ग़ज़ल 266 [31 E ]
221---2121---1221---212
वह क़ैद हो गया है अना के मकान में
खुद ही क़सीदा पढ़ रहा वो खुद की शान में
मैं जानता हूँ क्या है हक़ीक़त ज़मीन की
कुछ और ही बता रहा वो तर्ज़ुमान में
अपने बयान तो है उन्हें ’मन्त्र’-सा लगे
दिखते तमाम खोट हैं मेरे बयान में
माया, फ़रेब, झूठ जहाँ, आप ही दिखे
शुहरत बड़ी है आप की दुनिया-जहान में
आया था इन्क़लाब का परचम लिए हुए
वो बात अब कहाँ रही उसकी जुबान में
जादू है, मोजिज़ा है, हुनर है कमाल है
बिन पंख उड़ रहा वो खुले आसमान में
लिख्खा गया हो शौक़ से, पढ़ता न हो कोई
’आनन’ को ढूँढिएगा उसी दास्तान में
-आनन्द पाठक-
शब्दार्थ
अना = अहं. अहंकार
मोजिज़ा = चमत्कार
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