ग़ज़ल 267
122---122---122--122
उजालों को तुमने न आने दिया है
तो कहते हो क्यों फिर अँधेरा घना है
कभी बन्द कमरे से बाहर निकलते
तो फिर देखते कैसी रंगीं फ़िज़ा है
ख़ुदा जाने क्या तुमने मज़हब से सीखा
कि आज आदमी आदमी से डरा है
अना में रहे जब तलक मुब्तिला तुम
तुम्हे खुद से आगे न कुछ भी दिखा है
भरी भीड़ में आदमी हैं हज़ारों-
मगर ’आदमीयत’ हुई लापता है
कहाँ की थीं बातें, कहाँ ले गए तुम
अजब यह तुम्हारा तरीका नया है
सदाक़त की बातें जो करता हूँ ’आनन’
इसी बात पर यह ज़माना ख़फ़ा है
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
अना = अहं
सदाक़त = सच्चाई
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