शनिवार, 11 जून 2022

ग़ज़ल 235

 ग़ज़ल 235[03 D]


221--1222 //221---1222


हालात-ए-खुमारी में जाने मैं किधर आया

मालूम नहीं मुझको कब यार का दर आया


कैसी ये कहानी है तुमने जो सुनाई है

सीने में छुपा मेरा इक दर्द उभर आया


है कौन यहाँ ऐसा जिसको न मिला ग़म हो

हर बार तपा हूँ मैं, हर बार निखर आया


जीवन का सफ़र है क्या? मर मर के यहाँ जीना

कालीन बिछी राहें ?, ऐसा न सफ़र आया


आती है सदा किसकी करता है इशारे कौन?

कोई तो यक़ीनन है लेकिन न नज़र आया


जीवन के सफ़र में, हाँ ,ऐसा भी हुआ अकसर

ज़ुल्मत न उधर बीती, सूरज न इधर आया


दुनिया के झमेलों में, उलझा ही रहा ’आनन’

जब आँख खुली उसकी, तब लौट के घर आया


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

ज़ुल्मत = अँधेरा ,तीरगी

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