीर तेरा ,अब तक नहीं मरा है
रखना इसे तू ज़िन्दा ,गर्दिश में भी  बचा कर

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 129

 2122---2122---2122

फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसद्दस सालिम
--------------------------


दुश्मनी कब तक निभाओगे कहाँ तक  ?
आग में खुद को जलाओगे  कहाँ  तक  ?

है किसे फ़ुरसत  तुम्हारा ग़म सुने जो
रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक ?

नफ़रतों की आग से तुम खेलते हो
पैरहन अपना बचाओगे  कहाँ  तक ?

रोशनी से रोशनी का सिलसिला है
इन चरागों को बुझाओगे कहाँ  तक ?

ताब-ए-उलफ़त से पिघल जाते हैं पत्थर
अहल-ए-दुनिया को बताओगे कहाँ  तक ?

सब गए हैं ,छोड़ कर जाओगे तुम भी
महल अपना ले के जाओगे कहाँ  तक ?

जाग कर भी सो रहे हैं लोग , कस्दन
तुम उन्हें ’आनन’ जगाओगे कहाँ  तक ?

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
पैरहन = लिबास ,वस्त्र
ताब-ए-उलफ़त से = प्रेम की तपिश से
अहल-ए-दुनिया को = दुनिया के लोगों को
राह-ए-हक़ हूँ    = सत्य के मार्ग पर हूँ
क़सदन            = जानबूझ कर

प्र0

ग़ज़ल 128

 212---212---22

फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़अ’लुन
बह्र-ए-मुत्दारिक मुसद्दस सालिम मक़्तूअ’
-----

इश्क़ करना ख़ता क्यों है ?
इश्क़ है तो छुपा  क्यों है ?

जाविदाँ हुस्न है  उनका
इश्क़ फिर नारवा क्यों है?

बाब-ए-दिल गर खुला है तो
लौट आती सदा क्यों है ?

ज़िन्दगी बस बता मुझको
बेसबब तू ख़फ़ा क्यों है ?

आब-ओ-गिल से बने हम तुम
रंग अपना जुदा क्यों है ?

इश्क़ भी क्या अजब शै है
रोज़ लगता नया क्यों  है ?

रस्म-ए-उल्फ़त निभाता हूँ
फिर भी ’आनन’ बुरा क्यों है ?

-आनन्द.पाठक-
प्र

शब्दार्थ
बाब-ए-दिल = हृदय पटल
जाविदाँ हुस्न = अनश्वर सौन्दर्य
नारवा       = जो रवा न हो ,अनुचित
आब-ओ-गिल से = पानी-मिट्टी से

ग़ज़ल 127

 21----121---121---122

बह्र-ए-मुतक़ारिब असरम मक़्बूज़  मक़्बूज़ सालिम
-----------


सब को अपनी अपनी पड़ी है
मन-आँगन  दीवार  खड़ी  है

अच्छे दिन कैसे आएँगे  ?
सत्ता ही जब ख़ुद लँगड़ी  है

राह नुमाई  क्या करता ,वो
नाक़ाबिल है ,सोच सड़ी  है

कैसे उतरे चाँद  गगन  से ?
राहू-छाया द्वार  खड़ी   है

बिन व्याही बेटी के बापू
गिरवी में  रख्खी  पगड़ी  है

झूटे वादों से न बुझेगी
आग उदर की, भूख बड़ी है

सच पर पहरेदारी ’आनन’
पाँवों  में जंजीर पड़ी  है

-आनन्द.पाठक-
प्र

ग़ज़ल 126

 1222---1222---1222---1222

मुफ़ाईलुन--मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
-------------------------------

मैं अपना ग़म सुनाता हूँ ,वो सुन कर मुस्कराते हैं
वो मेरी दास्तान-ए-ग़म को ही नाक़िस बताते हैं

बड़े मासूम नादाँ हैं  ,खुदा कुछ अक़्ल दे उनको
किसी ने कह दिया "लव यू" ,उसी पर जाँ लुटाते हैं

ख़ुशी अपनी जताते हैं ,हमें किन किन अदाओं से
हमारी ही ग़ज़ल खुद की बता, हमको सुनाते हैं

तुम्हारे सामने हूँ मैं , हटा लो यह निक़ाब-ए-रुख
कि ऐसे प्यार के मौसम कहाँ हर रोज़ आते हैं

गिला करते भला किस से ,तुम्हारी बेनियाज़ी का
यहाँ पर कौन सुनता है ,सभी अपनी सुनाते हैं

तसव्वुर में हमेशा ही तेरी तस्वीर रहती है
हज़ारों रंग भरते हैं, बनाते हैं , सजाते हैं

दिल-ए-सदचाक पर मेरे सितम कुछ और कर लेते
समझ जाते वफ़ा क्या चीज है , कैसे निभाते हैं

मुहब्बत का दिया रख दर पे उनके आ गया ’आनन’
कि अब यह देखना है वो बचाते  या बुझाते हैं

-आनन्द.पाठक--
p
शब्दार्थ
नाक़िस = बेकार ,व्यर्थ
दिल-ए-सद चाक = विदीर्ण हृदय

ग़ज़ल 125

 2122-----1222

फ़ाअ’लातुन---मुफ़ाईलुन
बह्र-ए-मुशाकिल मुरब्ब: सालिम
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ग़ज़ल :  जान-ए-जानाँ से क्या माँगू

जान-ए-जानां से  क्या  माँगू
दर्द-ए-दिल की दवा माँगू

हुस्न उनका क़यामत है
दाइमी की  दुआ  माँगू

क़ैद हूँ जुर्म-ए-उल्फ़त में
उम्र भर की सज़ा  माँगू

ज़िन्दगी भर नहीं  उतरे
इश्क़ का वह नशा माँगू

सादगी  से  मुझे  लूटा
वो ही तर्ज-ए-अदा माँगू

आप की बस इनायत हो
आप से और क्या माँगू

हमसफ़र आप सा ’आनन’
साथ मैं  आप का माँगू

-आनन्द.पाठक-
p

ग़ज़ल 124

 1222---1222---1222---122
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---फ़ऊलुन
---   ----   ---  

सलामत पाँव है जिनके वो कन्धों पर टिके हैं
जो चल सकते थे अपने दम ,अपाहिज से दिखे हैं

कि जिनके कद से भी ऊँचे "कट-आउट’ हैं नगर में
जो भीतर झाँक कर देखा बहुत नीचे गिरे हैं

बुलन्दी आप की माना कि सर चढ़  बोलती  है
मगर ये क्या कि हम सब  आप को बौने  दिखे हैं

ये "टुकड़े गैंग" वाले हैं फ़क़त मोहरे  किसी के
सियासी चाल है जिनकी वो पर्दे में छुपे  हैं

कहीं नफ़रत,कहीं दंगे ,कहीं अंधड़ ,हवादिस
मुहब्बत के चरागों को बुझाने  पर अड़े  हैं

हमारे साथ जो भी थे चले पहुँचे कहाँ तक
हमें भी सोचना होगा, कहाँ पर हम रुके हैं

धुले हैं दूध के ’आनन’ समझते  थे जिन्हें तुम
वही कुछ लोग हैं जो चन्द सिक्कों में बिके हैं

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

ग़ज़ल 123

 मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन  // मफ़ऊलु---मफ़ाईलुन

221--1222  //  221---1222


साज़िश थी अमीरों की ,फाईल में दबी होगी
दो-चार मरें होंगे  ,’कार ’ उनकी  चढ़ी  होगी

’साहब’ की हवेली है ,सरकार भी ताबे’ में
इक बार गई ’कम्मो’ लौटी न कभी  होगी

आँखों का मरा पानी , तू भी तो मरा होगा
आँगन में तेरे जिस दिन ’तुलसी’ जो जली होगी

पैसों की गवाही से ,क़ानून खरीदेंगे
इन्साफ़ की आँखों पर ,पट्टी जो बँधी होगी

इतना ही समझ लेना ,कल ताज नहीं होगा
मिट्टी से बने तन पर ,कुछ ख़ाक पड़ी होगी

मौला तो नहीं  हो तुम  ,मैं भी न फ़रिश्ता हूँ
इन्सान है हम दोनों ,दोनों में  कमी होगी

गमलों की उपज वाले ,ये बात न समझेंगे
’आनन’ ने कहा सच है ,तो बात लगी होगी

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

ग़ज़ल 122

हुस्न हर उम्र में जवाँ देखा

इश्क़ हर मोड़ पे अयाँ  देखा

एक चेहरा जो दिल में उतरा है
वो ही दिखता रहा जहाँ देखा

इश्क़ तो शै नहीं तिजारत की
आप ने क्यों नफ़ा ज़ियाँ  देखा ?

और क्या देखना रहा बाक़ी
तेरी आँखों में दो जहाँ देखा

बज़्म में थे सभी ,मगर किसने
दिल का उठता हुआ धुआँ देखा ?

हुस्न वालों की बेरुख़ी  देखी
इश्क़ वालों  को लामकां देखा

सर ब सजदा हुआ वहीं’आनन’
दूर से उनका आस्ताँ देखा

-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 121

     221--  --1222           //221--      1222

       मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन    // मफ़ऊलु---मफ़ाईलुन

सपनों को रखा  गिरवी, साँसों पे उधारी है
क़िस्तों में सदा हमने ,यह उम्र  गुज़ारी  है

हर सुब्ह रहे ज़िन्दा , हर शाम रहे मरते
जितनी है मिली क़िस्मत ,उतनी ही हमारी है

अबतक है कटी जैसे, बाक़ी भी कटे वैसे
सदचाक रही हस्ती ,सौ बार सँवारी  है

जब से है उन्हें देखा, मदहोश हुआ तब से
उतरा न नशा अबतक, ये कैसी ख़ुमारी  है

दावा तो नहीं करता, पर झूठ नहीं यह भी
जब प्यार न हो दिल में, हर शख़्स भिखारी है

देखा तो नहीं लेकिन, सब ज़ेर-ए-नज़र उसकी
जो सबको नचाता है, वो कौन मदारी  है ?

जैसा भी रहा मौसम, बिन्दास जिया ’आनन’
दिन और बचे कितने, उठने को सवारी है

-आनन्द.पाठक-

[सं 18-05-19]

ग़ज़ल 120

बह्र-ए-मुज़ारिअ’ अख़रब मकफ़ूफ़ मुख़्न्निस सालिम अल आखिर
 221---2122  //221--2122
मफ़ऊलु---फ़ा इलातुन--// मफ़ऊलु--फ़ा इलातुन
--------

 ये प्राण जब भी निकलें ,पीड़ा मेरी  घनी हो
इक हाथ पुस्तिका  हो .इक हाथ  लेखनी हो

सूली पे रोज़ चढ़ कर ,ज़िन्दा रहा हूँ कैसे
आएँ कभी जो घर पर,यह रीति  सीखनी हो

हर दौर में रही है ,सच-झूठ की लड़ाई
तुम ’सच’ का साथ देना,जब झूठ से ठनी हो

बेचैनियाँ हों दिल में ,दुनिया के हों मसाइल
याँ मैकदे में  आना .खुद से न जब बनी  हो

नफ़रत से क्या मिला है, बस तीरगी  मिली है
दिल में हो प्यार सबसे , राहों में रोशनी हो

चाहत यही रहेगी ,घर घर में  हो दिवाली
जुल्मत न हो कहीं पर ,न अपनों से दुश्मनी हो

माना कि है फ़क़ीरी ,फिर भी बहुत है दिल में
’आनन’ से बाँट  लेना , उल्फ़त जो बाँटनी हो

-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 119

 212--      -212--       -212
फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन
बह्र-ए-मुतदारिक मुसद्दस सालिम

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झूठ का है जो  फैला  धुआँ
साँस लेना भी मुश्किल यहाँ

सच की उड़ती रहीं धज्जियाँ
झूठ का दबदबा  था जहाँ

चढ़ के औरों के कंधों पे वो
आज छूने चला  आसमाँ

तू इधर की उधर की न सुन
तू अकेला ही  है  कारवाँ

जिन्दगी आजतक ले रही
हर क़दम पर कड़ा इम्तिहाँ

बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ  है ग़ज़ल
हर सुखन है मेरी दास्ताँ

एक ’आनन’ ही तनहा नहीं
जिसके दिल में है सोज़-ए-निहाँ

-आनन्द.पाठक-

[सं 18-05-19]

ग़ज़ल 118

 ह्र-ए-हज़ज मुसम्मन महज़ूफ़

1222---------1222-----1222-------122
मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन---मुफ़ाईलुन--फ़ऊलुन
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रँगा चेहरा है उसका, हाथ कीचड़ में सना है
उसे क्या और करना, दूसरो पर फ़ेंकना  है

वो अपने झूठ को भी बेचता है सच बता कर
चुनावी दौर में बस झूठ का बादल  घना है

अकेला ही खड़ा है जंग के मैदान में  जो
हज़ारों तीर का हर रोज़ करता  सामना है

नज़र नापाक किसकी लग गई मेरे चमन को
बचाएँ किस तरह इसको, सभी को सोचना है

जुबाँ ऐसी नहीं थी आप की पहले कभी  तो
अदब से बोलना भी क्या चुनावों में मना है ?

उन्हे फ़ुर्सत कहाँ है जो कि सुनते हाल मेरा
उन्हें तो "चोर-चौकीदार" ही बस खेलना है

नहीं करता है कोई बात खुल कर अब तो ’आनन’
जमी है धूल  सब के आइनों पर ,पोछना है

-आनन्द पाठक-

ग़ज़ल 117

 बहर-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम

मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
1222----------1222---------1222--------1222
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कहाँ आवाज़ होती है कभी जब टूटता है दिल
अरे ! रोता है क्य़ूँ प्यारे ! मुहब्बत का यही हासिल

मुहब्बत के समन्दर का सफ़र काग़ज़ की कश्ती में
फ़ना ही इसकी क़िस्मत है, नहीं इसका कोई साहिल

’मुहब्बत का सफ़र आसान है”- तुम ही तो कहते थे
अभी है  इब्तिदा प्यारे ! सफ़र आगे का है मुश्किल

समझ कर क्या चले आए, हसीनों की गली में तुम
गिरेबाँ चाक है सबके ,यहाँ हर शख़्स है  साइल

तरस आता है ज़ाहिद के तक़ारीर-ओ-दलाइल पर
नसीहत सारे आलम को खुद अपने आप से गाफ़िल

कलीसा हो कि बुतख़ाना कि मस्जिद हो कि मयख़ाना
जहाँ दिल को सुकूँ हासिल हो अपनी तो वही मंज़िल

न जाने क्या समझते हो तुम अपने आप को ’आनन’
जहाँ में है सभी नाक़िस यहाँ कोई नहीं कामिल


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 116

 बह्र-ए-मुज़ारे मुसम्मन  अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़

221----2121----1221-----212
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु---मफ़ाईलु---फ़ाइलुन
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एक ग़ज़ल : वो रोशनी के नाम से --

वो रोशनी के नाम से  डरता  है आजतक
जुल्मत की हर गली से जो गुज़रा है आजतक

बढ़ने को बढ़ गया है किसी ताड़ की तरह
बौना हर एक शख़्स को समझा है आजतक

सब लोग हैं कि भीड़  का हिस्सा बने हुए
"इन्सानियत’ ही भीड़  में तनहा है आजतक

हर पाँच साल पे वो नया ख़्वाब बेचता
जनता को बेवक़ूफ़ समझता  है आजतक

वो रोशनी में  तीरगी ही ढूँढता  रहा
सच को हमेशा झूठ ही माना है आजतक

वैसे तमाम और   मसाइल  थे   सामने
’कुर्सी’ की बात सिर्फ़ वो करता है आजतक

 हर रोज़ हर मुक़ाम पे खंज़र के वार थे
’आनन’ ख़ुदा की मेह्र से  ज़िन्दा है आजतक

-आनन्द पाठक-

[सं 14-04-19]

ग़ज़ल 115


2122---1212---22
फ़ाइलातुन--मुफ़ाइलुन--- फ़ेलुन
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़

बेसबब उसको मेह्रबाँ  देखा
जब भी देखा तो बद्गुमाँ देखा

पास पत्थर की थी दुकां ,देखी
जब भी शीशे का इक मकां देखा

जिसको "कुर्सी’ अज़ीज होती है
 उसको बिकते हुए यहाँ देखा

क़स्में खाता है वो निभाने की
पर निभाते हुए कहाँ   देखा

जब कभी ’रथ’ उधर से गुज़रा है
बाद  बस देर तक धुआँ  देखा

वक़्त का  जो था  ताजदार कभी
उसका मिटते  हुए निशां  देखा

सच को ढूँढें कहाँ, किधर ’आनन’
झूठ का बह्र-ए-बेकराँ  देखा

=आनन्द.पाठक-

[बह्र-ए-बेकरां = अथाह सागर]


[सं 12-04-19] 

ग़ज़ल 114

बह्र-ए-रमल मुसद्दस महज़ूफ़

2122-----------2122---------212-
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलुन
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आदमी से कीमती हैं कुर्सियाँ
कर रहे टी0वी0 पे मातमपुर्सियाँ

आग नफ़रत की लगा कर आजकल
सेंकते है अपनी  अपनी  रोटियाँ

मौसम-ए-गुल कैसे आएगा भला
जब तलक क़ायम रहेंगी तल्खियाँ

धार ख़ंज़र की नहीं पहचानती
किसकी हड्डी और किसकी पसलियाँ

दे रहें धन राशि  राहत कोष  से
जो जलाए थे हमारी  बस्तियाँ

आदमी की लाश गिन गिन कर वही
गिन रहें संसद भवन की सीढ़ियाँ

पीढ़ियों  का कर्ज़  ’आनन’ भर रहा
एक पल की थी किसी की ग़लतियाँ

-आनन्द.पाठक-
[सं 09-04-19]