ग़ज़ल 391[54F]
2122---212 // 2122--212
रमल मुरब्ब: महज़ूफ़ मुज़ाइफ़
कह गया था वह मगर लौट कर आया नही
बाद उसके फिर मुझे, और कुछ भाया नहीं ।
चाहता था वह कि मैं ’हाँ’ में ’हाँ’ करता रहूँ
राग दरबारी कभी , गीत मैं गाया नहीं ।
बदगुमानी में रहा इस तरह वह आदमी
क्या ग़लत है क्या सही, फ़र्क़ कर पाया नहीं।
ज़िंदगी की दौड़ में सब यहाँ मसरूफ़ हैं
कुछ को हासिल मंज़िलें, कुछ के सर साया नहीं।
इश्क़ होता भी नहीं ,आजमाने के लिए
चल पड़ा तो चल पड़ा, फ़िर वो रुक पाया नहीं।
सब उसी की चाल थी और हम थे बेख़बर
वह पस-ए-पर्दा रहा, सामने आया नहीं ।
तुम भी ’आनन’ आ गए किसकी मीठी बात में
साज़िशन वह आदमी किसको भरमाया नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
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