शनिवार, 5 नवंबर 2022

ग़ज़ल 282

 ग़ज़ल 282/47

2122--2122--212

प्यार में होता नहीं सूद-ओ-ज़ियाँ

वक़्त लेता हर क़दम पर इम्तिहाँ


आँख करती आँख से जब गुफ़्तगू

आँख पढ़ती आँख का हर्फ़-ए-बयाँ


इक मुकम्मल दास्तान-ए-ग़म कभी

अश्क की दो बूँद में होती निहाँ


कौन सा रिश्ता कभी टूटा नहीं

शक अगर हो दो दिलों के दरमियाँ 


वस्ल की सूरत निकल ही आएगी

हूँ भले ही मैं ज़मीं, तुम आसमाँ


ज़िंदगी रंगीन भी आती नज़र

देखते जब आप इसमें ख़ूबियाँ


लोग हैं अपने मसाइल में फ़ँसे

कौन सुनता है किसी की दास्ताँ


इश्क़ में ’आनन’ अभी नौ-मश्क़ हो

हार कर ही जीत मिलती हैं यहाँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

सूद-ओ-ज़ियां = हानि-लाभ

निहाँ = छुपा हुआ

वस्ल = मिलन

मसाइल =मसले.समस्यायें

नौ-मश्क़ = नए नए अनाड़ी


 

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