ग़ज़ल 375/ 51-अ
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बेदाग़ आदमी का करें कैसे इन्तिख़ाब
या तो नक़ाबपोश है या फिर है बेनिक़ाब
जिस आदमी की खुद की कभी रोशनी नहीं
औरों की रोशनी से चमकता है लाजवाब ।
सत्ता के जोड़-तोड़ में वह बेमिसाल है
उम्मीद कर रहें हैं कि लाएगा इन्क़िलाब ।
उस आदमी की डोर किसी और हाथ में
उड़ता है आसमान में उड़ता हे बेहिसाब।
वो झूठ को सच की तरह बोलता रहा
ऐसे ही लोग ज़िंदगी में आज कामयाब ।
उसकी नज़र में पहले तो शर्म-ओ-हया भी था
आता है सामने जो अब आता है बेहिजाब ।
’आनन’ जिधर भी देखिए हर शख़्स ग़मजदा
हर शख़्स की ज़ुबान पे तारी है ज़ह्र आब ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
इन्तिख़ाब = चुनाव
ज़ह्रआब = विष
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