ग़ज़ल 390
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[ बह्र--ए-मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मह्ज़ूफ़]
[ बह्र--ए-मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ मह्ज़ूफ़]
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गर बन न सका फ़ूल तो काँटा न बना कर
चलते हुए राही को न बेबात चुभा कर ।
मत भूल तुझे लौट के आना है धरा पर
उड़ता है गगन में भले जितना भी उड़ा कर ।
उड़ता है गगन में भले जितना भी उड़ा कर ।
क्या कह रही है प्यार की बहती हुई नदी
’रोको न रवानी को मेरी बाँध बना कर ।
झुकने को तो झुक जायेगा दुर्गम यह हिमालय
चलना है अगर चल तो नई राह बना कर ।
वैसे तो मेरे दिल में है इक प्यार का दर्या
गाता है मुहब्बत का सदा गीत, सुना कर ।
किस रूप में मिल जाएगा इन्सां में फ़रिश्ता
यह सोच के इनसान का आदाब किया कर।
बालू का घरौंदा है, नही घर तेरा 'आनन'
यह जिस्म है फानी, तू इसे घर न कहा कर ।
यह जिस्म है फानी, तू इसे घर न कहा कर ।
-आनन्द.पाठक-
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