ग़ज़ल 281(46E)
212--212--212--212
मैं रहा यार की याद में मुब्तिला
कौन आया गया कुछ नहीं है पता
इश्क आवाज़ देता न जो हुस्न को
क्या न होती ये तौहीन-ए-हुस्न-ओ-अदा ?
बारहा कौन करता इशारा मुझे
ग़ैब से कौन देता है मुझको सदा
मैने चाहा कि अपना बना लूँ उसे
ज़िन्दगी से रहा बेसबब फ़ासला
एक क़तरे में तूफ़ाँ का इमकान है
वक़्त आने दे फिर देख होता है क्या
मैकदा भी यहीं और मसजिद यहीं
और दोनो में है एक सा ही नशा
ख़ुद के अन्दर नहीं ढूँढ पाया जिसे
फिर तू दैर-ओ-हरम में किसे ढूँढता ?
राह-ए-उल्फ़त में होना फ़ना जब नहीं
क्या समझ कर तू ’आनन’ इधर आ गया?
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें