शनिवार, 17 सितंबर 2022

ग़ज़ल 262

  ग़ज़ल 262 [27 E]

122---122---122---122

कोई दर्द अपना छुपा कर हँसा है

कि क्या ग़म उसे है किसे ये पता है


वो क़स्में, वो वादे हैं कहने की बातें

कहाँ कौन किसके लिए कब मरा है


कभी तुमको फ़ुरसत मिले ग़ौर करना

तुम्हारी ख़ता थी  कि मेरी ख़ता है ।


मरासिम नहीं है तो क्या हो गया अब

अभी याद का इक बचा सिलसिला है


तुम्हीं ने चुना था ये राह-ए-मुहब्बत

पता क्या नहीं था कि राह-ए-फ़ना है


न आती है हिचकी, न कागा ही बोले

ख़ुदा जाने क्यों आजकल वो ख़फ़ा है


न मेरे हुए तुम अलग बात है ये

मगर दिल मेरा आज भी बावफा है


बची उम्र भर यूँ ही तड़पोगे ’आनन’

तुम्हारे किए की यही इक सज़ा है ।


-आनन्द.पाठक-

मरासिम = संबंध ,Relations

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें