ग़ज़ल 258 [23E]
221---2122 // 221--2122
जब नाम ले के तुमने मुझको कभी बुलाया
सौ काम छोड़ कर मै दौड़ा चला था आया
इस इज़्तराब-ए-दिल की क्या क़ैफ़ियत कहूँ मै
जो प्यार से मिला बस ,अपना उसे बनाया
गुमराह हो गया ख़ुद वो ढूँढता फिरे है
रस्ता तुम्हारे घर का जिसने मुझे बताया
रिश्ता ये बाहमी है यह जाविदाँ अज़ल से
उबरा वही है अबतक जिसने इसे निभाया
मेरी इबादतें थी या आप की नवाज़िश
हर शै में आप ही का चेहरा उभर के आया
हिर्स-ओ-हवस, अना से, निकला कभी जो बाहर
बेलौस साफ़ अपना किरदार रास आया
अपने गुनाह लेकर जाते किधर को जाते
पूछा कभी तो सबने दर आप का बताया
उनकी गली में ’आनन’ जाओगे भी तो कैसे
तुमने चिराग़-ए-उल्फ़त है क्या कभी जलाया ?
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
इज़्तराब-ए-दिल = दिल की बेचैनी/व्याकुलता
बाहमी रिश्ता = परस्पर आपसी रिश्ता
जाविदा = शाश्वत ,नित्य , अमर
हिर्स-ओ-हवस,अना से = लोभ मोह वासना अहम घमण्ड से
बेलौस साफ़ = पाक बेदाग़ साफ़
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