सोमवार, 29 मार्च 2021

ग़ज़ल 120

बह्र-ए-मुज़ारिअ’ अख़रब मकफ़ूफ़ मुख़्न्निस सालिम अल आखिर
 221---2122  //221--2122
मफ़ऊलु---फ़ा इलातुन--// मफ़ऊलु--फ़ा इलातुन
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 ये प्राण जब भी निकलें ,पीड़ा मेरी  घनी हो
इक हाथ पुस्तिका  हो .इक हाथ  लेखनी हो

सूली पे रोज़ चढ़ कर ,ज़िन्दा रहा हूँ कैसे
आएँ कभी जो घर पर,यह रीति  सीखनी हो

हर दौर में रही है ,सच-झूठ की लड़ाई
तुम ’सच’ का साथ देना,जब झूठ से ठनी हो

बेचैनियाँ हों दिल में ,दुनिया के हों मसाइल
याँ मैकदे में  आना .खुद से न जब बनी  हो

नफ़रत से क्या मिला है, बस तीरगी  मिली है
दिल में हो प्यार सबसे , राहों में रोशनी हो

चाहत यही रहेगी ,घर घर में  हो दिवाली
जुल्मत न हो कहीं पर ,न अपनों से दुश्मनी हो

माना कि है फ़क़ीरी ,फिर भी बहुत है दिल में
’आनन’ से बाँट  लेना , उल्फ़त जो बाँटनी हो

-आनन्द.पाठक-

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