ग़ज़ल 106
फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन-//-फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन--फ़अ’लुन
112---112--112---112 // 112--112--112--112
बह्र-ए-मुतदारिक़ मुसम्मन मख़्बून मुसक्कीन मुज़ाइफ़
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तुम भीड़ ख़रीदी देखे हो ,जज्बात नहीं देखें होंगे
मुठ्ठी में बँधे इन शोलों के .असरात नहीं देखें होंगे
गरदन जो झुका के बैठे हैं , वो बेग़ैरत दरबारी है
सर बाँध कफ़न दीवानों के ,सदक़ात नहीं देखें होंगे
”भारत तेरे टुकड़े होंगे ,इन्शा अल्ला ,इन्शा अल्ला"
मासूम फ़रिश्तों सी शकलें ,जिन्नात नहीं देखें होंगे
ये चेहरे और किसी के हैं .आवाज़ नहीं इनकी अपनी
परदे के पीछे साजिशकुन , बदज़ात नहीं देखें होंगे
जो बन्द मकां में रहते हैं , नफ़रत की गलियों में जीते
वो बाद-ए-सबा ,वो उलफ़त के ,बाग़ात नहीं देखें होंगे
भूखे मजलूमों की ताक़त ,शायद तुम ने जाना ही नहीं
बुनियाद हिला दें महलों के ,लम्हात नहीं देखें होंगे
गोली मैं नहीं होती ’आनन’ , कुछ प्यार में ताक़त होती है
पत्थर के शहर में फूलों के ,औक़ात नहीं देखे होंगे
-आनन्द.पाठक-
[सं 22-10-18]
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