शनिवार, 17 सितंबर 2022

ग़ज़ल 266

 ग़ज़ल 266 [31 E ]


221---2121---1221---212


वह क़ैद हो गया है अना के मकान में

खुद ही क़सीदा पढ़ रहा वो खुद की शान में


मैं जानता हूँ क्या है हक़ीक़त ज़मीन की

कुछ और ही बता रहा वो तर्ज़ुमान में


अपने बयान तो है उन्हें  ’मन्त्र’-सा लगे

दिखते तमाम खोट हैं मेरे बयान में


माया, फ़रेब, झूठ जहाँ, आप ही दिखे

शुहरत बड़ी है आप की दुनिया-जहान में


आया था इन्क़लाब का परचम लिए हुए

वो बात अब कहाँ रही उसकी जुबान में 


जादू है, मोजिज़ा है, हुनर है कमाल है 

बिन पंख उड़ रहा वो खुले आसमान में


लिख्खा गया हो शौक़ से, पढ़ता न हो कोई

’आनन’ को ढूँढिएगा उसी दास्तान में 


-आनन्द पाठक-


शब्दार्थ

अना = अहं. अहंकार

मोजिज़ा = चमत्कार

ग़ज़ल 265

 


ग़ज़ल 265(30E)

2122---2122--212


उनकी इशरत शादमानी और है

मेरे ज़ख़्मों की निशानी और है


उनकी ग़ज़लें और ही कुछ कह रहीं 

आइने की तर्ज़ुमानी और है


जो पढ़ा इतिहास क्या है सच वही

वक़्त की अपनी कहानी और है


रोटियों की बात पर ख़ामोश हैं

झूठ की जादूबयानी और है


बात वैसे आप की तो ठीक है

दिल की लेकिन हक़-बयानी और है


जर्द पत्ते शाख़ से टूटे हुए

दर बदर की ज़िंदगानी और है


नींद क्यों तुमको अभी आने लगी 

दास्तां सुननी सुनानी और है

 

आप ’आनन’ से कभी मिलिए ज़रा

शौक़ मेरा, मेज़बानी और है।


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

हक़बयानी - सच्ची बात




ग़ज़ल 264

 ग़ज़ल 264 [29 E]

2122---1212---22


 हाल -ए-दिल आप से छुपा है क्या

अर्ज़ करना कोई ख़ता है क्या ।


आप ही जब न हमसफ़र मेरे

फिर सफ़र में भला रखा है क्या


सामने हो के मुँह  घुमा लेना

ये तुम्हारी नई अदा है क्या


दर्द उठता है जब तुम्हें देखूँ

दर्द पारीन है नया है क्या


पाँव मेरे जमीन पर है नहीं

तुमने आँखों से कुछ कहा है क्या


इश्क के नाम इस ज़माने में 

काम कोई कहीं रुका है क्या


गर्मी-ए-शौक़ तो जगा दिल में

देख जीने में फिर मज़ा है क्या


छोड़ कर सब यहाँ से जाना है

साथ लेकर कोई गया है क्या


आप ऐसे न थे कभी साहब

आजकल आप को हुआ है क्या 


ग़ैब से आ रही सदा 'आनन'

आप ने भी कभी सुना है क्या

-आनन्द.पाठक-


दर्द-ए-पारीन = पुराना दर्द

ग़ैब से =अदॄश्य लोक से


ग़ज़ल 263

 ग़ज़ल 263 [28E]


2122--1212--112/22


बात दिल की सुना करे कोई 

ख़ुद से ख़ुद ज्यों  मिला करे कोई


राह सच की मुझे दिखाता है

मेरे दिल में रहा करे कोई


कौन है वो मैं जानता भी नहीं

मुझको मुझसे जुदा करे कोई


राह-ए-उल्फ़त तवील है इतना

कौन कितना चला करे कोई 


दर्द-ए-दिल का न हो शिफ़ाख़ाना

दर्द की क्या दवा करे कोई


जान कर भी हक़ीक़त-ए-दुनिया

मान ले सच तो क्या करे कोई


चन्द रोज़ां की ज़िन्दगी ’आनन’ 

क्यों न हँस कर जिया करे कोई 


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

शिफ़ाख़ाना = अस्पताल. चिकित्सालय


ग़ज़ल 262

  ग़ज़ल 262 [27 E]

122---122---122---122

कोई दर्द अपना छुपा कर हँसा है

कि क्या ग़म उसे है किसे ये पता है


वो क़स्में, वो वादे हैं कहने की बातें

कहाँ कौन किसके लिए कब मरा है


कभी तुमको फ़ुरसत मिले ग़ौर करना

तुम्हारी ख़ता थी  कि मेरी ख़ता है ।


मरासिम नहीं है तो क्या हो गया अब

अभी याद का इक बचा सिलसिला है


तुम्हीं ने चुना था ये राह-ए-मुहब्बत

पता क्या नहीं था कि राह-ए-फ़ना है


न आती है हिचकी, न कागा ही बोले

ख़ुदा जाने क्यों आजकल वो ख़फ़ा है


न मेरे हुए तुम अलग बात है ये

मगर दिल मेरा आज भी बावफा है


बची उम्र भर यूँ ही तड़पोगे ’आनन’

तुम्हारे किए की यही इक सज़ा है ।


-आनन्द.पाठक-

मरासिम = संबंध ,Relations

ग़ज़ल 261

 ग़ज़ल 261 [26 E]

2122---2122---2122


मज़हबी जो भी मसाइल, आप समझें

दिल मुहब्बत का ठिकाना ढूँढता  है 


झूठ को जब सच बता कर बेचना हो

आदमी क्या क्या बहाना ढूँढता  है 


हादिसा क्या रह गया बाक़ी कोई अब ?

क्यों मेरा ही  आशियाना ढूँढता  है ?


लौट कर आता नहीं बचपन किसी का

बेसबब क्यों दिन पुराना ढूँढता  है 


रोशनॊ अब तक नहीं उतरी जो दिल मे

फिर क्यों मौसम आशिक़ाना ढूँढता  है 


जिस फ़साने में जहाँ हो ज़िक्र उनका

दिल हमेशा वह फ़साना ढूँढता  है 


दिल कभी बेचैन होता जब ये ’आनन’

आप ही का आस्ताना ढूँढता  है 


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ


मसाइल = मसले, समस्यायें

आस्ताना = ड्योढ़ी ,चौखट ,दर


बुधवार, 14 सितंबर 2022

ग़ज़ल 260

 ग़ज़ल 260 [25 इ]


221--1222--//221--1222


कुछ और सफ़ाई में कहता भी तो क्या कहता

दुनिया ने जो समझा है, तुमने भी वही समझा 


इलज़ाम लगाना तो आसान बहुत सबको

 उँगली तो उठाते हो, अपना न तुम्हें दिखता


करना है तुझे जो कुछ, कर अपने भरोसे पर

दुनिया की फ़क़त बातें, बातों में है क्यों उलझा


तड़्पूँ जो इधर मैं तो, वो भी न तड़प जाए

हर बार मेरे दिल में रहता है यही खटका


रखता है नज़र कोई इक ग़ैब के पर्दे  से

छुपना भी अगर चाहूँ. ख़ुद को न छुपा सकता 


माना कि भरम है सब तुम हो तो इधर हम हैं

हम-तुम न अगर होते, दुनिया में है क्या रख्खा


’आनन’ ये ज़मीं अपनी जन्नत से न कम होती।

हर शख़्स मुहब्बत की जो राह चला करता ।


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 259

 ग़ज़ल 259 [24 E]


2122---2122---2122


ज़ाहिदों की बात में क्यों  आ रहा है ?

गर तू सादिक़ है तो क्यों घबरा रहा है? 


क्यो है नफ़रत? आप समझें, आप जाने

प्यार क्या है? दिल मुझे समझा रहा है


साज़िशें करने लगी है अब हवाएँ-

कौन है जो नफ़रतें भड़का रहा है


आप की तारीफ़ ख़ुद ही आप ,साहिब !

तरबियत अख़लाक़ ही बतला  रहा है 


ख़ाक तेरी ख़ाक बन उड़ जाएगी जब

किस लिबास-ए-जिस्म पे बल खा रहा है


ज़िंदगी तो दी ख़ुदा ने सादगी की

तू हवस का जाल ख़ुद फ़ैला रहा है


रोशनी दिल में नहीं उतरी जब ’आनन’

तू किधर गुमराह हो कर जा रहा  है ।


-आनन्द पाठक-


शब्दार्थ 

ज़ाहिद  = धर्मोपदेशक 

सादिक़  = सच्च न्यायनिष्ठ 

तर्बियत- अख़्लाक़ = संस्कार शिष्ट आचार



ग़ज़ल 258

 ग़ज़ल 258 [23E]


221---2122  // 221--2122


जब नाम ले के तुमने मुझको कभी बुलाया

सौ काम छोड़ कर मै दौड़ा चला था आया


इस इज़्तराब-ए-दिल की क्या क़ैफ़ियत कहूँ मै

जो प्यार से मिला बस ,अपना उसे बनाया


गुमराह हो गया ख़ुद वो ढूँढता फिरे है

रस्ता तुम्हारे घर का जिसने मुझे बताया

 

रिश्ता ये बाहमी है यह जाविदाँ अज़ल से

उबरा वही है अबतक जिसने इसे निभाया


मेरी इबादतें थी या आप की नवाज़िश 

हर शै में आप ही का चेहरा उभर के आया


हिर्स-ओ-हवस, अना से, निकला कभी जो बाहर

बेलौस साफ़ अपना किरदार रास आया


अपने गुनाह लेकर जाते किधर को जाते

पूछा कभी तो सबने दर आप का बताया


उनकी गली में ’आनन’ जाओगे भी तो कैसे

तुमने चिराग़-ए-उल्फ़त है क्या कभी जलाया ?


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

इज़्तराब-ए-दिल = दिल की बेचैनी/व्याकुलता

बाहमी रिश्ता = परस्पर आपसी रिश्ता

जाविदा      = शाश्वत ,नित्य , अमर

हिर्स-ओ-हवस,अना से = लोभ मोह वासना अहम घमण्ड से

बेलौस साफ़  = पाक बेदाग़ साफ़


ग़ज़ल 257

 


ग़ज़ल 257[22E]


221---2121---1221--212


हर बार अपनी पीठ स्वयं थपथपा रहे

’कट्टर इमानदार हैं-खुद को बता रहे


दावे तमाम खोखले हैं ,जानते सभी

क्यों लोग बाग उनके छलावे में आ रहे?


झूठा था इन्क़लाब, कि सत्ता की भूख थी

कुर्सी मिली तो बाद अँगूठा  दिखा रहे


उतरे हैं आसमान से सीधे ज़मीन पर

जो सामने दिखा उसे बौना बता रहे


वह बाँटता है ’रेवड़ी’ खुलकर चुनाव में

जो  लोग मुफ़्तखोर हैं झाँसे मे आ रहे


वो माँगते सबूत हैं देते मगर न खुद

आरोप बिन सबूत के सब पर लगा रहे


वैसे बड़ी उमीद थी लोगों की ,आप से

अपना ज़मीर आप कहाँ बेच-खा रहे


’आनन’ वो तीसमार है इसमें तो शक नहीं

वो बार बार काठ की हंडी चढ़ा रहे ।


-आनन्द.पाठक-

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ग़ज़ल 256

 ग़ज़ल 256 [21E]


221---2121--1221---212


सिर्फ़ आसमान में न उड़ा कीजिए, जनाब !

नज़रें ज़मीन पर भी रखा कीजिए जनाब‘


इतनी तिजोरियाँ न भरा कीजिए जनाब‘

कुछ कर्ज़ ’वोट’का तो अदा कीजिए जनाब‘


जो ज़ख़्म भर गया था समय के हिसाब से

उस ज़ख़्म को न फिर से हरा कीजिए जनाब‘


क्यों सब्ज़ बाग़ आप दिखाते हैं रोज़-रोज़

’रोटी’ की बात भी तो ज़रा कीजिए जनाब 


आवाज़ दे रहा हूँ खड़ा हाशिए से, मैं

आवाज़-ए-इन्क़लाब सुना कीजिए जनाब


"दुनिया में कोई और बड़ा है न आप से"

इन बदगुमानियों से बचा कीजिए जनाब


’आनन’ की बात आप को शायद बुरी  लगे

अपनी ही बात से न फिरा कीजिए जनाब‘


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 255

 ग़ज़ल 255 [20E]

221---2121--1221--212


उनसे हुआ है आज तलक सामना नहीं

कोई ख़बर नहीं है कोई राबिता नहीं


दिल की ज़ुबान दिल ही समझता है ख़ूबतर

तुमने सुना वही कि जो मैने कहा नहीं


दावा तमाम कर रहे हो इश्क़ का मगर

लेकिन तुम्हारे इश्क़ में हर्फ़-ए-वफ़ा नहीं


आती नहीं नज़र मुझे ऐसी तो कोई  शै

जिसमें तुम्हारे हुस्न का जादू दिखा नहीं‘


वो हमनवा है, यार है, सुनता हूँ आजकल‘

वो मुझसे बेनियाज़ है लेकिन ख़फ़ा नहीं‘


वह राह कौन सी है जो आसान हो यहाँ

इस दिल ने राह-ए-इश्क़ में क्या क्या सहा नहीं‘


लोगो की बात को न सुना कीजिए , हुज़ूर 

कहना है उनका काम, मै दिल का बुरा नहीं 


जो भी सुना है तुमने किसी और से सुना

’आनन’ खुली किताब है तुमने पढ़ा नहीं‘


-आनन्द.फाठक-


शब्दार्थ 

राबिता =राब्ता = सम्पर्क

शै         = चीज़

हमनवा‘ = समान राय वाला

बेनियाज़ = बेपरवा 


ग़ज़ल 254

 ग़ज़ल 254

221--2121--1221--212


जो हो रहा है उस पे कहा कीजिए हुज़ूर!

नफ़रत की आग की तो दवा कीजिए, हुज़ूर!


ऎसा न हो अवाम सड़क पर उतर पड़े

क्या कह रहा अवाम सुना कीजिए हुज़ूर !


माना कि हम ग़रीब हैं, ग़ैरत तो है बची

जूते की नोक पर न रखा कीजिए, हूज़ूर !


दीवार पे लिखी है इबारत पढ़ा करें-

आवाज़ वक़्त की भी सुना कीजिए, हुज़ूर !


पाला बदल बदल के ये ’कुर्सी’ तो बच गई

गिरवी ज़मीर को न रखा  कीजिए. हुज़ूर !


चेहरा जो आइने में कभी आ गया नज़र

चेहरा है आप का, न डरा कीजिए हुज़ूर !


’आनन’ तो सरफिरा है कि सच बोलता है वो

दिल पर न उसकी बात लिया कीजिए, हुज़ूर !


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 253

 ग़ज़ल 253


221---2122--// 221-2122


क्या हाल-ए-दिल सुनाऊँ, क्या और कुछ बताऊँ 

जब सब ख़बर है तुमको फिर और क्या छुपाऊँ


जो हो गया मु’अल्लिम, राहें बता रहे हैं-

मुझको पता नहीं है किस राह से मैं आऊँ


देखूँ उन्हें तो कैसे, इक धुन्द-सा घिरा है

निकलूँ कभी अना से तो साफ़ देख पाऊँ


दुनिया के कुछ फ़राइज़, हिर्स-ओ-हसद के फ़न्दे

मैं क़ैद हूँ हवस में, आऊँ तो कैसे आऊँ


आवाज़ दे रहा है, वह कौन जो बुलाता

कार-ए-जहाँ से फ़ुरसत पाऊँ अगर तो आऊँ


देखूँ जो दूर से भी जब आस्ताँ तुम्हारा 

उस सिम्त बा अक़ीद्त सज़्दे में सर झुकाऊँ


हो आप की इजाज़त ’आनन’ की आरज़ू है

जिस राह आप गुज़रें पलकें उधर बिछाऊँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

मु’अल्लिम

अना से = अहम से 

फ़राइज़  = फ़र्ज़ का ब0व0

हिर्स-ओ-हसद= लालच इर्ष्या लोभ मोह माया

 कार-ए जहाँ से = दुनिया के कामों से 

आस्तां = चौखट ,ड्योढ़ी

उस सिम्त = उस दिशा में 

बाअक़ीदत = श्रद्धा पूर्वक


ग़ज़ल 252

 ग़ज़ल 252


221--2122 // 221--2122


यह नज़्म ज़िंदगी की होती कहाँ है पूरी

हर बार पढ़ रहा हूँ, हर बार है अधूरी


दोनों‘ अज़ीज़ मुझको पस्ती भी और बुलन्दी

इस ज़िंदगी में दोनों होना भी है ज़रूरी 


नायाब ज़िंदगी में क्यों ज़ह्र घोलता है

हर वक़्त बदगुमानी क्यों सोच है फ़ुतूरी


राहें तमाम राहें जातीं तम्हारे दर तक

लेकिन बनी हुई है दो दिल के बीच दूरी


हर दौर में है देखा बैसाखियों पे चल कर

वो मीर-ए-कारवां है कर कर के जी हुज़ूरी


इक दिन ज़रूर उनको मज़बूर कर ही देगी

बेअख्तियार दिल की मेरी ये नासबूरी

 

उम्मीद तो है ’आनन’, पर्दा उठेगा रुख से

मैं मुन्तज़िर अज़ल से कब तक सहूँ मैं दूरी 


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

पस्ती = पतन 

फ़ुतूरी सोच = फ़सादी सोच

मीर-ए-कारवाँ = कारवां का नलीडर 

नासबूरी = अधीरता 

मुन्तज़िर अज़ल से = अनादि काल से/ हमेशा से प्रतीक्षारत 


ग़ज़ल 251

 ग़ज़ल 251

2122---2122---2122


धुन्द फैला, फैलता ही जा रहा है 

और गुलशन दिन ब दिन मुरझा रहा है


झूठ को ही सच बता कर, मुस्करा कर

वह दलाइल से हमें भरमा रहा है


पस्ती-ए-अख़्लाक़ कैसी हो गई अब

आदमी ख़ुद को किधर ले जा रहा है


जंग अपनी ख़ुद तुम्हें लड़नी पड़ेगी

हाशिए पर क्यों‘ खड़ा चिल्ला रहा है


कल तलक‘ चेहरा शराफ़त का सनद था

बाल शीशे में नज़र अब आ रहा है


कौन है जो साजिशों का जाल बुनता

कौन है जो बरमला धमका रहा है


खिड़कियाँ क्यों बन्द कर रख्खा है, प्यारे !

खोल दे अब, दम ये घुटता जा‘ रहा है


रोशनी रुकती कहाँ रोके से ’आनन’

ख़ैर मक़्दम है,  उजाला आ रहा है


शब्दार्थ

दलाइल से = दलीलों से

पस्ती-ए-अख़्लाक़ = चारित्रिक पतन

बाल शीशे में नज़र आना = दोष नज़र आना

बरमला = खुल्लमखुल्ला. खुले आम