ग़ज़ल 381[45F]
2122---2122---2122--2
बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं]
फिर घिसे नारे लगाना छोड़िए, श्रीमन !
फिर नया करना बहाना छोड़िए, श्रीमन !
हम जो अंधे थे भुनाते आप थे सिक्के
खोटे सिक्कों का भुनाना छोड़िए, श्रीमन !
आप के जुमलों का सानी क्या कहीं होगा
हाथ पर सरसो उगाना छोडिए, श्रीमन !
सरफिरो की बस्तियाँ हैं, क्या ठिकाना है
हाथ में माचिस थमाना छोड़िए, श्रीमन !
आइना देखा कि शीशे का मकाँ देखा
देख कर पत्थर उठाना छोड़िए, श्रीमन !
बन्द कमरे में घुटन बढ़ने लगी कब से
खुशबुओं से तर बताना छोड़िए, श्रीमन !
जख़्म ’आनन’ के अगर जो भर नहीं सकते
फिर नमक इन पर लगाना छोड़िए, श्रीमन !
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
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