ग़ज़ल 252
221--2122 // 221--2122
यह नज़्म ज़िंदगी की होती कहाँ है पूरी
हर बार पढ़ रहा हूँ, हर बार है अधूरी
दोनों‘ अज़ीज़ मुझको पस्ती भी और बुलन्दी
इस ज़िंदगी में दोनों होना भी है ज़रूरी
नायाब ज़िंदगी में क्यों ज़ह्र घोलता है
हर वक़्त बदगुमानी क्यों सोच है फ़ुतूरी
राहें तमाम राहें जातीं तम्हारे दर तक
लेकिन बनी हुई है दो दिल के बीच दूरी
हर दौर में है देखा बैसाखियों पे चल कर
वो मीर-ए-कारवां है कर कर के जी हुज़ूरी
इक दिन ज़रूर उनको मज़बूर कर ही देगी
बेअख्तियार दिल की मेरी ये नासबूरी
उम्मीद तो है ’आनन’, पर्दा उठेगा रुख से
मैं मुन्तज़िर अज़ल से कब तक सहूँ मैं दूरी
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
पस्ती = पतन
फ़ुतूरी सोच = फ़सादी सोच
मीर-ए-कारवाँ = कारवां का नलीडर
नासबूरी = अधीरता
मुन्तज़िर अज़ल से = अनादि काल से/ हमेशा से प्रतीक्षारत
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