ग़ज़ल 374
221---1222 // 221----1222
हम क़ैद में क्यों रहते, पिंजड़े में क्यों पलते
गर उनकी तरह हम भी, भेड़ों की तरह चलते ।
सच जान गए जितने ,आश्वस्त रहे उतने ,
वो झूठ के दम पर ही ,दुनिया को रहे छलते ।
बस कर्म किए जाना, होना है सो होगा ही
लिख्खे हैं जो क़िस्मत में ,टाले से कहाँ टलते ।
बिक जाते अगर हम भी, दुनिया तो नहीं रुकती
बस सर ही झुकाना था, यह हाथ नहीं मलते ।
जुमलॊं से अगर सबको, गुमराह नहीं करते
आँखों में सभी के तुम, सपनों की तरह पलते।
जीवन का यही सच है, चढ़ना है तो ढलना भी
सूरज भी यहाँ ढलता, तारे भी यहाँ ढलते ।
’आनन’ जो कभी तुमने, इतना तो किया होता
भटका न कोई होता, दीपक सा अगर जलते ।
-आनन्द.पाठक-
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