सोमवार, 7 नवंबर 2022

ग़ज़ल 283

 ग़ज़ल 283


2122---2122---212


आप से है एक रिश्ता जाविदाँ

एक क़तरा और बह्र-ए-बेकराँ


एक सी है राजमहलों की कथा

वक़्त के हाथों मिटा नाम-ओ-निशाँ


छोड़ कर महफ़िल तेरी जाना हमे

वक़्त सबका जब मुक़र्रर हैं यहाँ


और भी दुनिया में हैं तेरी तरह

एक तू ही तो नहीं है सरगिराँ  


चाहतों में ही उलझ कर रह गई

हर बशर की नामुकम्मल दास्ताँ


संग-ए-दिल भी चीख उठता देख कर

जब उजड़ता है किसी का आशियाँ


वह ज़माना अब कहाँ ’आनन’ रहा

ज़ाँ-ब लब तक जब निभाते थे ज़बाँ


-आनन्द.पाठक- 

शनिवार, 5 नवंबर 2022

ग़ज़ल 281

 ग़ज़ल 281(46E)


212--212--212--212


 याद में यार की मै रहा मुब्तिला

कौन आया गया कुछ न मुझको पता


इश्क आवाज़ देता न जो हुस्न को

क्या न होती ये तौहीन-ए-हुस्न-ओ-अदा ?


बारहा कौन करता इशारा मुझे

ग़ैब से कौन देता है मुझको सदा


मैने चाहा कि अपना बना लूँ उसे

ज़िन्दगी से रहा बेसबब फ़ासला


एक क़तरे में तूफ़ाँ का इमकान है

वक़्त आने दे फिर देख होता है क्या


मैकदा भी यहीं और मसजिद यहीं

और दोनो में है एक सा ही नशा


ख़ुद के अन्दर नहीं ढूँढ पाया जिसे

फिर तू दैर-ओ-हरम में किसे ढूँढता ?


राह-ए-उल्फ़त में होना फ़ना जब नहीं

क्या समझ कर तू ’आनन’ इधर आ गया?


-आनन्द.पाठक-


ग़ज़ल 282

 ग़ज़ल 282/47

2122--2122--212

प्यार में होता नहीं सूद-ओ-ज़ियाँ

वक़्त लेता हर क़दम पर इम्तिहाँ


आँख करती आँख से जब गुफ़्तगू

आँख पढ़ती आँख का हर्फ़-ए-बयाँ


इक मुकम्मल दास्तान-ए-ग़म कभी

अश्क की दो बूँद में होती निहाँ


कौन सा रिश्ता कभी टूटा नहीं

शक अगर हो दो दिलों के दरमियाँ 


वस्ल की सूरत निकल ही आएगी

हूँ भले ही मैं ज़मीं, तुम आसमाँ


ज़िंदगी रंगीन भी आती नज़र

देखते जब आप इसमें ख़ूबियाँ


लोग हैं अपने मसाइल में फ़ँसे

कौन सुनता है किसी की दास्ताँ


इश्क़ में ’आनन’ अभी नौ-मश्क़ हो

हार कर ही जीत मिलती हैं यहाँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

सूद-ओ-ज़ियां = हानि-लाभ

निहाँ = छुपा हुआ

वस्ल = मिलन

मसाइल =मसले.समस्यायें

नौ-मश्क़ = नए नए अनाड़ी


 

गुरुवार, 3 नवंबर 2022

ग़ज़ल 280:

 ग़ज़ल 280[45 इ]

212--212--212--212


भूल पाया जिसे उम्र भर भी नहीं

उसने देखा मुझे इक नज़र भी नहीं


धूल चेहरे पे उसके जमी है मगर

हैफ़!  इसकी उसे कुछ ख़बर भी नहीं


आस ले कर हूँ बैठा उसी राह पर

जो कभी उसकी है रहगुज़र भी नहीं


मेरी बातों को सुन, अनसुना कर दिया

या ख़ुदा ! उस पे होता असर भी नहीं


मैं सुनाऊँ भी क्या और किस बाब से

दास्ताँ अपना है मुख़्तसर भी नहीं


एक दीपक अकेला रहा जूझता

इन हवाओ से लगता है डर भी नहीं


जो ख़यालों में मेरे हमेशा रहा

आजकल हमसुख़न हमसफ़र भी नहीं


 जिस्म-ए-फ़ानी को ’आनन’ जो समझा था घर

वक़्त-ए-आख़िर रहा तेरा घर भी नहीं



-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

हैफ़ ! = अफ़सोस 

बाब     = अध्याय [ Chapter,]

मुख़्तसर = संक्षेप [ in short ]

जिस्म-ए-फ़ानी = नश्वर शरीर

वक़्त-ए-आख़िर =  अन्त समय में


ग़ज़ल 279:

 ग़ज़ल 279/44

1222---1222---1222---1222


समझना ही न चाहो तुम, कहाँ तक तुमको समझाते

हम अपनी बेगुनाही की कसम कितनी भला खाते


तुम्हे फ़ुरसत नहीं मिलती कभी ख़ुद की नुमाइश से

हक़ीक़त सब समझते हैं ज़रा तुम भी समझ जाते


समन्दर ने डुबोया है मेरी कश्ती किनारे पर

तमाशा देखने तुम भी किनारे तक चले आते 


बहुत सी बात ऐसी है कि अपना बस नहीं चलता

फ़साना बेबसी का काश! हम तुमको सुना पाते


अगर दिल साफ़ यह होता नशे में झूमते रहते

जिधर हम देखते जानम! उधर तुम ही नज़र आते


बहुत लोगो ने समझाया कि उनके रास्ते बेहतर

मगर यह छोड़ कर राह-ए-मुहब्बत हम कहाँ जाते 


बड़ा आसान होता है उठाना उँगलियाँ ’आनन’

भला लगता अगर तुम ख़ुद जो कद अपना बढ़ा पाते


-आनन्द पाठक-


ग़ज़ल 281

 ग़ज़ल 281(46E)


212--212--212--212


मैं रहा यार की याद में मुब्तिला

कौन आया गया कुछ नहीं है पता


इश्क आवाज़ देता न जो हुस्न को

क्या न होती ये तौहीन-ए-हुस्न-ओ-अदा ?


बारहा कौन करता इशारा मुझे

ग़ैब से कौन देता है मुझको सदा


मैने चाहा कि अपना बना लूँ उसे

ज़िन्दगी से रहा बेसबब फ़ासला


एक क़तरे में तूफ़ाँ का इमकान है

वक़्त आने दे फिर देख होता है क्या


मैकदा भी यहीं और मसजिद यहीं

और दोनो में है एक सा ही नशा


ख़ुद के अन्दर नहीं ढूँढ पाया जिसे

फिर तू दैर-ओ-हरम में किसे ढूँढता ?


राह-ए-उल्फ़त में होना फ़ना जब नहीं

क्या समझ कर तू ’आनन’ इधर आ गया?


-आनन्द.पाठक-