शनिवार, 20 जुलाई 2024

कविता 21

  कविता 21 : आया ऊँट पहाड़ के नीचे--


आया ऊँट पहाड़ के नीचे

देख रहा है अँखियाँ मीचे

अयँ ?

मुझसे भी क्या कोई बड़ा है?

यहाँ सामने कौन खड़ा है?

सच में ऐसा होता है क्या !

 मुझसे कोई ऊँचा है क्या !

जिसने देखा हो  झाड़ बस !

वह क्या समझे है पहाड़ क्या !


 अपने कद का रोब दिखाता

 अपना ही बस गाता जाता

क्या करता फिर एक आदमी

सिर्फ़ हवा में

मुठ्ठी खींचे, दाँते भींचे

आया ऊँट पहाड़ के नीचे

आया उँट पहाड़ के नीचे ।


-आनन्द.पाठक


कविता 20

 कविता 20 : जाने क्यों ऐसा लगता है---


जाने क्यों ऐसा लगता है ?

उसने मुझे पुकारा होगा

जीवन की तरुणाई में, अँगड़ाई ले

दरपन कभी निहारा होगा

शरमा कर फ़िर, उसने मुझे पुकारा होगा ।

दिल कहता है

जाने क्यों ऐसा लगता है ?

--   -- 


कभी कभी वह तनहाई में 

भरी नींद की गहराई में 

देखा होगा कोई सपना

छूटा एक सहारा होगा, उसने मुझे पुकारा होगा

मन डरता है

जाने क्यों ऐसा लगता है ।

---

सारी दुनिया सोती रहती

लेकिन वह 

रात रात भर जागा करता , तारे गिनता

टूटा एक सितारा होगा

फिर घबरा कर

उसने मुझे पुकारा होगा ।

जाने क्यों ऐसा लगता है ॥


-आनन्द.पाठक-


कविता 19

  कविता 19 : जाने यह कैसा बंधन है--


जाने यह कैसा बंधन है

गुरु-शिष्य का

वर्तमान का ज्यों भविष्य का ।

रिश्ता पावन ऐसे जैसे

स्तुति वाचन-ॠचा मन्त्र का,

गीत गीत से -छ्न्द छन्द का,

फ़ूल फ़ूल से - गन्ध गन्ध का,

जैसे पानी का चंदन से,

भक्ति भावना का वंदन से,

शब्द भाव का--नदी नाव का,

बिन्दु-परिधि का, केन्द्र-वृत्त का,

जीवन-घट का और मृत्तिका,

दीप-स्नेह का और वर्तिका ।

बाहों का मधु आलिंगन से

एक अदृश्य -सा अनुबंधन है ।

जाने यह कैसा बंधन है ।


-आनन्द.पाठक--


कविता 18

  कविता 18 : कह न सका मैं---


कह न सका मैं 

जो कहना था ।

मौन भाव से सब सहना था।

तुम ही कह दो।


शब्द अधर तक आते आते

ठहर गए थे।

अक्षर अक्षर बिखर गए थे।

आँखों में आँसू उभरे थे ।

 पढ़ न सका मैं |

जो न लिखा था

तुम ही पढ़ दो।

कह न सकी जो तुम भी कह दो

कह न सका मैं , तुम ही सुन लो।


-आनन्द.पाठक-


कविता 17

  कविता 17


कल तुमने यह पूछा था

वह कौन थी ? 

भाव मुखर थे, ग़ज़ल मौन थी ।


मेरी ग़ज़लों के शे’रों के

 मिसरों में 

चाहे वह अर्कान रहा हो

लफ्जों का औजान रहा हो

रुक्नो का गिरदान रहा हो

मक्ता था या मतला था

सबमे तुम्हारा रूप ढला था

मेरे भावों की छावों में 

जो लड़की  गुमसुम गुमसुम थी

वह तुम थी , हाँ वह तुम थी।


’अइसा तुमने काहे पूछा ?

तुम्हरा मन में ई का सूझा ?’


-आनन्द.पाठक-

कविता 16

  कविता 16


बचपन से

रंग बिरंगी शोख तितलियाँ 

बैठा करती थी फूलों पर

भागा करता था मैं

पीछे पीछे

छूना चाहा जब भी उनको

उड़ जाती थीं इतरा कर 

इठला कर 

मुझे थका कर ।


-आनन्द.पाठक-

कविता 15

  

कविता  15

 

मन बेचैन रहा करता है

न जाने क्यों ?

उचटी उचटी नींद ज़िन्दगी

इधर उधर की बातें आतीं

टूटे-फूटे सपने आते

खंड-खंड में जीवन लगता

बँटा हुआ है।

धुँधली-धुँधली, बिन्दु-बिन्दु सी

लगती मंज़िल

लेकिन कोई बिन्दु नहीं जुड़ पाता मुझसे

न जाने क्यों ।

 

एक हाथ में कुछ आता है

दूजे हाथ फिसल जाता है

रह रह कर है मन घबराता

न जाने क्यों ।

 

-आनन्द.पाठक-

 

 

कविता 14

  

-कविता 14 

 

जीवन के हर एक मोड़ पर

कई अजनबी चेहरे उभरे

भोले भाले

कुछ दिलवाले

चार क़दम चल कर,

कुछ ठहरे

कुछ अन्तस में

गहरे उतरे ।

 

जब तक धूप रही जीवन में

साया बन कर साथ रहे

हाथों में उनके हाथ रहे

अन्धकार जब उतरा ग़म का

छोड़ गए, मुँह मोड़ गए कुछ

वो छाया थे।


फिर वही जीवन एकाकी

आगे अभी सफ़र है बाक़ी

लोग यहाँ पर मिलते रहते

जुड़ते और बिछड़ते रहते

क्या रोना है

क्यों रोना है

जीवन है तो यह होना है ।

कविता 13

   कविता 13 


मैं हूँ 

मेरे  मन के अन्दर 

गंगा जी की निर्मल धारा

मन उँजियारा

शंखनाद से पूजन अर्चन

सुबह-शाम की भव्य आरती

चलता रहता भगवत कीर्तन

मन मेरा है सुबह-ए-बनारस

क्षमा दया और करुणा रस


मैं हूँ 

मेरे मन के अन्दर 

कहीं खनकती 

पायल-घुँघरु की झंकारें 

गजरे की ख़ुशबू

मुझे पुकारें

महफ़िल सजती 

हुस्न-ओ-अदा जब नाज़नीन की

जादू करती

रंग महल में ताता-थैय्या .रूप , रुपैय्या

तब मेरा दिल शाम-ए-अवध है


मैं हूँ 

मेरे मन के अन्दर

खिचीं मुठ्ठियाँ इन्क़्लाब की

तेज़ रोशनी आफ़ताब की

कहीं दहकते दिल में शोले

कहीं चाँदनी माहताब की


मन के अन्दर राम बसे है

मन में ही रावन बसता है

इस मन में ही कृष्ण कन्हैया

 इक कोने में 

"कंस’ खड़ा हो कर हँसता है


यह सब हैं तेरे भी अन्दर

किसे बसाना ,किसे मिटाना

तुझको ही यह तय करना 

कौन राह  तुझको चलना 


-आनन्द,पाठक-


कविता 12

  कविता 12 


गिद्ध नहीं वो

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी

और सोच भी उनकी वैसी ।

हमें लूटते कड़ी धूप में 

खद्दरधारी टोपी पहने ।

रंग रंग की कई टोपियाँ

श्वेत-श्याम हैं और गुलाबी

नीली, पीली, लाल ,हरी हैं

’कुरसी’ पर जब नज़र गड़ी है

’जनता’ की कब किसे पड़ी है

ढूँढ रही हैं ज़िन्दा लाशें

पाँच बरस की ”सत्ता’ जी लें


ऊँची ऊँची बातें करना

हर चुनाव में घातें करना

हवा-हवाई महल बनाना

शुष्क नदी में नाव चलाना

झूठे सपने दिखा दिखा कर 

दिल बहलाना, मन भरमाना

संदिग्ध नहीं वो

सोच मगर संदिग्धों जैसी

गिद्ध नहीं वो 

दॄष्टि मगर है गिद्धों जैसी ।


-आनन्द.पाठक-


कविता 11

 

कविता 11

----2-अक्टूबर- गाँधी जयन्ती----


अँधियारों में सूरज एक खिलानेवाला
जन गण के तन-मन में ज्योति जगानेवाला
गाँधी वह जो क्षमा दया करूणा की मूरत
फूलों से चटटानों को चटकाने वाला


क़लम कहाँ तक लिख पाए गाँधी की बातें
इधर अकेला दीप, उधर थी काली रातें
तोड़ दिया जंजीरों को जो यष्टि देह से
बाँध लिया था मुठ्ठी में जो झंझावातें


आज़ादी की अलख जगाते थे, गाँधी जी
’वैष्णव जण” की पीर सुनाते थे, गाँधी जी
सत्य अहिंसा सत्याग्रह से, अनुशासन से
सदाचार से विश्व झुकाते थे, गाँधी जी


गाँधी केवल नाम नहीं है, इक दर्शन है
लाठी, धोती, चरखा जिनका आकर्षन है
सत्य-अहिंसा के पथ पर जो चले निरन्तर
गाँधी जी को मेरा सौ-सौ बार नमन है


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 404

  ग़ज़ल 404 [60-फ़]

2122---1212---22


बात बेपर की तुम उड़ाते हो

क्या हक़ीक़त है भूल जाते हो ।


आदमी हो कोई खुदा तो नहीं

धौंस किस पर किसे दिखाते हो ।


झूठ ही झूठ का तमाशा है

बारहा सच उसे बताते हो ।


खुद की जानिब भी देख लेते तुम

उँगलियाँ जब कभी उठाते हो ।


मंज़िलों की तुम्हें ख़बर ही नही

राहबर खुद को तुम बताते हो


हम चिरागाँ हैं हौसले वाले

इन हवाओं से क्या डराते हो


वो फ़रिश्ता तो है नहीं ’आनन’

बात क्यों उसकी मान जाते हो 


-आनन्द.पाठक--

ग़ज़ल 403

  ग़ज़ल 403 [ 59-फ़]

2122---1212---22


इश्क़ की एक ही कहानी है

रंज़-ओ-ग़म की ये तर्जुमानी है ।


उम्र भर का ये इक तकाज़ा है,

चन्द लम्हों की शादमानी  है ।


प्यार करना है आ गले लग जा

चार दिन की ये जिंदगानी है ।


रंग-ए-दुनिया अगर बदलना हो

लौ मुहब्बत की इक जगानी है ।


ज़िंदगी ख़ुशनुमा नज़र आती

इश्क़ ही की ये मेहरबानी है ।


प्यार कतरा में इक समन्दर है

बात यह रोज़ क्या बतानी है ।


जानना राह-ए- इश्क़ क्या ’आनन’?

जानता हूँ कि राह-ए-फ़ानी है ।


-आनन्द पाठक--


ग़ज़ल 402

  ग़ज़ल 402 [ 59-अ ]

 59-अ

221---2122  // 221--2122 


हर दर्द नागहाँ हो, यह भी तो सच नहीं है 

सब गम मिरा अयाँ  हो, यह भी तो सच नहीं है ।


इलजाम जब है उन पर, कहते हैं वो, धुआँ  है ,

बिन आग का धुआँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


माखन न तुमने खाया, बस दूध के धुले हो

आदाब-ए-पासबाँ हो , यह भी तो सच नहीं है ।


आए जो हाशिए पर , कहते हो साजिशे  हैं 

कुछ भी न दरमियाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


’दिल्ली’ में बारहा तुम, मजमा लगाते फिरते

तुम मिस्ल-ए-कारवाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


काजल की कोठरी से, बेदाग़ कौन निकला ,

मासूम बेज़ुबाँ हो ,यह भी तो सच नहीं है ।


इतनी बड़ी तो हस्ती, ’आनन’ नहीं तुम्हारी,

दामान-ए-आसमाँ हो, यह भी तो सच नहीं है ।


-आनन्द.पाठक- 


ग़ज़ल 401

  ग़ज़ल 401 [43-अ ]

1212---1122---1212---22


जो गीत दर्द के गाते नहीं , तो क्या करते 

तमाम उम्र सुनाते नहीं , तो क्या करते ।


कड़े थे शर्त हमारी तो ज़िंदगी के मगर 

उधार हम जो चुकाते नहीं, तो क्या करते !


हज़ार क़ैद थे आइद हमारे ख़्वाबों पर

हर एक ख़्वाब मिटाते नहीं, तो क्या करते।


उमीद थी कि वो आएँगे खुद बख़ुद चल कर

पयाम दे के बुलाते नहीं, तो क्या करते ।


तमाम लोग थे ईमाँ खरीदने निकले-

इमान अपना बचाते नहीं, तो क्या करते ।


शरीफ़ लोग भी बातिल के साथ साथ खड़े

अलम जो सच का उठाते नहीं, तो क्या करते ।


हर एक मोड़ पे नफ़रत की तीरगी ’आनन’

चिराग़-ए-इश्क़ जलाते नहीं, तो क्या करते ।


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

आइद थे = लागू थे

पयाम दे के = संदेश भेज कर

बातिल के साथ = झूठ के साथ

तीरगी   = अँधेरा

अलम = झंडा





ग़ज़ल 400

  ग़ज़ल 400 [42-अ] 

21---121---121--122  // 21---121--121--122


खोटे सिक्के हाथों में ले, मोल लगाने लोग खड़े है 

घड़ियाली आँसू से पूरित, दर्द जताने लोग खड़े हैं ।


आज धुँआ फिर से उठ्ठेगा, झुग्गी झोपड़ पट्टी से ही

कल जैसा फिर दुहराने को, आग लगाने लोग खड़े हैं ।


बेंच दिए ’रामायण-गीता’ आदर्शों की बात भुला कर

वाचन करने को तत्पर हैं, अर्थ बताने लोग खड़े हैं ।


दीन-धरम है बाक़ी अब भी, कुछ लोगों के दिल के अन्दर

आग लगाने वालों सुन लो, आग बुझाने लोग खड़े हैं ।


दुनिया भर की बात करेंगे, चाँद सितारे मुठ्ठी में है

करना धरना एक नही है, गाल बजाने लोग खड़े हैं ।


शर्म-ओ-हया की बात कहाँ अब, उरियानी का फैशन आया

वाजिब है कुछ की नजरों मे, आज बताने लोग खड़े हैं


’आनन’ तुम भी कैसे कैसे, लोगों की बातों में आए

झूठे वादों से जन्नत की, सैर कराने लोग खड़े हैं ।


-आनन्द पाठक-



ग़ज़ल 399

  ग़ज़ल 399 [ 41 -अ] 

21---121---121--122 // 21---121--121--12


सूरज को गिरवी रख रख वो , किरणों को नीलाम किए,

उनका ही अन्तस था काला, दरपन को बदनाम किए


शिकवा, आम शिकायत तुमसे, चाहे जितना कर लें हम

नाम तुम्हारा ही ले ले कर, सुबह किए हम, शाम किए ।


इस्याँ अपना जग ज़ाहिर है, और इबादत उल्फत भी

जो भी हासिल इस दुनिया से, सारे उनके नाम किए ।


तनहाई में आँखें नम थी, रंज़ो-ओ-ग़म थे साथ मेरे

एक तेरी तस्वीर मेरा दिल, पूरी रात कलाम किए ।


कितने दौर- ए- जाम चले हैं ,फिर भी प्यास अधूरी है

जब जब प्यास बढ़ी है यारब!, याद तुम्हें हर गाम किए


अक्स तुम्हारा हर शै में है, कब हमने इनकार किया

वैसे हम हर नक्श-ए-पा पर, सजदा और सलाम किए


हस्ती अपनी क्या है ’आनन’, एक तमाशा मेला है ,

दिन भर दौड़े, भागे, घूमे, रात हुई आराम किए ।


ग़ज़ल 398

  ग़ज़ल 398 [---]

21---121--121---122 // 21---121---121--12


आकर इस फ़ानी दुनिया में, चार दिनों की शान बने ,

चाल तुम्हारी टेढ़ी टेढ़ी, क्यों तुम नाफरमान बने ?


उनको क्या लेना-देना था, आदर्शों के मेले से-

गैरत अपनी बेंच दिए तो, ख़ुद अपनी पहचान बने ।


’राम-कथा’ कहते फ़िरते थे, गाँव-गली में वाचक बन 

’दिल्ली’ जाकर जाने क्यों वह,’रावण’ के उन्वान बने ।


कल तक जिन हाथों में शोभित, दंड, कमंडल, माला थी

आज उन्हीं हाथों में जाकर, खंजर, तीर-कमान बने ।


कल तक खुद को खोज रहे थे,  संबंधों की दुनिया में

गिरगिट-सा कुछ रंग बदल कर, आज वही अनजान बने ।


बात जहाँ पर तय होनी थी,चेहरे पर कितने चेहरे ,

जो चेहरे ’उपमेय’ नहीं थे, वो चेहरे ’उपमान’ बने ।


दुनिया मे क्या करने आए, पर क्या तुमने कर डाला,

’ढाई-आखर’ पढ़ कर” आनन’, क्यों ना तुम इन्सान बने?


-आनन्द पाठक-


ग़ज़ल 397

  ग़ज़ल 397 [ 40-अ]

2122---2122---212


लोग सिक्कों पर फ़िसलने लग गए

भूमिका अपनी बदलने लग गए ।


आइना जब भी दिखाते हैं उन्हें

ले के पत्थर वो निकलने लग गए ।


मुठ्ठियाँ जब गर्म होने लग गईं

मोम-से थे जो , पिघलने लग गए।


आज आँगन में नहीं ’तुलसी’ कहीं

’कैकटस’ गमलों में पलने लग गए।


सत्य से जो बेखबर अबतक रहे

झूठ की वह राह चलने लग गए।


फ़न कुचलने का समय अब आ गया

साँप सड़को पर निकलने लग गए ।


अब तो ’आनन’ हाल ऐसा हो गया

लोग इक दूजे को छलने लग गए ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 396

  ग़ज़ल 396/39-A]


2122---1212-  22

जब कभी हम से वह मिला करता

दिल न जाने है क्यों डरा  करता ।


उसकी तक़रीर जब कहीं होती

हादिसा क्यों वहीं हुआ करता ।


जख्म अपना उसे दिखाता हूँ

दर्द सुन कर वो अनसुना करता ।


फूल बन कर उसे महकना  था

बन के काँटा है वह उगा करता ।


सच से जब उसका सामना होता

रंग चेहरे का क्यों उड़ा करता ।


रोशनी क्या है, क्या वो समझेगा,

जो अँधेरों में है पला करता ?


संग-ए-दिल लाख हो भले ’आनन’

दिल में दर्या है इक बहा करता ।


-आनन्द.पाठक -


शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

ग़ज़ल 395

 


ग़ज़ल 395 [58फ़] 

1212---1122---1212---112/22


उसे पता ही नहीं क्या वो बोल जाता है

न सर, न पैर हो, बातें वही सुनाता  है ।


वो आइना पे ही इलजाम मढ़ के चल देता

अगर जो आइना कोई कहीं दिखाता  है ।


किसी के पीठ पे हो कर सवार पार हुआ

उसी को बाद में फिर शौक़ से डुबाता है ।


वो चन्द रोज़ हवा में उड़ा करेगा अभी

नई नई है मिली जीत यह दिखाता  है ।


उसे बहार में भी आ रही नज़र है खिज़ाँ

वो जानबूझ के भी सच नही बताता  है ।


ज़मीन पर है नहीं पाँव आजकल उसके

वो आसमाँ से हक़ीक़त न देख पाता है ।


हवा लगी है उसे बदगुमान की ’आनन’

किसी को अपने मुक़ाबिल नही लगाता है ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 394

 

ग़ज़ल 394 [57फ़]

1212---1122---1212---112/22


मचा के शोर मुझे चुप करा नहीं सकते

पहाड़ फूँक से ही तुम उड़ा नहीं सकते


ग़रूर है ये तुम्हारा , तमीज़ का परचम

दिखा के आँख मुझे तुम डरा नहीं सकते 


नहीं वो पेड़ जो  गमलों में, नरसरी में पले

वो शाख हैं कि हमें तुम झुका नहीं सकते ।


ये झूठ का जो पुलिंदा लिए हुए सर पे

पयाम सच का मेरे तुम दबा नहीं सकते


सवाल ये है कि सुनना न मानना है तुम्हें

दिमाग़ में जो तुम्हारे मिटा नहीं सकते ।


वो हार कर भी सबक कुछ न सीख पाया है

नहीं है सीखना जिसको सिखा नहीं सकते ।


जवाब सुन के भी वह सुन सका नहीं ’आनन’

जो कान बंद किए हो , सुना नहीं सकते।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 393

  ग़ज़ल 393[ 56F]

212---212---212---212


वह ’खटाखट’ खटाखट’ बता कर गया

हाथ में पर्चियाँ मैं लिए हूँ खड़ा ।


बेच कर के वो सपने चला भी गया

सामना रोज सच से मै करता रहा  ।


उसने जो भी कहा मैने माना ही क्यों

वह तो जुमला था जुमले में क्या था रखा।


आप रिश्तों को सीढ़ी समझते रहे

मैं समझता रहा प्यार का रास्ता ।


झूठ की थी लड़ाई बड़े झूठ से 

’सच’- चुनावो से पहले ही मारा गया ।


अब सियासत भी वैसी कहाँ रह गई

बदजुबानी की चलने लगी जब  हवा ।


उसकी बातों में ’आनन’ कहाँ फ़ँस गए

आशना वह कभी ना किसी का हुआ  ।


-आनन्द.पाठक- 

सं 02-07-24


ग़ज़ल 392

  ग़ज़ल 392[55F]

1212---1212---1212---1212

ह्ज़ज मक़्बूज़ मुसम्मन


सफ़र शुरु हुआ नहीं कि लुट गया है क़ाफ़िला

जहाँ से हम शुरु हुए, वहीं पे ख़त्म  सिलसिला ।


दो-चार ईंट क्या हिली कि हो गया भरम उसे

इसी मुगालते में है किसी का ढह गया किला ।


वो झूठ पे सवार हो उड़ा किया इधर उधर

वो सत्य से बचा किया, रहा बना के फ़ासिला।


तमाम उम्र वह अना की क़ैद में जिया किया

वह चाह कर भी ख़ुद कभी न ज़िंदगी से ही मिला।


इसी उमीद में रहा बहार लौट आएगी

कभी न ख़त्म हो सका मेरे ग़मों का सिलसिला ।


मिला कभी तो यूँ मिला कि जैसे हम हो अजनबी

कभी गले नहीं मिला, न दिल ही खोल कर मिला ।


रहा खयाल-ओ-ख़्वाब में वो सामने न आ सका

अब ’आनन’-ए-हक़ीर को रहा नहीं कोई गिला ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24

ग़ज़ल 391

  ग़ज़ल 391[54F]

2122---212 // 2122--212

रमल मुरब्ब: महज़ूफ़ मुज़ाइफ़


कह गया था वह मगर लौट कर आया नही

बाद उसके फिर मुझे, और कुछ भाया नहीं ।


चाहता था वह कि मैं ’हाँ’ में ’हाँ’ करता रहूँ

राग दरबारी कभी , गीत मैं गाया नहीं ।


बदगुमानी में रहा इस तरह वह आदमी

क्या ग़लत है क्या सही, फ़र्क़ कर पाया नहीं।


ज़िंदगी की दौड़ में सब यहाँ मसरूफ़ हैं

कुछ को हासिल मंज़िलें, कुछ के सर साया नहीं।


इश्क़ होता भी नहीं ,आजमाने के लिए 

चल पड़ा तो चल पड़ा, फ़िर वो रुक पाया नहीं।


सब उसी की चाल थी और हम थे बेख़बर

वह पस-ए-पर्दा रहा, सामने आया नहीं ।


तुम भी ’आनन’ आ गए किसकी मीठी बात में

साज़िशन वह आदमी किसको भरमाया नहीं ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24

ग़ज़ल 390

  ग़ज़ल 390

221---1221---1221---122
[ बह्र--ए-मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मह्ज़ूफ़]
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गर बन न सका फ़ूल तो काँटा न बना कर
चलते हुए राही को न बेबात चुभा कर ।

मत भूल तुझे लौट के आना है धरा पर
उड़ता है गगन में भले जितना भी उड़ा कर ।

क्या कह रही है प्यार की बहती हुई नदी
’रोको न रवानी को मेरी बाँध बना कर ।

झुकने को तो झुक जायेगा दुर्गम यह हिमालय
चलना है अगर चल तो नई राह बना कर ।

वैसे तो मेरे दिल में है इक प्यार का दर्या
गाता है मुहब्बत का सदा गीत, सुना कर ।

किस रूप में मिल जाएगा इन्सां में फ़रिश्ता
यह सोच के इनसान का आदाब किया कर।

बालू का घरौंदा है, नही घर तेरा 'आनन' 
यह जिस्म है फानी, तू इसे घर न  कहा कर ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 389

 ग़ज़ल 389[53F

221---2121---1221---212


हम बेनवा कि जब से हिमायत में लग गए

कुछ लोग ख़्वाहमख़्वाह शिकायत में लग गए ।


जब तोड़ने चला था पुरानी रवायतें ,

कुछ क़ौम के अमीर हिदायत में लग गए ।


जब मग़रबी हवाएँ कभी गाँव आ गईं

तह्ज़ीब-ओ- तरबियत की हिफ़ाज़त में लग गए ।


जो कुछ जमीर थी बची, उसको भी बेच कर

सुनते हैं आजकल वो सियासत में लग गए ।


जो सर कटा लिए थे वो गुमनाम ही रहे ,

नाख़ून कुछ कटा के शहादत में लग गए ।


दुनिया को बार बार खटकते रहे है, हम

क्यों इश्क़ की तवाफ़-ओ-इबादत में लग गए ।


’आनन’ अजीब हाल है लोगों का आजकल

करना था जिन्हे प्यार , अदावत में लग गए ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

बेनवा = बेकस ग़रीब मजलूम

अमीर = समाज के ठेकेदार

मग़रिबी हवाएँ = पाश्चात्य संकृति की हवाएँ
तहज़ीब-ओ-तर्बियत = संस्कार
तवाफ़-ओ-इबादत = परिक्रमा और पूजा 

सं 01-07-24

ग़ज़ल 388

 ग़ज़ल 388[52F]

2122---2122---212


वह धुआँ फ़ैला रहा है बेसबब

राग अपना गा रहा है बेसबब


सच उसे स्वीकार करना ही नहीं

झूठ पर इतरा रहा है बेसबब


आँख में पानी नहीं फिर क्यों उसे

आइना दिखला रहा है बेसबब


वह ’खटाखट’ क्या तुम्हें देगा कभी

वह तुम्हे भरमा रहा है बेसबब ।


अब सयानी हो गईं है मछलियां

जाल क्यों फ़ैला रहा है बेसबब । 


काम उसका ऊँची ऊँची फेंकना

बात में क्यों आ रहा है बेसबब ।


अब तो ’आनन’ तू उन्हें पहचान ले

क्यों तू धोखा खा रहा है बेसबब ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24



ग़ज़ल 387

  

ग़ज़ल 387 [51F]

2122---2122---2122


आश्रमों में धुंध का वातावरण है

बंद आँखें फिर भी कहते जागरण है ।


आदमी अंदर ही अंदर खोखला है

खोखली श्रद्धा का ऊपर आवरण है ।


और को उपदेश देते त्याग माया 

कर न पाते मोह का ख़ुद संवरण है ।


लोग अंधी दौड़ में शामिल हुए अब 

चेतना का क्या नया यह अवतरण है ।


भीड़ में हम भेड़ -सा हाँके गए हैं

यह निजी संवेदना का अपहरण है ।


ख़ुद से आगे और कुछ दिखता न उनकॊ

स्वार्थ का कैसा भयंकर आचरण है ।


रोशनी स्वीकार वो करते न ’आनन’

इन अँधेरों का अलग ही व्याकरण है ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


ग़ज़ल 386

  ग़ज़ल 386[50F]

1222---1222---1222---1222


खुदा की जब इनायत हो बहार-ए-हुस्न आती है।

अगर दिल पाक हो तो फिर मुहब्बत ख़ुद बुलाती है ।


जुनून-ए-इश्क़ में फिरते, ख़िज़ाँ क्या है , बहारां क्या

फ़ना होना ही बस हासिल, यही दुनिया बताती है ।


नवाज़िश आप की साहिब !बहुत मश्कूर है यह दिल

मेरी  मक़रूज़ है हस्ती ,ज़ुबाँ देकर निभाती  है ।


लगा करती हैं जब जब ठोकरें, आँखें खुला करती

यही ठोकर सदा इन्सान को रस्ता दिखाती है ।


कहाँ आसान होता है गली तक यार की जाना

जो जाती है कभी यह ज़िंदगी कब लौट पाती है 


हवाएं साजिशें रचतीं चिरागों कॊ बुझाने की

 जो लौ  जलती जिगर के खून से, कब ख़ौफ़ खाती है 


अजब उलफ़त की नदिया है, अजब इसका सिफ़त ’आनन’ 

नहीं चढ़ना, नही चढ़ती, चढ़ी तो रुक न पाती है ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


ग़ज़ल 385

  ग़ज़ल 385[49F]

221---2121---1221---212


औरों की तरह "हाँ’ मे मैने "हाँ’ नहीं कहा

शायद इसीलिए मुझे पागल समझ लिया ।


लफ़्ज़ों के ख़ल्त-मल्त से  कुछ इस तरह कहा

जुमलों में जैसे फिर से नया रंग भर दिया ।


उसके तमाम झूठ थे तारीफ़ की मिसाल

मेरे तमाम सच को वो ख़ारिज़ ही कर दिया 


 वह आँख बन्द कर के कभी ध्यान में रमा

कुछ बुदबुदाया, भीड़ ने ’मन्तर’-समझ लिया।


गूँगी जमात की उसे जब बस्तियाँ दिखीं ,

 हर बार वह चुनाव में पहले वहीं  गया ।


’दिल्ली’  में जा के जब कभी गद्दीनशीं हुआ

घर के ही कोयले में  ’ज़वाहिर’ उसे दिखा  ।


कितनी अज़ीब बात थी सब लोग चुप रहे

’आनन’ ग़रीब था तो सरेआम लुट गया ।


-आनन्द.पाठक-

ख़ल्त-मत = फेट-फ़ाट , गड्म-गड्ड

सं 01-07-24


ग़ज़ल 384

 ग़ज़ल 384[48F]

2122---1212---22


ज़िंदगी! और क्या सुनाना है 
कर्ज़ तेरा हमे चुकाना है ।

ज़िंदगी दूर दूर ही रहती
पास अपने उसे बिठाना है ।

उनके आने की क्या ख़बरआई
फिर मिला जीने का बहाना है ।

बात दैर-ओ-हरम की क्या उनसे
जिनको उस राह पर न जाना है ।

रंग ऐसा चढ़ा नहीं उतरा
जानता क्या नहीं जमाना है

इन तक़ारीर के सबब क्या हैं
राज़ ही जब नही बताना  है ।

जो अँधेरों में अब तलक बैठे
उनके दिल में दिया जलाना है ।

बेसबब क्यों भटक रहा ’आनन’
दिल में ही उसका जब ठिकाना है ?

-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24
तक़ारीर =प्रवचन


ग़ज़ल 383

  ग़ज़ल 383 [47F]

2122---2122---212


जाल में ख़ुद ही फ़ँसा है आदमी

किस तरह उलझा हुआ है आदमी


ज़िंदगी भर द्वंद में जीता रहा-

अपने अंदर जो बसा है आदमी ।


सभ्यता की दोड़ में आगे रहा

आदमीयत खो दिया है आदमी


ज़िंदगी की सुबह में सूली चढ़ा

शाम में उतरा किया है आदमी ।


देखता है ख़ुद हक़ीक़त सामने

बन्द आँखें कर रखा है आदमी ।


पैर चादर से सदा आगे रही

उम्र भर सिकुड़ा किया है आदमी।


चाह जीने की है ’आनन’ जब तलक

मर के भी ज़िंदा रहा है आदमी ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


ग़ज़ल 382

  ग़ज़ल 382[46F] 

2122---1122---1122--22


आप का शौक़ है एहसान जताए रखना

मेरी मजबूरी है रिश्तों को जगाए रखना।


आप की सोच में वैसे तो अभी ज़िंदा हूँ

वरना जीना है भरम एक बनाए रखना ।


सच को अर्थी न मिली, झूठ की बारात सजी

ऐसी बस्ती में बसे चीख दबाए रखना ।


जुर्म इतना था मेरा झूठ को क्यों झूठ कहा

जिसकी इतनी थी सज़ा,ओठ सिलाए रखना।


 इन अँधेरों मे कोई और न मुझ-सा भटके

कोई आए न सही दीप जलाए रखना ।


 कौन सी बात हुई व्यर्थ की बातों पर भी

आसमाँ हर घड़ी सर पर ही उठाए रखना।


राजदरबार में ’आनन’ भी मुसाहिब होता

शर्त इतनी थी कि बस सर को झुकाए रखना।


-आनन्द.पाठक- 

सं 01-07-24

मुसाहिब = दरबारी

ग़ज़ल 381

  ग़ज़ल 381[45F]

2122---2122---2122--2 

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं]


फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !

फिर नया करना बहाना छोड़िए, श्रीमन !


हम जो अंधे थे भुनाते आप थे सिक्के

खोटे सिक्कों का भुनाना छोड़िए, श्रीमन !


आप के जुमलों का सानी क्या कहीं होगा

हाथ पर सरसो उगाना छोडिए, श्रीमन !


सरफिरो की बस्तियाँ हैं, क्या ठिकाना है

हाथ में माचिस थमाना छोड़िए, श्रीमन !


आइना देखा कि शीशे का मकाँ देखा

देख कर पत्थर उठाना छोड़िए, श्रीमन !


बन्द कमरे में घुटन बढ़ने लगी कब से

खुशबुओं से तर बताना छोड़िए, श्रीमन !


जख़्म ’आनन’ के अगर जो भर नहीं सकते

फिर नमक इन पर लगाना छोड़िए, श्रीमन !


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


गुरुवार, 11 जुलाई 2024

ग़ज़ल 380

 ग़ज़ल 380 [44F]


221 2121 1221 212

वह झूठ बोलता था मै घबरा के रह गया
मै सच भी बोलने को था, हकला के रह गया

इस शह्र का रिवाज़ था, मुझको नहीं पता
ऐसा जला कि हाथ मै सहला के रह गया

सुलझाने जब चला कभी हस्ती की उलझने
मै जिंदगी को और भी उलझा के रह गया

पूछा जो जिंदगी ने कभी हाल जब मेरा
दो बूँद आँसुओ की मै छलका के रह गया

डोरी तेरी तो और किसी हाथ मे रही
तू व्यर्थ अपने आप पे इतरा के रह गया

उससे उमीद थी  कि नई बात कुछ करे
लेकिन पुरानी बात ही दुहरा के रह गया 

'आनन' खुली न आँख अभी तक  तेरी जरा
खुद को खयाल-ए- खाम से बहला के रह गया

-आनन्द पाठक-
सं 30-06-24

ग़ज़ल 379

  ग़ज़ल 379 [44-अ

2122---1122---1122---112/22


जब ग़रज़ उनकी, तो रिश्तों का सिला देते हैं

 काम मेरा जो पड़ा , मुझको भगा  देते हैं ।


उनके एहसान को मैने तो सदा याद रखा

मेरे एहसान को कसदन वो भुला देते हैं ।


आप के सर जो झुके बन्द मकानो में  झुके

मैने सजदा भी किया , सर को उड़ा देते हैं ।


आप का फ़र्ज़ यही है तो कोई बात नहीं

जुर्म किसने था किया मुझको सज़ा देते हैं ।


ज़िंदगी आज भी उनके ही क़सीदे पढ़ती

प्यार के नाम पे गरदन जो कटा देते  हैं ।


आप जो ख़ुश हैं तो मुझको न शिकायत कोई

वरना अब लोग कहाँ ऐसा सिला देते हैं ।


हार जब सामने उनको नज़र आती ’आनन’

और के सर पे वो इलज़ाम लगा देते हैं ।


-आनन्द.पाठक-



ग़ज़ल 378

  ग़ज़ल 378 [ 60-अ]

221---2121---1221---212


ऐसी भी हो ख़बर कोई अख़बार में लिखा ,

’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का है पता ।


समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,

जब इक शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।


बेमौत एक दिन वो मरेगा मेरी तरह

इस शहर में’उसूल’ की गठरी उठा उठा।


जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,

मुशकिल है आदमी को कि अपने को ले बचा।


हर सिम्त शोर सुन रहे हैं जंग-ए-अज़ीम का ,

इन्सानियत को तू भी  दिल-ओ-जान से बचा ।


मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे

अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा ।


क्यों तस्करों के शहर में ’आनन’ तू आ गया,

तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।


-आनन्द पाठक-


ग़ज़ल 377

  

ग़ज़ल 377/ 53-अ 

1222---1222---1222---1222

अज़ाब-ए-ज़िंदगी, वैसे  सफ़र में कब रुका करते

मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी  सामना करते ।


ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं

बहुत से लोग अपने ही शराइत पर जिया करते ।


तुम्हारी ही सुनी ऎ ज़िंदगी ! जो भी कहा तुमने

हमारी भी सुनी होती तो कुछ हम भी कहा करते ।


गिरेंगी बिजलियाँ तय है कभी मेरे ठिकाने पर

हवादिश आशियाने पर मेरे अकसर हुआ करते।


कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,

तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।


कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी , हमने

तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।


नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -

जिन्हे करना वफ़ा ’आनन’ लब-ए-दम तक,किया करते।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 376

 


ग़ज़ल 376/ 52-अ

2122---2122---212---2

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ महज़ूफ़ नहीं है।


काश ! सूरत आप की असली नज़र आती

आप की सदभावना,  झूठी  नज़र आती ।


वक़्य आने पर खड़े होंगे चलो , माना 

काश ! उनके रीढ़ की हड्डी नज़र आती ।


जब भी सुनते राग दरबारी सुना करते 

वेदना मेरी उन्हें गाली  नज़र  आती ।


आदमी की मुफ़लिसी हो या कि रंज़-ओ-ग़म

अब उन्हें हर बात में ;कुर्सी; नज़र आती ।


जब से ’दिल्ली’ जा के बैठे हो गए अंधे

क्यारियाँ सूखी भी हरियाली नज़र आती ।


हाथ धोने के लिए बेताब बैठे हैं ,

’योजना’-गंगा सी कुछ बहती नज़र आती ।


आदमी की जब कभी बोली लगी ’आनन’

’आदमीयत’ मुफ़्त में बिकती नज़र आती ।


-आनन्द.पाठक-





ग़ज़ल 375

 


ग़ज़ल 375/ 51-अ

221---2121---1221---212[1]


बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब 

या तो नक़ाबपोश है या फिर है बेनिक़ाब


जिस आदमी की खुद की कभी रोशनी नहीं

औरों की रोशनी से चमकता है लाजवाब ।


सत्ता के जोड़-तोड़ में वह बेमिसाल है

उम्मीद कर रहें हैं कि लाएगा इन्क़िलाब ।


उस आदमी की डोर किसी और हाथ में

उड़ता है आसमान में उड़ता हे बेहिसाब।


वो झूठ को सच की तरह बोलता रहा

ऐसे ही लोग ज़िंदगी में आज कामयाब ।


उसकी नज़र में पहले तो शर्म-ओ-हया भी था

आता है सामने जो अब आता है बेहिजाब ।


’आनन’ जिधर भी देखिए हर शख़्स ग़मजदा

हर शख़्स की ज़ुबान पे तारी है ज़ह्र आब ।


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

इन्तिख़ाब = चुनाव

ज़ह्रआब = विष




ग़ज़ल 374

  ग़ज़ल 374

221---1222  // 221----1222


हम क़ैद में क्यों रहते, पिंजड़े में क्यों पलते

गर उनकी तरह हम भी, भेड़ों की तरह चलते ।


सच जान गए जितने ,आश्वस्त रहे उतने ,

वो झूठ के दम पर ही ,दुनिया को रहे छलते ।


बस कर्म किए जाना, होना है सो होगा ही

लिख्खे हैं जो क़िस्मत में ,टाले से कहाँ टलते ।


बिक जाते अगर हम भी, दुनिया तो नहीं रुकती

बस सर ही  झुकाना था, यह हाथ नहीं मलते ।


जुमलॊं से अगर सबको, गुमराह नहीं करते

आँखों में सभी  के तुम, सपनों की तरह पलते।


जीवन का यही सच है, चढ़ना है तो ढलना भी

सूरज भी यहाँ ढलता, तारे भी यहाँ ढलते ।


’आनन’ जो कभी तुमने, इतना तो किया होता

भटका न कोई होता,  दीपक सा अगर जलते ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 373

  

ग़ज़ल 373 [48-अ]

221---1222//221---1222


सुनना ही नहीं उनको, क्या उनको सुनाना है

बहरों के मुहल्लों में , क्या शंख बजाना है ।


सावन में हुआ अंधा, हर रंग हरा दिखता ,

मानेंगा नहीं जब वो, क्या सच का बताना है


दावा तो यही करता, वह एक खुली पुस्तक

हर पेज फटा जिसका, क्या है कि पढ़ाना है।


एहसान फ़रामोशी , रग रग में भरी उसके

वह जो भी कहे चाहे , सब झूठ बहाना है ।


चाबी का खिलौना है, चाबी से चला करता

जितनी हो ज़रूरत बस , उतना ही चलाना है।


मालूम सभी को है, है रीढ़ नहीं उसकी 

किस ओर ढुलक जाए, क्या उसका ठिकाना है ।


भीतर से बना हूँ जो , बाहर भी वही ’आनन’

दुनिया जो भले समझे, क्या है कि छुपाना है ।


-आनन्द.पाठक-

ग़ज़ल 372

 


ग़ज़ल 372 [43F]

2122---2122---2122


शहर का उन्वान कुछ बदला हुआ है

रात फिर लगता है कुछ घपला हुआ है।


लोग सहमें है , नज़र ख़ामोश है

आस्थाओं पर कहीं हमला हुआ है ?


लोग क्यों  नज़रें चुरा कर चल रहे अब,

मन का दरपन फिर कहीं धुँधला हुआ है ।


शहर के हालात कुछ अच्छे न दिखते,

मज़हबी कुछ सोच से गँदला हुआ है ।


रोशनी के नाम पर लाए अँधेरे ,

कौन सा यह रास्ता निकला हुआ है ?


मुफ़्त राशन, मुफ़्त पानी, मुफ़्त बिजली

आदमी बस झूठ से बहला हुआ है ।


आज ’आनन’ बुद्ध गाँधी की ज़रूरत

आदमी जब स्वार्थ का पुतला हुआ है ।


-आनन्द.पाठक-

सं 30-06-24


ग़ज़ल 371

 ग़ज़ल 371 [42F]

21---121---121---122


कितने रंग बदलता है, वह

ख़ुद ही ख़ुद को छलता है, वह ।


सीधी सादी राहों पर भी

टेढ़े-मेढ़े  चलता है , वह ।


जितना जड़ से कटता जाता

उतना और उछलता है, वह ।


बन्द किया है सब दरवाजे

अपने आप बहलता है, वह ।


करते हैं सब कानाफ़ूसी -

जिस भी राह निकलता है वह ।


औरों के पांवों से चलता ,

अपने पाँव न चलता है, वह।


’आनन’ की तो बात अलग है,

दीप सरीखा जलता है, वह ।


-आनन्द.पाठक-

सं 30-06-24