गुरुवार, 3 नवंबर 2022

ग़ज़ल 280:

 ग़ज़ल 280[45 इ]

212--212--212--212


भूल पाया जिसे उम्र भर भी नहीं

उसने देखा मुझे इक नज़र भी नहीं


धूल चेहरे पे उसके जमी है मगर

हैफ़!  इसकी उसे कुछ ख़बर भी नहीं


आस ले कर हूँ बैठा उसी राह पर

जो कभी उसकी है रहगुज़र भी नहीं


मेरी बातों को सुन, अनसुना कर दिया

या ख़ुदा ! उस पे होता असर भी नहीं


मैं सुनाऊँ भी क्या और किस बाब से

दास्ताँ अपना है मुख़्तसर भी नहीं


एक दीपक अकेला रहा जूझता

इन हवाओ से लगता है डर भी नहीं


जो ख़यालों में मेरे हमेशा रहा

आजकल हमसुख़न हमसफ़र भी नहीं


 जिस्म-ए-फ़ानी को ’आनन’ जो समझा था घर

वक़्त-ए-आख़िर रहा तेरा घर भी नहीं



-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

हैफ़ ! = अफ़सोस 

बाब     = अध्याय [ Chapter,]

मुख़्तसर = संक्षेप [ in short ]

जिस्म-ए-फ़ानी = नश्वर शरीर

वक़्त-ए-आख़िर =  अन्त समय में


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