ग़ज़ल 238 [03E]
1212--1122---1212---22
सुरूर उनका जो मुझ पर चढ़ा नहीं होता
ख़ुदा क़सम कि मैं खुद से जुदा नहीं होता
हमारे इश्क़ में कुछ तो कमी रही होगी
क्यूँ आजकल वो सितमगर ख़फ़ा नहीं होता
निगाह आप की जाने किधर किधर रहती
निगाह-ए-शौक़ से क्यूँ सामना नहीं होता
निशान-ए-पाँव किसी और के रहे होते
यक़ीन मानिए यह सर झुका नहीं होता
ख़याल आप का दिन रात साथ रहता है
ख़याल-ओ-ख़्वाब में खुद का पता नहीं होता
नज़र जो आप की मुझसे नहीं लड़ी होती
सुकून-ओ-चैन मेरा यूँ लुटा नहीं होता
सफ़र हयात का ’आनन’ भला कहाँ कटता
जो साथ आप का मुझको मिला नहीं होता
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
सुरूर = चढ़ता हुआ नशा
पस-ए-पर्दा = पर्दे के पीछे से
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