मंगलवार, 30 मार्च 2021

ग़ज़ल 134

 फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन--फ़ऊलुन

122-------122------122------122
बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम 

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नहीं जानता  कौन हूँ ,मैं कहाँ हूँ
उन्हें ढूँढता मैं  यहाँ   से वहाँ  हूँ

तुम्हारी ही  तख़्लीक़ का आइना बन
अदम से हूँ निकला वो नाम-ओ-निशाँ हूँ

बहुत कुछ था कहना ,नहीं कह सका था
उसी बेज़ुबानी का तर्ज़-ए-बयाँ  हूँ

तुम्हीं ने बनाया , तुम्हीं  ने मिटाया
जो कुछ भी हूँ मैं बस इसी दरमियाँ  हूँ

मेरा दर्द-ओ-ग़म क्यों सुनेगा ज़माना
अधूरी  मुहब्बत की  मैं दास्ताँ  हूँ

न देखा ,न जाना ,सुना ही सुना है
उधर वो निहां है ,इधर मैं अयाँ  हूँ

ये मेरा तुम्हारा वो रिश्ता है ’आनन’
अगर तुम ज़मीं हो तो मैं आसमाँ  हूँ


-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ
तुम्हारी ही तख़्लीक़ = तुम्हारी ही सॄष्टि / रचना
अदम से     = स्वर्ग से
निहाँ है     = अदॄश्य है /छुपा है
अयाँ  हूँ        = ज़ाहिर हूँ /प्रगट हूँ/सामने हूँ

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