ग़ज़ल 398 [---]
21---121--121---122 // 21---121---121--12
आकर इस फ़ानी दुनिया में, चार दिनों की शान बने ,
चाल तुम्हारी टेढ़ी टेढ़ी, क्यों तुम नाफरमान बने ?
उनको क्या लेना-देना था, आदर्शों के मेले से-
गैरत अपनी बेंच दिए तो, ख़ुद अपनी पहचान बने ।
’राम-कथा’ कहते फ़िरते थे, गाँव-गली में वाचक बन
’दिल्ली’ जाकर जाने क्यों वह,’रावण’ के उन्वान बने ।
कल तक जिन हाथों में शोभित, दंड, कमंडल, माला थी
आज उन्हीं हाथों में जाकर, खंजर, तीर-कमान बने ।
कल तक खुद को खोज रहे थे, संबंधों की दुनिया में
गिरगिट-सा कुछ रंग बदल कर, आज वही अनजान बने ।
बात जहाँ पर तय होनी थी,चेहरे पर कितने चेहरे ,
जो चेहरे ’उपमेय’ नहीं थे, वो चेहरे ’उपमान’ बने ।
दुनिया मे क्या करने आए, पर क्या तुमने कर डाला,
’ढाई-आखर’ पढ़ कर” आनन’, क्यों ना तुम इन्सान बने?
-आनन्द पाठक-
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