ग़ज़ल 387 [51F]
2122---2122---2122
आश्रमों में धुंध का वातावरण है
बंद आँखें फिर भी कहते जागरण है ।
आदमी अंदर ही अंदर खोखला है
खोखली श्रद्धा का ऊपर आवरण है ।
और को उपदेश देते त्याग माया
कर न पाते मोह का ख़ुद संवरण है ।
लोग अंधी दौड़ में शामिल हुए अब
चेतना का क्या नया यह अवतरण है ।
भीड़ में हम भेड़ -सा हाँके गए हैं
यह निजी संवेदना का अपहरण है ।
ख़ुद से आगे और कुछ दिखता न उनकॊ
स्वार्थ का कैसा भयंकर आचरण है ।
रोशनी स्वीकार वो करते न ’आनन’
इन अँधेरों का अलग ही व्याकरण है ।
-आनन्द.पाठक-
सं 01-07-24
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