रविवार, 23 अक्तूबर 2022

ग़ज़ल 268

  ग़ज़ल 268(33E)


1212--1122---1212--22


 ये बात और थी वो पास मेरे आ न सका

ख़याल-ओ-ख़्वाब से उसको कभी भुला न सका


तमाम उम्र सदा हासिला रखा उसने

न जाने कौन सी दीवार थी, ढहा न सका


दयार-ए-यार से गुज़रा हूँ बारहा यूँ तो

वो रूबरू भी हुआ मैं नज़र मिला न सका


चला था शौक़ से राह-ए-तलब में ख़्वाब लिए

जो रस्म-ओ-राह थी उल्फ़त की मैं निभा न सका


बहुत हूँ दूर मगर राबिता वही अब भी

अक़ीदा आज भी दिल में वही, भुला न सका


ज़रा सी बात थी इतनी बड़ी सजा ,या रब !

जो बात आप से कहनी थी वो बता न सका


अज़ाब वक़्त के क्या क्या नहीं सहे ,’आनन’

भले ही टूट गया था, मैं सर झुका न सका


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

दयार-ए-यार से = यार के इलाके से  

रस्म-ओ-राह = ढंग तरीक़ा

अक़ीदा  = श्रद्धा विश्वास

राबिता  = सम्पर्क

अज़ाब  = यातना कष्ट

  

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