मंगलवार, 30 मार्च 2021

ग़ज़ल 163

 212---212---212---212

फ़ाइलुन---फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन

बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम

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इश्क़ की राह पर चल दिए हो, अगर

ख़ौफ़ क्यों हो ,भले रास्ता पुरख़तर ?


इत्तिफ़ाक़न कभी  आप आएँ इधर

देखिए ज़ौक़-ए-दिल, मेरी ज़ौक़-ए-नज़र


फिर न आये कभी उम्र भर होश में

देख ले आप को जो कोई भर नज़र


इश्क़ में डूब कर आप भी देखिए

कौन कहता है यह बेसबब दर्द-ए-सर


ये अलग बात है वो न अपना हुआ

उम्र भर जिसको समझा था लख़्त-ए-जिगर


खुद ही चल कर वो आयेंगे दर पर मेरे

मेरी आहों का होगा अगर पुरअसर


तुमने ’आनन’ को देखा, न जाना कभी

उसका सोज़-ए-दुरूँ और रक्स-ए-शरर


-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ 

पुरख़तर = ख़तरों से भरा हुआ

ज़ौक़-ए-दिल = दिल की अभिरुचि

ज़ौक़-ए-नज़र = प्रेम भरी दॄष्टि

लख़्त-ए-जिगर - जिगर का टुकड़ा

सोज़-ए-दुरुँ = दिल की आग [प्रेम की]

रक्स-ए-शरर = [प्रेम की] चिंगारियों का नाच 


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