शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

ग़ज़ल 394

 

ग़ज़ल 394 [57फ़]

1212---1122---1212---112/22


मचा के शोर मुझे चुप करा नहीं सकते

पहाड़ फूँक से ही तुम उड़ा नहीं सकते


ग़रूर है ये तुम्हारा , तमीज़ का परचम

दिखा के आँख मुझे तुम डरा नहीं सकते 


नहीं वो पेड़ जो  गमलों में, नरसरी में पले

वो शाख हैं कि हमें तुम झुका नहीं सकते ।


ये झूठ का जो पुलिंदा लिए हुए सर पे

पयाम सच का मेरे तुम दबा नहीं सकते


सवाल ये है कि सुनना न मानना है तुम्हें

दिमाग़ में जो तुम्हारे मिटा नहीं सकते ।


वो हार कर भी सबक कुछ न सीख पाया है

नहीं है सीखना जिसको सिखा नहीं सकते ।


जवाब सुन के भी वह सुन सका नहीं ’आनन’

जो कान बंद किए हो , सुना नहीं सकते।


-आनन्द.पाठक-

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