शनिवार, 17 सितंबर 2022

ग़ज़ल 261

 ग़ज़ल 261 [26 E]

2122---2122---2122


मज़हबी जो भी मसाइल, आप समझें

दिल मुहब्बत का ठिकाना ढूँढता  है 


झूठ को जब सच बता कर बेचना हो

आदमी क्या क्या बहाना ढूँढता  है 


हादिसा क्या रह गया बाक़ी कोई अब ?

क्यों मेरा ही  आशियाना ढूँढता  है ?


लौट कर आता नहीं बचपन किसी का

बेसबब क्यों दिन पुराना ढूँढता  है 


रोशनॊ अब तक नहीं उतरी जो दिल मे

फिर क्यों मौसम आशिक़ाना ढूँढता  है 


जिस फ़साने में जहाँ हो ज़िक्र उनका

दिल हमेशा वह फ़साना ढूँढता  है 


दिल कभी बेचैन होता जब ये ’आनन’

आप ही का आस्ताना ढूँढता  है 


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ


मसाइल = मसले, समस्यायें

आस्ताना = ड्योढ़ी ,चौखट ,दर


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