एक ग़ज़ल :
वक़्त सब एक सा नहीं होता
सुख हो दुख , देरपा नहीं होता
आदमी है,गुनाह लाज़िम है
आदमी तो ख़ुदा नहीं होता
एक ही रास्ते से जाना है
और फिर लौटना नहीं होता
किस ज़माने की बात करते हो
कौन अब बेवफ़ा नहीं होता ?
हुक्म-ए-ज़ाहिद पे बात क्या कीजै
इश्क़ क्या है - पता नहीं होता
लाख माना कि इक भरम है मगर
नक़्श दिल से जुदा नहीं होता
बेख़ुदी में कहाँ ख़ुदी ’आनन’
काश , उन से मिला नहीं होता
-आनन्द.पाठक-
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