ग़ज़ल 372 [43F]
2122---2122---2122
शहर का उन्वान कुछ बदला हुआ है
रात फिर लगता है कुछ घपला हुआ है।
लोग सहमें है , नज़र ख़ामोश है
आस्थाओं पर कहीं हमला हुआ है ?
लोग क्यों नज़रें चुरा कर चल रहे अब,
मन का दरपन फिर कहीं धुँधला हुआ है ।
शहर के हालात कुछ अच्छे न दिखते,
मज़हबी कुछ सोच से गँदला हुआ है ।
रोशनी के नाम पर लाए अँधेरे ,
कौन सा यह रास्ता निकला हुआ है ?
मुफ़्त राशन, मुफ़्त पानी, मुफ़्त बिजली
आदमी बस झूठ से बहला हुआ है ।
आज ’आनन’ बुद्ध गाँधी की ज़रूरत
आदमी जब स्वार्थ का पुतला हुआ है ।
-आनन्द.पाठक-
सं 30-06-24
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