ग़ज़ल 268(33E)
1212--1122---1212--22
ये बात और थी वो पास मेरे आ न सका
ख़याल-ओ-ख़्वाब से उसको कभी भुला न सका
तमाम उम्र सदा हासिला रखा उसने
न जाने कौन सी दीवार थी, ढहा न सका
दयार-ए-यार से गुज़रा हूँ बारहा यूँ तो
वो रूबरू भी हुआ मैं नज़र मिला न सका
चला था शौक़ से राह-ए-तलब में ख़्वाब लिए
जो रस्म-ओ-राह थी उल्फ़त की मैं निभा न सका
बहुत हूँ दूर मगर राबिता वही अब भी
अक़ीदा आज भी दिल में वही, भुला न सका
ज़रा सी बात थी इतनी बड़ी सजा ,या रब !
जो बात आप से कहनी थी वो बता न सका
अज़ाब वक़्त के क्या क्या नहीं सहे ,’आनन’
भले ही टूट गया था, मैं सर झुका न सका
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
दयार-ए-यार से = यार के इलाके से
रस्म-ओ-राह = ढंग तरीक़ा
अक़ीदा = श्रद्धा विश्वास
राबिता = सम्पर्क
अज़ाब = यातना कष्ट
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