मंगलवार, 30 मार्च 2021

ग़ज़ल 164

2122--1212--112/22
फ़ाइलातुन--मफ़ा इलुन- फ़ इलुन/ फ़अ’लुन
बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून महज़ूफ़
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सच कभी जब  फ़लक से उतरा है
झूट को नागवार  गुज़रा है

बाँटता कौन है चिराग़ों को 
रोशनी पर लगा के पहरा  है

ख़ौफ़ आँखों के हैं गवाही में
हर्फ़-ए-नफ़रत हवा में बिखरा है

आग लगती कहाँ, धुआँ है कहाँ
राज़ यह भी अजीब  गहरा है

खिड़कियाँ बन्द हैं, नहीं खुलतीं
जख्म फिर से तमाम उभरा है

दौर-ए-हाज़िर की यह हवा कैसी?
सच  भी बोलूँ तो जाँ पे ख़तरा है ।

आज किस पर यकीं करे ’आनन’
कौन है क़ौल पर जो ठहरा है ?


-आनन्द.पाठक- 


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