सोमवार, 29 मार्च 2021

ग़ज़ल 115


2122---1212---22
फ़ाइलातुन--मुफ़ाइलुन--- फ़ेलुन
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़

बेसबब उसको मेह्रबाँ  देखा
जब भी देखा तो बद्गुमाँ देखा

पास पत्थर की थी दुकां ,देखी
जब भी शीशे का इक मकां देखा

जिसको "कुर्सी’ अज़ीज होती है
 उसको बिकते हुए यहाँ देखा

क़स्में खाता है वो निभाने की
पर निभाते हुए कहाँ   देखा

जब कभी ’रथ’ उधर से गुज़रा है
बाद  बस देर तक धुआँ  देखा

वक़्त का  जो था  ताजदार कभी
उसका मिटते  हुए निशां  देखा

सच को ढूँढें कहाँ, किधर ’आनन’
झूठ का बह्र-ए-बेकराँ  देखा

=आनन्द.पाठक-

[बह्र-ए-बेकरां = अथाह सागर]


[सं 12-04-19] 

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