शुक्रवार, 12 जुलाई 2024

ग़ज़ल 387

  

ग़ज़ल 387 [51F]

2122---2122---2122


आश्रमों में धुंध का वातावरण है

बंद आँखें फिर भी कहते जागरण है ।


आदमी अंदर ही अंदर खोखला है

खोखली श्रद्धा का ऊपर आवरण है ।


और को उपदेश देते त्याग माया 

कर न पाते मोह का ख़ुद संवरण है ।


लोग अंधी दौड़ में शामिल हुए अब 

चेतना का क्या नया यह अवतरण है ।


भीड़ में हम भेड़ -सा हाँके गए हैं

यह निजी संवेदना का अपहरण है ।


ख़ुद से आगे और कुछ दिखता न उनकॊ

स्वार्थ का कैसा भयंकर आचरण है ।


रोशनी स्वीकार वो करते न ’आनन’

इन अँधेरों का अलग ही व्याकरण है ।


-आनन्द.पाठक-

सं 01-07-24


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