शनिवार, 11 जून 2022

ग़ज़ल 241

 ग़ज़ल 241

1222---1222---1222--1222

तुम्हारी जालसाजी में उन्हें कुछ तो दिखा होगा

उन्हें कुछ तो सबूतों में, बयानों मे मिला होगा


बिना पूछॆ सफ़ाई में जो चाहे सो कहो, लेकिन

धुआँ बिन आग का होता कहाँ ? तुमको पता होगा


तुम्हीं मुजरिम, तुम्ही मुन्सिफ़, गवाही में खड़े तुम ही

सियासत की है मजबूरी ,तुम्हें करना पड़ा होगा


हमें तुम क्या समझते हो, हमे सच क्या नहीं मालूम?

"हरिशचन्दर’ नहीं हो तुम ,ये तुमको भी पता होगा 


तुम्हारी झूठ की खेती, तुम्हारे झूठ का धन्धा

तुम्हारा "ऎड" टी0वी0 पर निरन्तर चल रहा होगा


वो कह कर तो यही आया 'बदलना है निज़ामत को'

ख़बर क्या थी कि "कुर्सी" के लिए अन्धा हुआ होगा


जहाँ अपनी सफ़ाई में सदाक़त ख़ुद क़सम खाती

समझ लो झूठ की जानिब यक़ीनन फ़ैसला होगा


कहें हम क्या उसे ’आनन’,  मुख़ौटॊं पर मुखौटे हैं

लिए मासूम सा चेहरा वो सबको छल रहा होगा 


-आनन्द.पाठक--
शब्दार्थ

निज़ामत = व्यवस्था

सदाक़त = सच्चाई

पोस्टेड 04-06-22

ग़ज़ल 240

 ग़ज़ल 240 [05E]


221---1222 // 221--1222


दिल ने जो कहा मुझसे,मैं काश ! सुना होता

दुनिया को समझने में धोखा न हुआ होता


करता भी वुज़ू कैसे, मन साफ़ नहीं था जब

दिल और कहीं हो तो, सजदा क्या भला होता


तक़रीर तेरी ज़ाहिद माना कि सही लेकिन

मेरा भी सनम कैसा, मुझसे भी सुना होता


कूचे से तेरे गुज़रे,  याद आए गुनह मेरे

दिल साफ़ रहा होता ,नादिम न हुआ होता


आग़ाज़-ए-मुहब्बत का होता है मुहूरत क्या

शिद्दत से कभी तुमने आग़ाज़ किया होता


औरों की तरह तुमने अपना न मुझे समझा

जो बात दबी दिल में ,मुझसे तो कहा होता


दुनिया के मसाइल में, उलझा ही रहा ’आनन’

फ़ुरसत जो मिली होती, दर तेरे गया होता ।


-आनन्द.पाठक-

वुज़ू  = नमाज़ के पहले शुद्ध होना

तक़रीर  = प्रवचन

आग़ाज़   = शुरुआत

मसाइल  = मसले


ग़ज़ल 239

 ग़ज़ल 239 [04 E]


2122---1212--112/22


इश्क़ रुस्वा नहीं हुआ होता

नाम उ्नका न जो लिया होता


ग़ौर से देखते जो तुम मुझको

दिल में इक आइना दिखा होता


सोचता हूँ मैं इक ज़माने से

तुम न होते अगर तो क्या होता


ज़िन्दगी में तमाम रंग भरे

रंग तेरा भी जो भरा होता


आदमी में न कुछ कमी हो तो

आदमी देवता बना होता


हिज्र होता है क्या समझ जाते

दिल कहीं आप का लगा होता


उम्र भर मुन्तज़िर रहा ’आनन’

वो जो दो पल को आ मिला होता



-आनन्द.पाठक-


हिज्र = जुदाई ,वियोग

मुन्तज़िर = इन्तज़ार में प्रतीक्षारत


ग़ज़ल 238

 ग़ज़ल 238 [03E]


1212--1122---1212---22


सुरूर उनका जो मुझ पर चढ़ा नहीं होता 

ख़ुदा क़सम कि मैं खुद से जुदा नहीं होता


हमारे इश्क़ में कुछ तो कमी रही होगी

क्यूँ आजकल वो सितमगर ख़फ़ा नहीं होता


निगाह आप की जाने किधर किधर रहती

निगाह-ए-शौक़ से क्यूँ सामना नहीं होता


निशान-ए-पाँव किसी और के रहे होते

यक़ीन मानिए यह सर झुका नहीं होता


ख़याल आप का दिन रात साथ रहता है

ख़याल-ओ-ख़्वाब में खुद का पता नहीं होता


नज़र जो आप की मुझसे नहीं लड़ी होती

सुकून-ओ-चैन मेरा यूँ लुटा नहीं होता


सफ़र हयात का ’आनन’ भला कहाँ कटता

जो साथ आप का मुझको मिला नहीं होता


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ


सुरूर = चढ़ता हुआ नशा

पस-ए-पर्दा = पर्दे के पीछे से 


ग़ज़ल 237

 ग़ज़ल 237 [ 02E]


122---122--122---122


इबादत में अब वो मुहब्बत कहाँ है

हुई अब तिजारत ,सदाक़त कहाँ है


जिधर से चलो तुम उधर रोशनी है

उठा दो जो पर्दा तो जुल्मत कहाँ है


जो नाज़-ओ-अदा से खड़ी सामने हो

तुम्हीं पूछती हो क़यामत कहाँ है


करम वो, नवाज़िश, मुरव्वत, इयादत

तुम्हारी पुरानी वो आदत कहाँ है 


नया दौर है यह नई रोशनी है

मुहब्बत में शिद्दत की रंगत कहाँ है


वो लैला, वो मजनूँ,वो शीरी, वो फ़रहाद

हैं पारीन किस्से ,हक़ीक़त कहाँ है


इस ’आनन’ से तुमको शिकायत बहुत है

रफ़ाक़त है तुमसे ,अदावत कहाँ है 


-आनन्द.पाठक- 

शब्दार्थ

जुल्मत =अँधेरा

इयादत = रोगी का हाल-चाल पूछना

पारीन = पुराने

रफ़ाक़त = दोस्ती

ग़ज़ल 236

 



1222---1222---1222---1222


ग़ज़ल 236[37 D]


तुम्हारी ज़ुल्फ़ को छू कर हवाएँ गा रहीं सरगम

तुम्हे जब देख लेती हैं नशे में झूमती  हरदम


हमेशा पूछती कलियाँ बता ऎ बाग़वाँ मेरे !

चमन में कौन आता है बहारों का लिए मौसम


न कोई अब तमन्ना है, न कोई आरज़ू बाक़ी

हुए जब से हमारे तुम ख़ुशी का है इधर आलम


फ़रिश्तों ने बताया था तुम्हारी कैफ़ियत सारी

वही सच मान कर हर्फ़न इबादत कर रहे हैं हम


ज़ुबाँ जब दे दिया तुमको, निभाना जानता भी हूँ

कभी तुम आजमा लेना रहूँगा मैं सदा क़ायम


न कोई शर्त होती है, न शिकवा ही मुहब्बत में

मुहब्बत का सफ़र होता लब-ए-दम तक मेरे जानम 


तसव्वुर मे , ख़यालों में, तुम्हारा मुन्तज़िर ’आनन’

मुजस्सम तुम चले आते तो मिट जाते हमारे ग़म 


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

 कैफ़ियत =ब्यौरा, विवरण

हर्फ़न     = अक्षरश:

लब-ए-दम  तक =आखिरी साँस तक

मुन्तज़िर = प्रतीक्षारत

मुजस्सम  = सशरीर


ग़ज़ल 235

 ग़ज़ल 235[03 D]


221--1222 //221---1222


हालात-ए-खुमारी में जाने मैं किधर आया

मालूम नहीं मुझको कब यार का दर आया


कैसी ये कहानी है तुमने जो सुनाई है

सीने में छुपा मेरा इक दर्द उभर आया


है कौन यहाँ ऐसा जिसको न मिला ग़म हो

हर बार तपा हूँ मैं, हर बार निखर आया


जीवन का सफ़र है क्या? मर मर के यहाँ जीना

कालीन बिछी राहें ?, ऐसा न सफ़र आया


आती है सदा किसकी करता है इशारे कौन?

कोई तो यक़ीनन है लेकिन न नज़र आया


जीवन के सफ़र में, हाँ ,ऐसा भी हुआ अकसर

ज़ुल्मत न उधर बीती, सूरज न इधर आया


दुनिया के झमेलों में, उलझा ही रहा ’आनन’

जब आँख खुली उसकी, तब लौट के घर आया


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

ज़ुल्मत = अँधेरा ,तीरगी